नाथूराम गोडसे इस बार गांधी जी के बलिदान दिवस से इतर भी खबर में आ गया है. पहले फिल्म अभिनेता कमल हासन ने उसे ‘पहला हिन्दू आतंकवादी’ का तमगा दिया, उसके बाद भाजपा की भोपाल से लोकसभा की प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा ने गोडसे को देशभक्त करार दिया. साध्वी के बयान पर तग़ड़ा बवाल कटा तो उन्होंने माफी मांग ली पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी साध्वी प्रज्ञा की राय से इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने साफ कहा है कि ‘मैं साध्वी को उनके द्वारा व्यक्त किए विचारों के लिए कभी क्षमा नहीं कर सकूंगा.’ मोदी के इतने तीखे तेवर पहले शायद ही कभी किसी ने देखे-सुने हों.
पर बात तो गोडसे की करनी है. कारण साफ है कि सारे विवाद के केन्द्र में गोडसे ही है. ये सर्वविदित है कि गोडसे को लगता था कि गांधी मुसलमानों के हितों के पोषक हैं. उसकी मोटा-मोटी गांधी जी से दो शिकायतें थीं. पहली, गांधी जी ने दिल्ली में 13 जनवरी, 1948 को अपना उपवास क्यों रखा? दरअसल गांधी जी ने वह उपवास इसलिए रखा था क्योंकि दिल्ली में लूटपाट और आगजनी थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. सारे प्रयास विफल हो रहे थे. दंगाइयों पर नैतिक दबाव डालने के इरादे से उन्होंने 12 जनवरी, 1948 को अपने जीवन का अंतिम उपवास रखने का निर्णय लिया. वे 79 साल की उम्र में फिर से उपवास रख रहे थे. उनके पुत्र देवदास गांधी, जो तब हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक थे, ने उन्हें उपवास पर न जाने की सलाह दी थी. पर बापू माने नहीं. उनके उपवास का तुरंत सकारात्मक प्रभाव होने लगा. दंगे थम गए.
दिल्ली में जिंदगी फिर से अपनी रफ्तार से चलने लगी. दूसरा, जब देश का विभाजन हुआ तब सरकारी संपत्ति भारत-पाकिस्तान में बंटी. सरकारी खजाने में उपलब्ध रुपया भी बंटा. तब पाकिस्तान के हिस्से के 75 करोड़ आए. भारत सरकार ने शुरू में पाकिस्तान को 20 करोड़ रुपये दे दिए दिए. अब बचे 55 करोड़ रुपये. बापू चाहते थे कि यह राशि भी पाकिस्तान को अविलंब दे दी जाए. इन कारणों से गोडसे और उसके साथी बापू से नाराज था.
दरअसल, गोडसे की यह अज्ञानता ही थी कि वो बापू को हिन्दू विरोधी मानने लगा था. जबकि बापू तो सात्विक हिन्दू थे. हालांकि वे कतई कर्मकांडी हिन्दू नहीं थे. पर ये बात भी छोड़िए. अगर गोडसे को पता होता कि बापू ने नोआखाली (अब बांग्लादेश) में किस तरह से हिन्दुओं को मुसलमानों के कत्लेआम से बचाया तो वो संभवत: गांधी की हत्या नहीं करता. दरअसल जिन्ना के 16 अगस्त 1946 को दिए डायरेक्ट एक्शन के आह्वान के बाद बंगाल में कत्लेआम चालू हो गया. तब बापू दिल्ली में थे. वहां से कत्लेआम की खबरें आती जा रही थीं. उन खबरों को पढ़कर बापू निराश हो रहे थे. अंत में बापू दिल्ली से 1500 किलोमीटर दूर नोआखाली पहुंचते हैं. बापू के साथ नोआखाली जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, डॉक्टर राममनोहर लोहिया, निर्मल कुमार बसु, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर भी गए थे.
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वह 7 नवंबर, 1946 को नोआखाली में शांति की पहल चालू कर देते हैं. तब तक नोआखाली ‘श्मशान’ में बदल चुका था. वहां पर हजारों बेकसूर हिन्दुओं का कत्ल हो चुका था. हिन्दू स्त्रियों के साथ बलात्कार हो रहे थे. हिन्दुओं को धर्मांतरण किया जा रहा था. वहां पहुंचकर बापू ने दंगाइयों को कोसा. उनसे शांति की अपील की. महात्मा गांधी गांव-गांव घूमन लगे. उनकी पहल रंग लाई और स्थिति सामान्य होने लगी. मुसलमानों को उनकी बातें समझ आने लगीं. मुसलमान भी उनके साथ हो लिए. स्थानीय मुसलमानों ने बेघर हुए हिन्दुओं का पुनर्वास चालू कर दिया. जिन मंदिरों को तोड़ा गया था, उनका पुनर्निर्माण मुसलमानों के सहयोग से शुरू हो गया.
पर इससे पहले नोआखाली जिले के अंतर्गत आने वाले रामगंज, बेगमगंज, रायपुर, लक्ष्मीपुर, छागलनैया और सन्द्विप इलाके में एक सप्ताह तक बे रोक-टोक नरसंहार में 5000 से ज्यादा हिन्दू मारे गए थे. गांधी नोआखाली में चार महीने तक रहे. उनके सघन प्रयासों से हालात सामान्य हो गए. इसके बाद 2 मार्च को गांधी जी और उनकी टोली ने नोआखाली छोड़ दिया. वे कोलकाता चले गए. बेशक नोआखाली को बापू के जीवन का चरम माना जा सकता है. वे दिल्ली से दूर उजाड़ स्थान पर अपनी जान की परवाह किए बगैर हिन्दुओं को मारे जाने से बचा रहे थे. वे दिन-रात अपने मिशन में व्यस्त थे. उन्हें वहां पर सुरक्षा देने वाला कोई नहीं था. वहां के विषाक्त माहौल में उनकी और उनके साथियों के साथ कोई भी अप्रिय घटना हो सकती थी. पर इससे बेपरवाह वे सुदूर नोआखाली में अल्पसंख्यक हिन्दुओं को बचा रहे थे.
काश, ये सब कुछ नाथूराम गोडसे और उनके साथियों को मालूम होता. बापू का पहला धर्म मानवता था. इसलिए वे नोआखाली में हिन्दुओं को बचाते हैं, इधर दिल्ली में मुसलमानों की रक्षा करते हैं. गोडसे की सोच बहुत संकुचित थी. उसे इस तथ्य का ज्ञान ही नहीं था कि बापू हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति के कोढ़ से भी लड़ते रहे हैं. गांधी जी ने अपनी पत्रिका ‘यंग इंडिया’ में अप्रैल,1925 में लिखा भी था- ‘मंदिरों, कुंओं और स्कूलों में जाने और इस्तेमाल करने पर जाति के आधार किसी भी तरह की रोक गलत है. ‘गांधी जी ने 7 नवंबर, 1933 से 2 अगस्त, 1934 के बीच छूआछूत खत्म करने के लिए देशभर की यात्रा की थी. इसे गांधी की ‘हरिजन यात्रा या दौरा’ के नाम से भी याद किया जाता है. साढ़े 12 बजे हजार मील की उस यात्रा में गांधी जी न छूआछूत के खिलाफ जन-जागृति पैदा की थी.
उद्योगपति और गांधी जी के सहयोगी श्री घनश्याम बिड़ला ने उनसे बिड़ला मंदिर का उद्घाटन करने का अनुरोध किया तो उन्होंने एक शर्त रख दी. गांधी जी ने कहा कि वे मंदिर का उद्घाटन करने के लिए तैयार हैं, पर उनकी एक शर्त है.’ अगर उस शर्त को माना जाएगा तब ही वे मंदिर का उद्घाटन करेंगे. ये बात 1939 के सितंबर महीने की है.
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बिड़ला जी ने सोचा भी नहीं था कि उन्हें गांधी जी से इस तरह का उत्तर मिलेगा क्योंकि उनके बापू से काफी समय से मधुर संबंध थे. गांधी जी उनके अलबुर्कर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) के आवास में ठहरते भी थे. खैर, बिड़ला जी ने बापू से शर्त पूछी. गांधी जी ने कहा कि मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी. दरअसल उस दौर में मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश पर अनेक तरह से अवरोध खड़े किए जाते थे. उन्हें पूजा करने के लिए धर्म के ठेकेदार जाने नहीं देते थे. जब गांधी जी को आश्वासन दिया गया कि बिड़ला मंदिर में हरिजनों के प्रवेश पर रोक नहीं होगी तो वे बिड़ला मंदिर के उद्घाटन के लिए राजी हो गए. उसके बाद बिड़ला मंदिर का 1939 में विधिवत उद्घाटन हुआ.
मतलब गांधी जी हिन्दू धर्म में हजारों सालों से व्याप्त कुरीतियों से लड़ भी रहे थे. वे हिन्दुओं को बचा भी रहे थे, वे मुसलमानों को भी बचा रहे थे. इन सब बिन्दुओं को गोडसे ने नहीं देखा. उसने तो एक संत का वध कर दिया.
(वरिष्ठ पत्रकार और गांधी जी दिल्ली पुस्तक के लेखक हैं )