केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने हाल में जब यह कहा कि सुरक्षाबलों को जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों के साथ बेरहमी से पेश आना चाहिए तो मैं उनसे सौ फीसदी सहमत था, लेकिन नक्सलियों के प्रति सरकार की ऐसी नीति के औचित्य पर मुझे गंभीर संदेह है.
आप अगर यह जानना चाहेंगे कि इसकी क्या वजह है, तो मैं कहूंगा कि पहले मामले में आप उन विदेशी आतंकवादियों के गिरोह से मुकाबला कर रहे होते हैं जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सीमा को पार करके घुसपैठ की है. वह हमारे देश को तोड़ना चाहते हैं, उस सूबे में विध्वंस और हिंसा करना चाहते हैं. इसलिए सुरक्षाबलों को उनके खिलाफ सख्त-से-सख्त कार्रवाई करने की पूरी छूट और आज़ादी होनी चाहिए.
लेकिन दूसरे मामले में आप अपने ही लोगों, ज़्यादातर आदिवासियों से मुकाबला कर रहे हैं, जो किसी-न-किसी गलत या सही वजह से नक्सल आंदोलन में शामिल हो गए हैं. उनकी शिकायतें वास्तविक या काल्पनिक भी हो सकती हैं, परंतु उनके मन में भारतीय सत्तातंत्र के खिलाफ निश्चित रूप से कोई-न-कोई नाराज़गी है. हो सकता है कि इस तंत्र ने उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल किया हो; उन्हें उनके जंगल से निकाल बाहर किया हो; जो उनकी रिहाइश के क्षेत्र थे उन्हें किसी बड़े व्यवसायी को अपना उद्योग लगाने के लिए सौंप दिया हो; या उनकी जीवन पद्धति, संस्कृति, भाषा को मिटाने की कोशिश की हो; या कोई और वजह रही हो. यह सच है कि उनके आंदोलन ने कुछ समय के बाद माओवादी स्वरूप अपना लिया. 2004 में इस पार्टी ने खुद को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) कहना शुरू कर दिया, लेकिन तथ्य यह भी है कि सामान्य पार्टी कार्यकर्ता को मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बारे में कुछ पता नहीं होता. उनकी लड़ाई सिर्फ उस सत्तातंत्र से है जिसे वह अपने प्रति अन्यायपूर्ण, अनुचित और असंवेदनशील मानते हैं.
जब अपने ही कुछ लोग विद्रोह करते हैं, हथियार उठा लेते हैं, सुरक्षाबालों पर हमले करने लगते हैं और विध्वंसकारी गतिविधियों में लिप्त हो जाते तब उनके खिलाफ बलप्रयोग करने के सिवा कोई विकल्प नहीं रह जाता, लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हम यह विश्लेषण करें और समझने की कोशिश करें के वह इतने हताश और उग्र क्यों हो गए. भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की 2006 की रिपोर्ट के एक भाग में कहा गया है कि “ऐसा लगता है कि आदिवासियों को उनकी ज़मीन से अलग करने की प्रक्रिया में कुछ लोगों, निरंकुश डिप्टी कमिश्नरों समेत राजस्व अधिकारियों, लापरवाह वकीलों, नासमझ सिविल अदालतों आदि सभी ने साठगांठ करके आदिवासी समुदायों को उनकी ज़मीन से बेदखल किया”. रिपोर्ट के अनुसार, इसका नतीजा यह हुआ कि आदिवासी लोग “पूरी तरह हताश, वंचित और त्रस्त” महसूस कर रहे थे. योजना आयोग के एक विशेषज्ञ दल ने ‘उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में विकास की चुनौतियों’ विषय पर अध्ययन किया. इस दल के सदस्यों में यह लेखक और वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डोभाल भी शामिल थे. इसने अपनी रिपोर्ट में लिखा था, “इन समुदायों की ज़रूरतों के प्रति असंवेदनशील विकास ने उन्हें प्रायः विस्थापित होने को मजबूर करके अमानवीय स्थिति में डाला” है और आदिवासियों के मामले इसने “उनके सामाजिक संगठन, सांस्कृतिक पहचान और संसाधन के आधार को नष्ट करके कई तरह के संघर्षों को जन्म दिया है”.
दूसरे शब्दों में नक्सल आंदोलन में कोई शौक से नहीं शामिल हुआ था; सरकार ने जो परिस्थितियां बनाई उन्होंने उनके लिए शायद दूसरा कोई विकल्प नहीं छोड़ा. क्या हमने इन समस्याओं का समाधान किया? इसका जवाब है, शायद हां, लेकिन बहुत आंशिक रूप में. अभी 3 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को ऐसा कुछ भी करने से रोक दिया जिससे देश में वन क्षेत्र में और कमी हो. कोर्ट ने पाया कि वन (संरक्षण) अधिनियम में संशोधनों के कारण 1.97 लाख वर्ग किमी ज़मीन को वन क्षेत्र से अलग कर दिया गया है.
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युद्धविराम का वक्त
नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों का सघन दौरा करने और बड़ी संख्या में आदिवासियों से बात करने के बाद मुझे पूरा यकीन है कि उन्हें मुख्यधारा में लाया जा सकता है. ज़रूरत केवल सही समय पर अच्छी राजनीतिक पहल करने की है और वह समय अब आ गया है.
नक्सल अब बचाव की मुद्रा में हैं; उन्हें पता है कि वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं. भारत सरकार बड़ी उदारता दिखाते हुए एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर सकती है; कुछ समय, मसलन तीन महीने के लिए सभी ऑपरेशनों पर विराम लगा सकती है और नक्सलियों से खुले में आकर हथियारों के साथ समर्पण करने का आह्वान कर सकती है और उनके पुनर्वास का वादा कर सकती है. जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं उनके साथ मामले की गंभीरता के मद्देनज़र कुछ उदारता बरतते हुए कार्रवाई की जा सकती है. ऐसी कोई कोशिश की गई तो करीब एक हज़ार नक्सली तो अंडरग्राउंड ज़िंदगी को छोड़ कर मुख्यधारा में शामिल हो जाए.
परंतु भारत सरकार नक्सलियों के खिलाफ सख्ती से कार्रवाई कर रही है. सबसे ताज़ा, 9 फरवरी को छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में हुए ‘मुठभेड़’ में करीब 31 माओवादी (11 महिलाओं समेत) और दो सुरक्षा सैनिक मारे गए. अनुमान है कि बस्तर इलाके में 2024 से लेकर अब तक 280 से ज्यादा माओवादियों को मार डाला गया है. इस साल ही अब तक करीब छह हफ्ते में उनकी मौतों की संख्या 81 तक पहुंच गई है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कामयाब ऑपरेशनों के लिए सुरक्षाबलों की पीठ ठोकी है और दोहराया है कि 31 मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद का सफाया कर दिया जाएगा.
मुझे इन नक्सलियों के मारे जाने से कोई प्रसन्नता नहीं हो रही है क्योंकि मुझे विश्वास है कि यदि संवेदनशीलता से कदम उठाया जाता तो अच्छी तादाद में नक्सल लड़ाकों ने अंडरग्राउंड ज़िंदगी को पीछे छोड़ दिया होता. आखिर हम किन्हें मार रहे हैं? वह हमारी ही नागरिक हैं. उनका अपराध केवल यह है कि उन्होंने हताशा में उस सत्तातंत्र के खिलाफ हथियार उठाया जिसने उनके साथ बुरा व्यवहार किया, उनकी ज़मीन और जीविका के साधन से वंचित कर दिया.
दोस्ती की पेशकश
बलप्रयोग किसी भी राज्यसत्ता का आवश्यक अंग है. बगावत, अलगाववाद, आतंकवादी वारदात या हमले के खिलाफ इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन यह याद रखा जाना चाहिए कि कितना और कितनी देर तक बल प्रयोग किया जाए यह कई तरह के कारणों पर निर्भर होता है. इन कारणों में यह भी शामिल है कि जिनके खिलाफ इसका इस्तेमाल किया जा रहा है वह आपके ही नागरिक हैं या किसी दुश्मन देश के उकसाए लोग हैं, वह हिंसक हैं या अहिंसक, क्या उनकी कोई शिकायत का समाधान बाकी है और क्या ऐसी स्थिति आ गई है कि उनकी कमर तोड़ना ज़रूरी हो गया है या उन्हें वार्ता की मेज तक लाया जा सकता है.
नक्सलियों के मामले में देखा जा सकता है कि सत्तातंत्र भारी है और नक्सली उसके दबाव में है. ऐसी स्थिति में, हमारे सामने दो विकल्प हैं. एक तो यह कि उन्हें आत्मसमर्पण का मौका दें. दूसरा विकल्प यह है कि तब तक उनके पीछे पड़े रहें जब तक कि उनका एक-एक करके सफाया नहीं कर दिया जाता. पहला उपाय मानवीय है और इससे तुरंत स्थायी महत्व का नतीजा मिल सकता है. दूसरा उपाय क्रूर है जिसमें सत्तातंत्र खुद को विजयी महसूस कर सकता है, लेकिन वह ऐसी कड़वाहट छोड़ेगा जो भविष्य में फिर किसी हिंसात्मक आंदोलन का रूप ले सकता है.
कहा भी गया है कि ‘शांति में ऐसी जीत छिपी होती है जो युद्ध से कम मशहूर नहीं होती’. भारत सरकार के लिए अच्छी सलाह यह होगी कि वह नक्सल मोर्चे पर अपनी रणनीति को नया रूप दें.
समयसीमा मत बांधिए
एक आखिरी बात यह कि अपराध की जांच और बगावत या अलगाववादी आंदोलनों से निबटने में समस्या समाधान की कोई समयसीमा नहीं निश्चित की जानी चाहिए.
ऐसी स्थितियों में सुरक्षाबल, खासकर उनके कमांडर अपने आकाओं को खुश करने के लिए कानून का अतिक्रमण करने और ज़्यादतियां होती हैं. फर्ज़ी मुठभेड़ें होती है, निर्दोष व्यक्ति मारे जाते हैं. सबसे अच्छा यही होगा कि सुरक्षाबलों को तमाम साधन और साजोसामान देकर सिर्फ यह कह दिया जाए कि वह पूरा ज़ोर लगा दें, और बाकी सब उन पर छोड़ दिया जाए.
पहले भी पी. चिदंबरम और राजनाथ सिंह, भूतपूर्व गृह मंत्री, उस साल का ज़िक्र कर चुके हैं जब तक नक्सल मसले का अंतिम समाधान कर दिया जाएगा, लेकिन बाद की घटनाओं ने उन्हें गलत साबित किया.
हम सब नक्सल समस्या का खात्मा चाहते हैं, जिसने भारतीय सत्तातंत्र को पांच दशकों से ज्यादा समय से परेशान कर रखा है. काफी खूनखराबा हो चुका है, लेकिन हमें दृढ़ होने के साथ मानवीय भी होना पड़ेगा. हमारा प्रयास होना चाहिए की जो लोग भटक गए हैं और जिन्होंने गलत रास्ता अपना लिया है, उनके दिल-ओ-दिमाग को जीतें और न्यूनतम आवश्यक बल प्रयोग करते हुए उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने का हर संभव प्रयास करें.
(लेखक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं और उन्होंने ‘भारत में नक्सलवादी आंदोलन’ नामक किताब लिखी है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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