scorecardresearch
Saturday, 1 November, 2025
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टट्रंप की ट्रेड वॉर ने पावरप्ले के नियम बदल दिए, लेकिन भारत को इसका अंदाज़ा नहीं हुआ

ट्रंप की ट्रेड वॉर ने पावरप्ले के नियम बदल दिए, लेकिन भारत को इसका अंदाज़ा नहीं हुआ

एक शख्स है जो विश्व समीकरण को नए सिरे से गढ़ रहा है, और उसकी ताकत उसकी शक्तिशाली सेना नहीं बल्कि उसका व्यापार है. चीन ने उसे उकसा दिया है.

Text Size:

जब मैं यह लेख लिख रहा हूं, अमेरिका में अभी रात ही है और हम नहीं जानते कि सुबह में सोशल पोस्ट्स  क्या सच उजागर करेंगे, या क्या नया भू-राजनीतिक संकेत उभरेगा. लेकिन इस सबके बारे में काफी कुछ अब स्पष्ट हो रहा है.

तीन दिन पहले, राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप जब तीन एशियाई देशों के दौरे पर निकल रहे थे तब उन्होंने एक भयानक और खतरनाक किस्म का आश्चर्यजनक पोस्ट लिखा था. उन्होंने लिखा कि परमाणु परीक्षण फिर से   शुरू किए जाएं ताकि अमेरिका चीन और रूस की बराबरी कर सके. इसके बाद उन्होंने इधर-उधर की और भी बड़बोली बातें की.

परमाणु परीक्षण से किसी को परेशानी नहीं है. रूस और चीन के पास काफी यूरेनियम है. इसलिए इससे परमाणु हथियारों की कोई होड़ नहीं शुरू होने वाली है.

खतरनाक बात यह है कि इतना ताकतवर नेता इस तरह की अटपटी बातें कैसे कर सकता है. मुझे मालूम है कि ट्रंप का एक फैन क्लब भी है. आपने देखा होगा, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने उनकी तारीफ करते हुए उन्हें किस तरह ‘प्रेसिडेंट ऑफ पीस’, वगैरह कहा. लेकिन ट्रंप जो कुछ कहते हैं उसमें दुनिया को बुद्धिमानी की बात देखना अभी बाकी है. कहा गया कि ‘अरे, वे तो ऐसा पोस्ट लिखकर चीन को नरम करना चाहते थे’. लेकिन चीन परमाणु परीक्षणों से कहां डरने वाला है! इसलिए ज्यादा संभावना यही थी कि वे पलटेंगे; और उन्होंने यही किया.

एक शख्स है जो विश्व समीकरण को नए सिरे से गढ़ रहा है. उसकी ताकत क्या है? उसकी ताकतवर सेना नहीं बल्कि उसका व्यापार है. इस मामले में चीन ने उसे उकसा दिया है.

विरोधाभास यह है कि ट्रंप को दुनिया के बड़े हिस्से से आयात करने की अपनी ताकत का एहसास हो गया है. अगर चीन निर्यात करने वाला सुपरपावर है, तो अमेरिका आयात करने वाला सुपरपावर है. ट्रंप ने इस बोझ को अपनी पूंजी बना लिया है. अगर चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम निर्यातक शक्तियां हैं, तो उन्हें अपना सरप्लस कहां से मिलता है? आप भारत का नाम जोड़ सकते हैं. ट्रंप कह रहे हैं कि मुझे मालूम है कि तुम सबके लिए ये सरप्लस कितनी अहमियत रखते हैं, इसलिए मुझे आयातक होने का फायदा हासिल है.

उनकी 30 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था दुनिया के सभी बड़े देशों में सबसे बड़े व्यापार घाटे वाली अर्थव्यवस्था है, और ट्रंप की दुनिया इसे ही अपनी ताकत मानती है. याद रहे, वे यह दावा करते रहे हैं कि व्यापार के मसले के बूते ही उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच शांति बहाल कारवाई.

तो उनके परमाणु परीक्षण वाले पोस्ट को अटपटा क्यों कहेंगे? इसलिए कि उन्हें समझ में आ गया कि चीन उन्हें पटखनी देने की कोशिश कर रहा है. क्योंकि इस समीकरण में चीन के पास बिक्रेता की ताकत भी है और खरीदार की ताकत भी है. बिक्रेता के रूप में उसके पास बेहद अहम खनिज हैं. खरीदार के रूप में वह अमेरिकी सोयाबीन और मक्के का सबसे बड़ा उपभोक्ता है. चीन को भी, और ट्रंप को भी मालूम है कि वे चीन को दंड के रूप में टैरिफ नहीं थोप सकते. इसलिए ट्रंप तुरंत पलटे, और क्वाला लंपुर के लिए एयर फोर्स वन पर सवार होते हुए उन्होंने ‘जी-2’ की घोषणा कर डाली.

भारत में हम इस मामले को समझने से इनकार कर देते हैं. हमारा कुल व्यापार इतना छोटा है कि हमारे पास इस रणनीतिक सिक्के की ताकत कम ही है. अमेरिका को हम जेनरिक दवाइयों को, जिन्हें ट्रंप ने बख्श दिया है, छोड़कर ऐसा कुछ नहीं बेचते जिसके बिना उसका काम न चल सके. लेकिन खरीदार वाली जिस अहम ताकत हम इस्तेमाल कर सकते थे उसका भी इस्तेमाल करने से डरते हैं. हम चीन से सबक सीख सकते हैं. चीन अगर अमेरिका से आयात के मुक़ाबले 300 अरब डॉलर मूल्य के बराबर का ज्यादा निर्यात कर रहा है तो आप समझ सकते हैं कि खरीदार के रूप में वह उसके मुक़ाबले कितना ताकतवर है.

दुनिया में सुअरों की कुल आबादी की 50 फीसदी को चीन पाल रहा है. वहां पोर्क और टोफू खाने वालों की आबादी 1.4 अरब है. वह विशाल मात्रा में सोयाबीन का उपभोग और आयात करता है. सुअरों की खुराक में प्रोटीन सोयाबीन से और कैलरी मक्के से मिलती है.

अमेरिका मक्के का सबसे बड़ा उत्पादक है, और वह सोयाबीन का सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देशों में शामिल है. अमेरिकी आबादी में किसानों का अनुपात मात्र 1 फीसदी है लेकिन वे काफी ताकतवर हैं. गौर कीजिए कि ट्रंप ने सोयाबीन का सौदा होने के बाद अपने पोस्ट पर कितनी खुशी जाहिर की, किसानों से खूब जमीन और बड़े ट्रैक्टर खरीदने की सलाह दी और इसे कृषि का स्वर्णयुग (गोल्डन एज) घोषित किया.

शी ने बस इतना संकेत किया कि वे दूसरे देशों से भी कृषि उत्पाद खरीद सकते हैं, और ट्रंप ने फौरन पलटी खाई. भारत में हमारी बहस अभी 20वीं सदी के मध्य वाले दौर में अटकी है, विज्ञान को हम 19वीं सदी वाले चश्मे से देख रहे हैं, और बदकिस्मती से चीन को कहीं से सोयाबीन खरीदने से कोई दिक्कत नहीं है, चाहे वह ‘जीएम’ वाला ही क्यों न हो.

चीन बहुत प्रगतिशील है. चार साल पहले उसने जीएम सोयाबीन की खेती शुरू की और हर साल इसके खेतों का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है. चीन इस समय हमसे चार गुना ज्यादा कपास का उत्पादन कर रहा है. हमारा उत्पादन घट गया है क्योंकि हमारे बीज का बायोटेक 2008 वाले स्तर पर ही ठिठक गया. यह दुखद कहानी फिर कभी!

चीन ने दिखा दिया है कि अगर आपके पास बिक्रेता वाली ताकत है तब आप क्या कुछ कर सकते हैं और जब आपके पास खरीदार वाली ताकत है तब क्या हासिल कर सकते हैं. जिन देशों के पास यह ताकत नहीं है वे व्यापार के मामले में अपमानजनक और शोषणपूर्ण दादागीरी का सामना कर रहे हैं.

मेक्सिको अमेरिका के साथ एक तरह का अमन सिर्फ इसलिए कायम कर सका क्योंकि उसने सीमा पार  से भारी मात्रा में मक्का खरीदना शुरू कर दिया. हमने ट्रंप का कुछ सोयाबीन खरीदकर उन्हें थोड़ी और अहमियत देने का मौका गंवा दिया. हम हर साल 18 अरब डॉलर मूल्य का खाद्य तेल आयात करते हैं. इसमें ज्यादा मात्रा सोयाबीन तेल की होती है. हमें मवेशियों के लिए चारे आदि की भी जरूरत होती है. अगर हम अपने मवेशियों को यह सोयाबीन न भी खिलाना चाहें, तो भी इसका तेल निकालकर इसका निर्यात कर सकते थे. ऐसा ही मक्के और इथनोल के मामले में भी किया जा सकता था. हम मक्के और इथनोल का आयात करते ही रहते हैं. लेकिन नहीं, घरेलू लॉबी, खासकर स्वदेशी वालों को नाराज नहीं किया जा सकता. ऐसा तब है जब जीएम बीजों के मामले में मोदी सरकार का रुख सकारात्मक और कुछ रहस्यपूर्ण भी है, जैसा कि देश में विकसित जीएम सरसों के परीक्षण के समर्थन में दायर उसके हलफनामे से जाहिर है.

यह ऐसा मामला है जिसमें सुपरपावर माने गए देशों के रिश्ते सिर्फ इस बात से तय होते हैं कि आप मेरा मक्का खरीदते हैं या नहीं. भारतीय मुर्गा पालन उद्योग मक्के की बढ़ती कीमत का रोना रो रहा है. इस उद्योग को चारे की कमी का सामना करना पड़ रहा है. ऐसा न होता अगर हमने दो अरब डॉलर मूल्य के अमेरिकी सोयाबीन और मक्के को, जो ट्रंप के लिए परेशानी के सबब हैं, खरीदने की पेशकश की होती. वैसे भी हम उनका आयात करते ही हैं. लेकिन नहीं, हम तो यह मान बैठे हैं कि दुनिया हमारी देनदार है और हमें बदले में दुनिया को कुछ नहीं देना है.

लेकिन वह जमाना बीत चुका है. ट्रंप के मन में आपकी प्रतिष्ठा, आपके इतिहास, और आपकी राजनीति के लिए कोई सम्मान नहीं है. यह उन्होंने आश्चर्यजनक विनम्रता दिखाते हुए यह कहकर जाहिर कर दिया है कि वे (व्यापार और रूसी तेल के मामले में) मोदी पर बहुत ज्यादा दबाव इसलिए नहीं डाल रहे हैं कि ‘मैं उनका राजनीतिक केरियर खराब नहीं करना चाहता’. वे नैतिक सत्ता की बातों को हंसी में उड़ा देते हैं. वे केवल ठोस ताकत को जानते हैं. और वे बता चुके हैं कि आज ठोस ताकत की अहमियत क्या है. ट्रंप चाहते हैं कि आप यही देखें कि टेबल पर आपके सामने क्या रखा है और आप उनके लिए क्या कुछ कर सकते हैं.

चीन से हम दूसरा सबक यह सीख सकते हैं, जो देंग की इस पुरानी उक्ति में निहित है— ‘सही मौके का इंतजार करो, अपनी ताकत बचाकर रखो’. चौथी के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर कदम बढ़ाने का हम जिस तरह बेदम होकर जश्न माना रहे हैं उससे भारत का कोई मकसद नहीं सध रहा है. बड़ी ताक़तें हमारा केवल दबी ज़ुबान मखौल उड़ा रहे हैं. इसलिए यह समय थोड़ी विनम्रता बरतने और अपने लक्ष्य पर नजर टिकाए रखने का है. 1991 में भारत ने जो अवसर बनाया था उसमें बदली हुई भू-राजनीति ने भी अपना दखल दे दिया है. उस समय अगर भुगतान संतुलन को लेकर संकट पैदा हुआ था, तो आज भारत अगर व्यापार के मामले में संरक्षणवाद को खारिज नहीं करता तो उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.

यह भी एक आर्थिक सुधार ही होगा, भले ही दबाव में किया गया हो, जैसा कि 1991 में किया गया था. इसीलिए वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल उद्यमियों को चुस्त-दुरुस्त बनने और टैरिफ से बचाने की मांग न करते रहने की सलाह देते रहे हैं. भारतीय नौकरशाही किसी को वर्षों तक लटकाए रख सकती है. उसका समय खत्म हो चुका है. कोई शक हो तो ट्रंप के उन पोस्टों को पढ़ें, जो उन्होंने अपने एशिया दौरे के पहले और बाद में लिखे हैं.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: मोदी-ट्रंप के बीच क्या आ रहा है? जवाब है: भारत के विरोधाभास


 

share & View comments