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Sunday, 22 December, 2024
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चीन-ईरान के बीच नया समझौता भारत के लिए चिंता का सबब, ये किसी दूसरे अंतर्राष्ट्रीय डील जैसा नहीं है

चीन-ईरान के बीच 400 बिलियन डॉलर का समझौता ऐसे समय में हुआ है जब ईरान पर थोपे गए प्रतिबंधों को हटाने का अमेरिका कोई संकेत नहीं दे रहा है.

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चीन और ईरान के बीच 25 साल के आर्थिक सहयोग समझौते से भारत को कई कारणों से चिंतित होना चाहिए और उसे क्षेत्र के देशों के प्रति अपनी नीतियों पर पुनर्विचार भी करना चाहिए. ईरान के साथ चीन का, तेहरान में 24 मार्च को हस्ताक्षरित 400 बिलियन डॉलर का समझौता दोनों सर्वसत्तावादी देशों के बीच दोस्ताना संबंधों के विस्तार की नींव साबित होगा.

यह समझौता ऐसे समय में हुआ है जब अमेरिका ईरान पर थोपे गए प्रतिबंधों को हटाने का कोई संकेत नहीं दे रहा है. जबकि जो बाइडन प्रशासन से उम्मीद की जा रही थी कि वो परमाणु कार्यक्रम जैसे बुनियादी मुद्दों पर कोई समझौता किए बिना डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों को उलट देगा और ईरान के प्रति सुलहपूर्ण रवैया अपनाएगा.


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भारत को ईरान से सहयोग की ज़रूरत

भारत ने ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों को लेकर अपनी चिंताओं को बारंबार दोहराया है. होर्मुज जलसंधि के पास रणनीतिक अवस्थिति वाला बंदर अब्बास बंदरगाह, जो कि भारत के लिए अधिकतम कार्गो संभालता था, के भारतीय व्यापार के लिए अनुपलब्ध होने से व्यापार लागत कई गुना बढ़ गई है. ईरान भारत का तीसरा सबसे बड़ा ऊर्जा आपूर्तिकर्ता रहा है और प्रतिबंधों के कारण ईरानी आपूर्ति ठप होने का तेल की बढ़ी कीमतों पर असर पड़ने के साथ ही व्यापार संतुलन डगमगा गया है.

ईरानी परमाणु समझौते (ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन) से 2018 में अमेरिका के बाहर निकलने के बाद, ईरान पर और प्रतिबंध लगाए गए थे, जिनमें उससे आयात पर पूर्ण प्रतिबंध शामिल था. भारत सहित आठ देशों को केवल छह महीने की छूट दी गई थी जिसकी अवधि मई 2019 में समाप्त हो गई. हालांकि प्रतिबंधों से पहले अपनी आवश्यकता का 80 प्रतिशत से अधिक तेल बाहर से खरीदने वाले भारत के तेल आयात में ईरान का हिस्सा लगभग 10 प्रतिशत ही था, लेकिन कई अन्य कारक हैं जो नई दिल्ली के रणनीतिक और सुरक्षा हितों के खिलाफ जाते हैं. ईरान द्वारा भारत को दी जाने वाली सुविधाओं में 60 दिनों का व्यापार ऋण, ढुलाई और बीमा शुल्कों पर आकर्षक छूट और रुपये में भुगतान के विकल्प जैसी बातें शामिल थीं.

भारत के बहुत जल्द चाबहार पोर्ट का संचालन शुरू करने की संभावना है, जो हमें विरोधी पाकिस्तान पर निर्भरता के बिना अफगानिस्तान तक पहुंचने में सक्षम बनाएगा. अमेरिका यदि अफगानिस्तान के संघर्ष प्रभावित इलाकों में अपनी सामरिक सैन्य बढ़त को खोए बिना वहां से बाहर निकलने के प्रति गंभीर है तो उसके नीति निर्माताओं को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए. जमीनी बलों के लिए सुविधाओं के निर्माण में भारत की मदद लेकर अमेरिका पाकिस्तान पर अपनी निर्भरता काफी कम कर सकता है और उसे पाकिस्तानी तालिबान की दया पर भी आश्रित नहीं होना पड़ेगा जो कि अफगान तालिबान के साथ समझौता कराने के लिए अमेरिका से बड़ी कीमत वसूल रहा है.

ईरान मध्य एशियाई देशों के साथ व्यापार के लिए भारत का प्रवेश द्वार भी है जहां तक पहुंचने के लिए भारत के पास बहुत सीमित भौगोलिक विकल्प हैं. व्यापार और सुरक्षा संबंधी अनेक क्षेत्रीय संगठनों की मौजूदगी वाले पूर्वी एशिया के विपरीत मध्य एशियाई देशों का बहुत कम बहुपक्षीय संगठनों से वास्ता है, जिनमें से एक शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) है.

भारत के लिए ये बेहद ज़रूरी है कि वह ईरान और अफगानिस्तान को शामिल करते हुए मध्य एशियाई देशों का एक संस्थागत ढांचा तैयार करने में अग्रणी भूमिका निभाए. साथ ही, भारत को अपनी ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तुर्कमेनिस्तान-अफगानिस्तान-पाकिस्तान-भारत (टीएपीआई) गैस पाइपलाइन परियोजना पर भी गंभीरता से काम करने की ज़रूरत है.

लेकिन ये सब तभी संभव है जब नई दिल्ली अमेरिका को ये बात समझा सके कि ईरान के साथ उसके संबंधों पर रोक लगाए रखना निरर्थक और भारत के क्षेत्रीय सुरक्षा तंत्र के खिलाफ होगा.


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चीन-ईरान मित्रता से उत्पन्न नई चुनौतियां

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के तहत चीन की कई देशों में फैली यूरेशियाई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का अब ईरान तक विस्तार किया जा रहा है. इससे न केवल ईरान में बीजिंग का प्रभाव बढ़ेगा बल्कि इसके कारण चीन क्षेत्र में एक अहम निर्णयकर्ता की हैसियत भी हासिल कर सकेगा. इसमें संदेह नहीं कि चीन-रूस-तुर्की-ईरान धुरी में कई विरोधाभास अंतर्निहित हैं लेकिन चीन वित्तीय मदद के बल पर शायद बड़ी अड़चनों से पार पा लेगा.

इसके अलावा, ये वही देश हैं जो एक समय अमेरिका को इस क्षेत्र और हिंद-प्रशांत के लिए एक अनामंत्रित वर्चस्वादी के रूप में देखते थे. हिंद-प्रशांत की अवधारणा का महत्व बढ़ने और क्वाड रूपी नए सुरक्षा तंत्र में भारत की भूमिका को मान्यता मिलने के मद्देनज़र चीन और ईरान के बीच 25 साल की रणनीतिक साझेदारी का अधिक स्पष्टता के साथ अध्ययन और विश्लेषण करना होगा.

यह समझौता चीन और ईरान के बीच 1979 से चली आ रही साझेदारी पर मुहर लगाती है, जब ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी की सत्ता को उखाड़ फेंका गया था और इस्लामिक क्रांति के आध्यात्मिक नेता अयातुल्ला रुहोल्ला खुमैनी ने 15 साल के निर्वासन के बाद शासन पर नियंत्रण किया था. ये वो दौर था जब चीन में माओ की मौत के बाद देंग जिओपिंग विदेश नीति का पुनर्निर्धारण करने, खुलापन लाने, सांस्कृतिक क्रांति से पीछे हटने और मित्रवत माने जाने वाले देशों के साथ नए गठजोड़ बनाने में व्यस्त थे.

अमेरिका-चीन आर्थिक और सुरक्षा समीक्षा आयोग के लिए तैयार 2013 की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन और ईरान ने पिछले 30 वर्षों में एक मजबूत साझेदारी विकसित की है. दरअसल, चीनी रक्षा उद्योग को खाड़ी युद्धों और 1980 के दशक में लंबे समय तक चले ईरान-इराक युद्ध में सक्रिय रहे ईरान के रूप में एक तैयार बाजार मिल गया. साथ ही, खुद चीन को अपने विनिर्माण क्षेत्र में तेज़ी को बरकरार रखने के लिए तेल आपूर्ति संबंधी स्थायित्व की आवश्यकता थी. यानि यह एक सुविधाजनक साझेदारी थी.

इसके अलावा, 1979 की क्रांति के बाद ईरान के परमाणु कार्यक्रम को दोबारा शुरू करने में भी चीन की महत्वपूर्ण भूमिका थी. उस दौरान ‘शिया बम’ बनाने और अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की तेहरान की कोशिशों में चीनी रणनीतिक और तकनीकी समर्थन की एक अहम भूमिका थी. चीन ने कथित तौर पर ईरान को संवर्धित यूरेनियम के लिए ‘यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड’ की और एचवाई-2 सिल्कवॉर्म एंटीशिप मिसाइलों की बिक्री की थी.

नया ईरान-चीन समझौता नए अमेरिकी प्रशासन के लिए एक चुनौती के समान है. ये एक अलग मुद्दा है कि अमेरिकी नीति निर्माता इससे कैसे निपटते हैं. जहां तक भारत की बात है, तो इसे एक आम अंतरराष्ट्रीय समझौते के रूप में खारिज करना तथा सावधानीपूर्वक और तेजी से कदम नहीं उठाना भारत को बहुत महंगा पड़ सकता है.

(शेषाद्री चारी ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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