नेटफ्लिक्स की वेब सिरीज ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ का पाकिस्तान में विरोध होने के बावजूद मैंने एक-के-बाद-एक इसे पूरा देख डाला. और अब मैं सोच रही हूं कि मैंने खुद को इतनी ज़हमत क्यों दी.
शाहरुख खान निर्मित नेटफ्लिक्स की इस बहुचर्चित सिरीज़ का कथानक तीन भारतीय खुफिया एजेंटों के पाकिस्तान के अशांत सूबे बलूचिस्तान में मिशन पर केंद्रित है. उनका लक्ष्य है क्वेटा में तालिबान द्वारा बंधक बनाए गए चार भारतीय जासूसों को छुड़ाना.
अगस्त में इस सिरीज का ट्रेलर रिलीज होते ही, पाकिस्तान में कई लोगों ने इसे एक प्रोपेगेंडा या दुष्प्रचार का शो करार देते हुए कहा कि इसका एकमात्र उद्देश्य पाकिस्तान का बुरा चित्रण करना है.
Stay in bollywood syndrome @iamsrk . For reality see RAW Spy Kulbhushan Jadev, Wing Comd Abhinandan & state of 27 Feb 2019.
You could rather promote peace & humanity by speaking against atrocities in IOJ&K and against Hindituva of Nazism obsessed RSS. https://t.co/0FWqoRQsO6— Asif Ghafoor (@peaceforchange) August 23, 2019
This just vindicates what I have been saying for so long. Another week & yet another anti-Pakistan project. Now can we wake up, smell the coffee & see Bollywood’s agenda for what it is?@iamsrk Be patriotic, nobody is stopping you – just don’t do it at the expense of vilifying us. https://t.co/iCElRpJAa1
— Mehwish Hayat TI (@MehwishHayat) August 23, 2019
पाकिस्तानियों को अधिक पीड़ा इस वजह से हुई कि कि इसके प्रोडक्शन में शाहरुख खान शामिल हैं. जब शाहरुख की बात आती है, तो मानो पाकिस्तान में हर कोई ये भूल जाता है कि वह भारतीय हैं. कितनी अजीब बात है.
विवाद में हस्तक्षेप करते हुए इस सिरीज के मुख्य किरदार इमरान हाशमी ने सफाई देने की कोशिश की है कि कैसे 2015 में प्रकाशित समान नाम की एक किताब पर आधारित ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ एक अलग समय में कही गई काल्पनिक कहानी है, और कैसे ये कोई प्रोपेगंडा फिल्म नहीं है.
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हास्यास्पद रोमांचक प्रस्तुति
यदि ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ के पीछे दुष्प्रचार की भावना रही हो, तो भी यह हर दृष्टि से बेढंगा शो है. ढाई भारतीय एजेंट एक गुप्त अभियान के तहत बलूचिस्तान पहुंचकर वहां तालिबान और पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों से मुकाबला करते हैं. उनके सामने कोई चुनौती है भी क्या? क्योंकि अपने लक्ष्य पर काम करने के साथ-साथ वे शायद बलूचिस्तान की आज़ादी के प्रयासों में भी योगदान कर सकते हैं.
ये एक बचाव अभियान है जिसमें तीन एजेंट शामिल हैं – पहले के एक मिशन में अपने एक मित्र को गंवाने के अफसोस से उबर नहीं पाया त्रासद नायक कबीर आनंद (इमरान हाशमी) है; अफगानिस्तान स्थित एजेंट वीर सिंह (विनीत कुमार सिंह), जिसे उसकी खुफिया एजेंसी तक भुला चुकी है; और अपने पहले फील्ड मिशन पर गई ईशा खन्ना (सोभिता धुलिपला) जिसे बंदूक तक नहीं चलाना आता – पर काम शुरू करने के लिए शायद उसे बलूचिस्तान से आसान और कोई जगह नहीं मिली. उसे इंडियन इंटेलिजेंस विंग में बलूचिस्तान का विशेषज्ञ बताया गया है. हालांकि फील्ड मिशनों के लिए ईशा के अनुरोधों को नियमित रूप से खारिज किया जाता रहा था.
हमें दिखाया जाता है कि ये एजेंट पहले विमान से अफगानिस्तान पहुंचते हैं और फिर वहां से सड़क मार्ग से बलूचिस्तान जाते हैं. रोमांचक लगा?
यहां एक छोटा-सा विरोधाभास है. पाकिस्तान और भारत की तरह अफगानिस्तान में भी लेफ्ट-हैंड ड्राइव की यातायात व्यवस्था है, पर पूरे शो में इन एजेंटों को राइट-हैंड ड्राइव वाली कार में दिखाया गया है.
इस सड़क यात्रा के दौरान उनकी बातचीत से उनके मिशन की सफलता की संभावना का अंदाजा लग जाता है – दर्शकों के हिसाब से देखें तो बिल्कुल नहीं के बराबर. उनमें से एक सवाल करता है, ‘सीमा कितनी दूर है’; सिंह का जवाब आता है, ‘हम सीमा पार भी कर चुके हैं, पाकिस्तान में आपका स्वागत है; वीज़ा और सीमा नियंत्रण के प्रावधान दूसरी दुनिया के लिए होंगे.’ और फिर अचानक, इन एजेंटों को एक सुरक्षा चौकी पर रोका जाता है, जहां लड़ाई छिड़ जाती है, और उनकी राइट-हैंड ड्राइव कार वहीं गायब हो जाती है.
वे सीमावर्ती इलाके में पैदल चलते दिखते हैं, और फिर वे क्वेटा में होते हैं. तीनों बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा कैसे पहुंचे, ये रहस्य ही रह जाता है. वे क्वेटा तक पैदल चलते चले गए या बस से गए या फिर खच्चर की सवारी करते हुए? हमें नहीं पता.
भारी-भरकम लक्ष्य रखने वाले इन एजेंटों को, पूरी सिरीज में, अक्सर एक-दूसरे से ये सवाल करते देखा जा सकता है, ‘क्या योजना है’; और उन्हें ‘हमारे पास कोई योजना होनी चाहिए’ कहते दिखाया जाता है. हकीकत में आज बिना योजना के कोई घर से बाहर कदम भी रखता है?
ये बात बारंबार ब्रेकिंग न्यूज़ की तरह आती है कि केच जिला तालिबान का गढ़ है, और हर बार इसका उल्लेख होने पर तीनों एजेंटों को चकित होते दिखाया जाता है. और फिर सिरीज में जबरन एक प्रेम-कहानी भी ठूंसी गई है. इस तरह के बेतरतीब और बचकाना दृश्यों के कारण ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ अब तक का सबसे हास्यास्पद जासूसी शो बन गया है. मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ तक में इससे बेहतर रहस्य, साजिश, कथानक, कहानी में मोड़ आदि रहे होंगे.
वही घिसा-पीटा तरीका
इसमें कुछ भी विश्वसनीय लगता है. अभिनय इतना बनावटी है कि किसी पात्र को लेकर आपके मन में कोई भाव ही नहीं उभरता, बात चाहे एक बलूच राष्ट्रवादी की बेटी के साथ कबीर आनंद की जबरिया प्रेम कहानी की हो, या अकारण उसका शेक्सपीयर के शब्दों को उद्धृत करना या अलजाइमर पीड़ित अपने पिता की सेवा करने की वीर सिंह की इच्छा.
याद रहे कि ये एक अनधिकृत मिशन है और तीनों एजेंट अपने भरोसे हैं. कैसे उनका काम चल रहा है, कौन उनकी मदद कर रहा है? हमें कभी नहीं बताया जाता है. जब एजेंट ईसा खन्ना क्वेटा की एक दुकान से लैपटॉप चुराती है, तो यही लगता है कि वो उसे अपने बैग में रखना भूल जाती है. लेकिन आगे चलकर उसे चुराए लैपटॉप पर काम करते और तरह-तरह के एप्प का इस्तेमाल करते दिखाया जाता है – कौन-सा इंटरनेट कनेक्शन है उसके पास? पाकिस्तान टेलीकम्युनिकेशन का वायरलेस पैकेज या ज़ोंग 4जी? जबकि वास्तव में उस इलाके में इंटरनेट कवरेज बहुत बुरा बताया जाता है.
हमें आज तक समझ नहीं आया है कि बॉलीवुड फिल्मों में, और अब इस सिरीज में भी, पाकिस्तानी किरदार एक खास लहजे में क्यों बात करते हैं. नहीं, हम लोग आदाब, जनाब, बहुत खूब, हैरत है, फरमान आया है, आपकी इजाज़त हो आदि नहीं बोलते हैं. हर पात्र उर्दू शायरी प्रतियोगिता से आया दिखता है, और ये सब वीर-ज़ारा के समय से या उससे भी पहले से चला आ रहा है. पाकिस्तान में लोग कैसे बोलते हैं, इस बारे में रिसर्च करना क्या सचमुच में इतना मुश्किल है? और कोई कोशिश न भी की जाए, तो महज प्राइमटाइम पाकिस्तानी समाचार कार्यक्रमों को देखना ही काफी होगा. हालांकि इससे आपकी मानसिक शांति कुछ समय के लिए प्रभावित हो सकती है, फिर भी इससे शुरुआत करना गलत नहीं होगा.
एक और समस्या उच्चारण की है. उदाहरण के लिए, आईएसए (आईएसआई का काल्पनिक रूप) का तालिबान हैंडलर तनवीर शहज़ाद मुल्ला से कहता है: ‘मेरे मंसूबे अज़ीम हैं, आपको फुकर (न कि फख्र) होगा’. अब देखिए, कैसे इससे पूरा मतलब बदल जाता है.
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साथ ही, हर तालिबानी आतंकवादी, अफगान या पाकिस्तानी हाशमी सूरमा का ब्रांड एंबेसडर नहीं होता. उनकी आंखों में काजल भर देने से वे अधिक खतरनाक नहीं दिखने लगते, पर ऐसा करने से फिल्म बनाने वाले अधिक मूर्ख जरूर दिखने लगते हैं.
अच्छी बात ये है कि ‘बार्ड ऑफ ब्लड’ का सीज़न खत्म हो गया. पर बुरी खबर ये है कि इस सिरीज का एक और सीजन आ सकता है. यदि पहला सीजन किसी काम का नहीं था, तो कल्पना करें कि दूसरा सीजन कैसा होगा.
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(लेखिका पाकिस्तान की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वह @nailainayat हैंडल से ट्वीट करती हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)