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Wednesday, 20 November, 2024
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नेपाल की नई कम्युनिस्ट सरकार अपने जोखिम पर ही चीन से नाता जोड़ेगी

भारत ने नेपाल में राजशाही से लेकर माक्र्सवादी निजाम तक, हर राज के साथ कामयाबी रिश्ता बनाया है. चीन के साथ मिलकर दो कम्युनिस्ट नेताओं की ताजा पेशकश भी नई दिल्ली के लिए कुछ अलग नहीं होगी

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पूर्व हिमालयी देश नेपाल में राजनीति पहाड़ के मौसम की तरह अप्रत्याशित और हैरान करने वाली है. यकीनन, नवंबर 2022 में हुए आम चुनाव का खंडित जनादेश और पाला बदलने वाले नेताओं को देखना किसी आश्चर्य से कम नहीं है.

इस चुनाव में नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्रियों के बीच मुकाबला था. शेर बहादुर देउबा की नेपाली कांग्रेस (एनसी) 89 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी. केपी शर्मा ओली की यूनाइटेड मार्कसिस्ट लेनिनिस्ट (यूएमएल) को 78 सीटें मिलीं.

पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी सेंटर (सीपीएन-एमसी) को 32 सीटें मिलीं. नेपाल का निचला सदन 275 सदस्यीय है, जिसमें 165 सीधे निर्वाचित होते हैं और 110 पार्टियों को मिले मतों के आधार पर आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से नामित किए जाते हैं.

देउबा की एनसी और प्रचंड की सीपीएन-एमसी पांच दलों के गठबंधन में थीं, जिसे 136 सीटें मिलीं, जो सरकार बनाने के लिए बहुमत से दो कम थीं.

लेकिन देउबा और प्रचंड के बीच बातचीत टूट गई, क्योंकि प्रचंड ने आरोप लगाया कि देउबा प्रधानमंत्री पद की साझेदारी की चुनाव-पूर्व गठबंधन की शर्त से पीछे हट गए हैं.

राजनीतिक नेता शायद मनमुटाव दूर करने में ज्यादा समय नहीं लगाते. तो, कभी धुर विरोधी माने जाने वाले प्रचंड और केपी ओली ने फौरन अपने मतभेदों से समझौता कर लिया और पूर्व माओवादी को पांच साल के कार्यकाल के पहले हिस्से में प्रधानमंत्री बनाने पर राजी हो गए. ऐसे में यह कतई आश्चर्य नहीं होगा, अगर कार्यकाल के दूसरे हिस्से मे केपी ओली को प्रधानमंत्री की कुर्सी से वंचित करने के लिए प्रचंड और देउबा हाथ मिला लें.

दिलचस्प यह भी है कि प्रचंड के गठबंधन में राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) के 24 सदस्य शामिल हैं, जो नेपाल की ‘हिंदू राजशाही’ और ‘हिंदू राज’ की बहाली की पुरजोर वकालत करती है.

उसने ये दो वादे अपने घोषणापत्र में भी किए हैं. संसद में चौथी सबसे बड़ी पार्टी, कमल थापा के नेतृत्व वाली आरपीपी 2020 में राजशाही समर्थक और धर्मांतरण विरोधी प्रदर्शनों का हिस्सा थी.

तब गृह मंत्रालय ने सभी 77 जिलों में इन रैलियों के दमन का निर्देश दिया था और कहा था कि अगर जरूरत हो तो बल प्रयोग किया जाए.

तभी आरपीपी ने राजशाही समर्थक भावनाओं को भुनाने के अवसर को भांप लिया था, जिसका उल्लेख अमेरिकी विदेश विभाग की 2021 की रिपोर्ट में किया गया था.

उधर, इन चुनावों में नेपाली कांग्रेस के संस्थापक बीपी कोइराला की पोती, लोकप्रिय बॉलीवुड स्टार मनीषा कोइराला ने आरपीपी के लिए प्रचार किया था.

उन्होंने कहा, ‘देश को राजशाही की जरूरत है … सांप्रदायिक वैमनस्य और प्रगतिशील राजनीति के नाम पर पारंपरिक और राष्ट्रवादी ताकतों के बहिष्कार ने देश को भारी नुकसान पहुंचाया है.’

उनका करिश्माई प्रचार अभियान आरपीपी के संसद में चौथी सबसे बड़ी पार्टी बनने का एक कारण हो सकता है. अगर वे राजनीति में उतरने का फैसला करती हैं, तो यह भविष्य में और भी चौंकाने वाला हो सकता है.

भारत को विकास के मद मेंउदार सहायता मुहैया कराने के अलावा नेपाल के लोकतंत्र और संस्था-निर्माण में भारी निवेश करना चाहिए.


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भारत की अहमियत चीन से ज्यादा

प्रधानमंत्री प्रचंड से विदेश नीति में जो अपेक्षा की जाती है, उसके मुकाबले उनके लिए नाजुक घरेलू संतुलन को साधना आसान हो सकता है.

कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने अपने पहले ट्वीट में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चीन के संस्थापक चेयरमैन माओ को 129वीं जयंती पर याद किया.

2008 में बतौर प्रधानमंत्री प्रचंड ने तिब्बती शरणार्थियों को नेपाल में प्रवेश करने से रोकने की बात की थी और नेपाल की धरती पर ‘चीन विरोधी’ गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करने की कसम खाई थी.

बीजिंग के सामने झुकने की एक वजह यह हो सकती है कि चीन की बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ) परियोजनाएं अभी भी नेपाल में जारी हैं.

2017 के समझौते के बाद काठमांडू ने नौ प्रस्ताव दिए थे, जिन पर 2019 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की नेपाल यात्रा के दौरान चर्चा की गई थी.

लेकिन कर्ज के जाल में फंसने के डर से नेपाल ने परियोजनाओं को अधर में लटका रखा है. उधर, नेपाल की संसद से अमेरिका से मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) के तहत 50 करोड़ डॉलर के अनुदान सहायता के प्रस्ताव को मंजूरी मिल गई है.

मानो अमेरिका का असर कम करने के लिए, चीन राजी हो गया है कि नेपाल उसके तियानजिन, शेन्जेन, लियानयुंगांग और झानजियांग वगैरह बंदरगाहों का इस्तेमाल करे, और नेपाली माल-आसबाब को चीन के रास्ते लाया-ले जाया जाए. इसके लिए लान्झोउ, ल्हासा और जिगात्से में जमीनी पोर्ट का भी इस्तेमाल कर सकता है.

लेकिन इनमें से कोई भी रास्ता व्यावहारिक नहीं है क्योंकि हर माल को 3,000 किमी से अधिक की दूरी तय करनी होगी. फिर भी, नई दिल्ली को किंगजांग रेलवे (जो चीनी मुख्यभूमि को तिब्बती पठार से जोड़ता है) के शिगात्से शहर तक विस्तार के लेकर चिंतित होना चाहिए, जिसे पश्चिम की ओर और नेपाल की सीमा के करीब लाने की योजना है.

यह भारत के लिए एक गंभीर सुरक्षा खतरा बन सकता है, जिसके बारे में काठमांडू को अवगत कराया जाना चाहिए. नई सरकार अपने जोखिम पर ही चीन से नाता जोड़ेगी.

नेपाल की सीमा पांच भारतीय राज्यों से मिलती है और इन राज्यों के रास्ते वह भारत और अन्य देशों के साथ व्यापार करता है. भौगोलिक और सांस्कृतिक निकटता के मद्देनजर भारत नेपाल को भूकंप या कोविड-19 टीके जैसी हर आपात स्थिति में मदद करने वाला पहला देश है.

नेपाल का दो-तिहाई से अधिक व्यापार भारत के साथ होता है, जिसमें खाद्यान्न और पेट्रोलियम उत्पाद शामिल हैं. दोनों देशों ने बुनियादी ढांचा और अन्य क्षेत्रों में कई परियोजनाएं तय की हैं.

भारत ने नेपाल में राजशाही से लेकर मार्क्सवादी निजाम तक हर प्रकार की व्यवस्था से सफलतापूर्वक निपटा है. जब तक सांस्कृतिक, आर्थिक और लोगों के बीच आपसी संपर्क कायम है, दोनों देशों के लिए सब कुछ अच्छा ही होना चाहिए.

(शेषाद्रि चारी ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं। उनका ट्विटर हैंडल @seshadrichari है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादनः शिव पाण्डेय । अनुवादः हरिमोहन मिश्रा)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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