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Saturday, 29 March, 2025
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ट्रंप के टैरिफ भारत के लिए सिर पर बंदूक तानने जैसा है, शायद यही अब तक की सबसे अच्छी बात है

ट्रंप जबकि गोली दागने की धमकी दे रहे हैं, अपनी पीठ खुद ठोकने में व्यस्त भारतीय सत्ता-तंत्र को सुर्खियां बनवाने के मोह से छुड़ाने के लिए ऐसी ही धमकी की जरूरत थी.

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डॉनल्ड ट्रंप की ताजपोशी के साथ ‘ट्रंपवाद’ का दबदबा जिस तेजी से बढ़ रहा है उसको लेकर इन दिनों यह सवाल उठाया जा रहा है कि यह भारत के लिए अच्छा है या बुरा? व्हाइट हाउस में पहुंचते ही उन्होंने यह राग अलापना शुरू कर दिया कि “चाहे वह दोस्त रहा हो या दुश्मन, सबने हमें लूटा”. और तब से ही वे सबसे पहले अपने दोस्तों को ही निशाना बना रहे हैं—यूरोप को रणनीतिक तथा रक्षा संबंधी मसलों को लेकर; तो कनाडा, मेक्सिको, और बेशक ‘टैरिफ किंग’ भारत को व्यापारिक मुद्दे पर.

इस सवाल का मेरे पास एक छोटा जवाब है. अमेरिका में जो सत्ता परिवर्तन हुआ है वह ऐसा ही है जैसे भारत के सिर पर बंदूक तान दी गई हो और उसके घोड़े पर ट्रंप की उंगली रखी हो. लेकिन मैं अगर यह कहूं कि भारत के लिए यह सबसे अच्छी बात है, तो आप कहेंगे क्या बच्चों जैसी बात है. लेकिन मुझे थोड़ा समय दीजिए ताकि मैं अपनी बात रख सकूं.

कोई भी राष्ट्र-राज्य हो, चाहे किसी आकार का हो, खासकर लोकतांत्रिक देश हो तो वहां अर्थनीति और राजनीति साथ-साथ ही चलती है. सामान्य समय में राजनीतिक नेतृत्व ही देश की अर्थव्यवस्था की दिशा तय करता है. भारत में, वह ‘सामान्य’ समय अधिकतर उदासीन किस्म के नतीजे देता रहा है.

भारत ने कुछ ठोस सुधार दो मौकों पर किए, तभी जब उसके सिर पर बंदूक तनी हुई थी. पहला मौका 1991 में तब आया था जब भुगतान संतुलन का संकट (जिसे अक्सर दिवालिया हो जाना कहा जाता है) पैदा हुआ था  और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश का दरवाजा खटखटाने की नौबत आई थी. और दूसरा मौका 1998 में आया था जब पोकरण-2 के बाद तमाम देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए थे.

तीसरा मौका अब आया है जब ट्रंप गोली दागने की धमकी दे रहे हैं. अपनी पीठ खुद ठोकने में व्यस्त भारतीय सत्ता-तंत्र को सुर्खियां बनवाने के मोह से छुड़ाने के लिए ऐसी ही धमकी की जरूरत थी.

सुर्खियां बनवाने, या तमाम तरह के नारों और दावों से अपने घरेलू समर्थकों लुभाना अलग बात है. इन नारों और दावों में अक्सर यह कहा जाता है कि हम ‘सबसे तेजी से वृद्धि कर रही अर्थव्यवस्था’ हैं, कि हम ‘पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं और जल्दी ही तीसरे नंबर पर आने वाले हैं’, कि हम ‘जापान और जर्मनी को पीछे छोड़ रहे हैं’; पिछले एक दशक से हमें बताया जा रहा है कि मैनुफैक्चरिंग क्रांति आने वाली है, लेकिन वह अगर पीछे नहीं लौट गई हो, तो अब तक तो आई नहीं है. क्या हमें ट्रंप की ऐसी धमकी की जरूरत है? इस सवाल का जवाब हम पीछे मुड़कर ढूंढ सकते हैं.

1947 से 1989 तक के दौर को हम आर्थिक दुःस्वप्न मान कर खारिज कर सकते हैं. कुछ इतिहासकार और अर्थशास्त्री कह सकते हैं कि इमर्जेंसी के बाद इंदिरा गांधी ने अपने नये अवतार के रूप में नियंत्रणों को ढीला करना शुरू किया था, जिसे राजीव गांधी ने आगे बढ़ाया. यह तर्क पुराने कांग्रेस भक्तों के सिवा कोई कबूल नहीं करेगा कि इन नेताओं ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी.

भारत के आर्थिक विकास और उसकी पहली आर्थिक क्रांति में इंदिरा-राजीव दशक का अगर कोई योगदान था तो वह यह था कि उसने भुगतान संतुलन के संकट तक पहुंचा दिया था जिसने भारत को बड़े आर्थिक सुधारों का उपहार दिया. पी. चिदंबरम ने वित्त मंत्री के रूप में 1997-98 के गौड़ा-गुजराल दौर में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए. इनमें से अधिकतर सुधार ऐसे थे जो राव-मनमोहन के सुधारों के क्रम से जुड़ते हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण कदम था सरकारी उपक्रमों (पीएसयू) को शेयर बाजार में सूचीबद्ध करने की अनुमति देने का, जिसने उस दौर में निजीकरण का रास्ता साफ किया.

लेकिन इसके बाद भारत को फिर जैसे किसी संकट का इंतजार करना पड़ा. यह संकट तब आया जब वाजपेयी सरकार ने 1998 में पोकरण-2 परीक्षण करवाया और इसके बाद तमाम आर्थिक प्रतिबंधों की बाढ़ आ गई, अमेरिका तथा उसके सहयोगियों और यूरोप से लेकर जापान और ऑस्ट्रेलिया तक ने फटकार लगाई.

स्व. जसवंत सिंह ने जब अमेरिका के साथ संवाद (उन्होंने और उनके अमेरिकी वार्ताकार स्ट्रोब टैलबॉट ने इसका जो विवरण दिया है उसे भी देखें) शुरू किया तो उनका मुख्य ज़ोर इस बात पर था कि भारत एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है जो चीन का जवाब बन सकता है, और क्या अमेरिका आर्थिक सुधार कर रहे भारत के रूप में एक भारी आर्थिक अवसर को गंवाना चाहेगा?

इसके बाद भारत में आर्थिक सुधारों की दूसरी लहर आई, ‘पीएसयू’ का बड़े पैमाने पर निजीकरण हुआ, जिनमे मुनाफा कमा रहे ‘पीएसयू’ भी शामिल थे. आज पीछे मुड़कर देखने से लगता है कि वह हमारी पीढ़ी के जीवन की खुशी का एक छोटा-सा सपना था. उसके बाद से एअर-इंडिया को छोड़ और कुछ नहीं हुआ. पोकरण के कारण लगे प्रतिबंधों के बाद एफडीआइ से लेकर आयातों तक में कई तरह के सुधार हुए,  भारतीय व्यावसाय को विदेश में निवेश की अनुमति मिली, और आम नागरिकों को ‘लिबरलाइज्ड रेमिटेंस स्कीम’ (एलआरएस) के तहत हर वित्त वर्ष में विदेश में 2.5 लाख डॉलर तक खर्च या निवेश करने की छूट मिली, और शुल्कों (टैरिफ) में कटौती की गई.

1999 में बजट पेश करने वाले वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने कहा कि उन्होंने टैरिफों को लगभग ‘आसियान’ वाले स्तर तक ला दिया है. यूपीए वाले दशक में पीएसयू के निजीकरण पर रोक लगाने के सिवा इनमें से किसी आर्थिक सुधार को वापस नहीं लिया गया.

राव-मनमोहन ने जो सुधार लागू किए थे उनको पहला धक्का कांग्रेस और हमारी पूरी राजनीति पर हावी समाजवादियों के खेमे की ओर से उतना नहीं लगाया गया जितना भारत के कॉर्पोरेट कप्तानों की ओर से लगा. स्व. राहुल बजाज ने कद्दावरों को अपने तथाकथित ‘बॉम्बे क्लब’ की छतरी के नीचे इकट्ठा किया. सुधारों को टालने के लिए उन्होंने वही तर्क दिए जो दूसरी किसी लॉबी के थे, कि अभी हमें प्रतियोगिता में उतारने का समय नहीं आया है, बल्कि हमें संरक्षण और मजबूती दीजिए ताकि हम प्रतियोगिता कर सकें. तब आप सुधारों को लागू कीजिएगा.

राव को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि वे डटे रहे, जबकि वे एक अल्पमत सरकार चला रहे थे और ‘बॉम्बे क्लब’ के कई समर्थक उभर आए थे, यही नहीं कांग्रेस में भाड़े की कई बंदूकें मौजूद थीं. वे इसलिए भी डटे रहे क्योंकि वे ‘आईएमएफ’ से मिले कर्ज के कारण पैदा हुई मजबूरी का हवाला दे सकते थे कि अगर भारत ने भुगतान में चूक की तो क्या संकट पैदा हो सकता है.

इसका नतीजा कॉर्पोरेट भारत में नाटकीय रचनात्मक तोड़फोड़ के रूप में सामने आया. आज सेंसेक्स की जो 30 कंपनियां या कॉर्पोरेट भारत की जो अग्रणी कंपनियां हैं उनके बराबर 1991 में जो कंपनियां थीं उनमें से 12 तो पूरी तरह लुप्त ही हो चुकी हैं, और कई गिनती के लायक भी नहीं रही हैं. हिंदुस्तान मोटर्स, प्रीमियर ऑटोमोबील्स, ऑर्के, एस्कोर्ट्स आदि को याद कीजिए! जिन्होंने सुधारों को अपनाया वे चमक गईं. टाटा, महिंद्रा, और बजाज भी. आइसीआइसीआइ, एचडीएफसी, भर्ती, इन्फोसिस, विप्रो जैसे नये सितारे चमकने लगे.

यह रचनात्मक तोड़फोड़ पूंजीवाद का सार है. यह बात प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार काउंसिल (पीएम-ईएसी) के सदस्य संजीव सान्याल इस सप्ताह एक लेख में लिखी है. उन्होंने इस बात पर अफसोस भी जाहिर किया है कि पिछले एक दशक से यह प्रक्रिया लगभग स्थगित है. भारत के कॉर्पोरेट अपने आप से ही खुश हैं.

हम इस हाल में कैसे पहुंचे? 2014 में नरेंद्र मोदी को जो बहुमत मिला उसे कॉर्पोरेट भारत, खासकर कुलीनों की मंडली ने यह मान लिया कि पुरानी, सर्वशक्तिमान, ‘माई-बाप’ वाली सरकार का दौर वापस आ गया है जिसकी छत्रछाया में वे फल-फूल सकते हैं. हमने देखा कि उसके बाद से टैरिफ़ों में वृद्धि होने लगी. इसका एक छोटा उदाहरण यह है कि भारत में स्टील सबसे महंगा है. तब क्या आश्चर्य कि दुनिया में सबसे बड़ी बाजार पूंजी वाला स्टील उत्पादक और कोई नहीं बल्कि एक भारतीय है. यहां तक कि कहीं ज्यादा स्टील उत्पादन करने वाली विशाल चीनी कंपनियों को कमतर गिना जाता है.

सुधारों से पहले वाली गड़बड़ियां फिर लौट आई दिख रही हैं. ताकतवर होते जा रहे कुलीन अब मार्केट शेयर और सेक्टरों का आपस में बंटवारा कर रहे हैं और सरकार फिर पुराने सोच पर चल रही है कि वह आर्थिक वृद्धि को ऊपर से शुरू करके नीचे तक लाएगी. क्या यह कारगर हुआ है?

सरकार के आंकड़े कहते हैं कि ‘मेक इन इंडिया’ के दस साल बाद 2023-24 में भारत की जीडीपी में मैनुफैक्चरिंग की हिस्सेदारी ठीक उतनी ही है जितनी 2013-14 में थी, पूरी 17.3 फीसदी. इस साल यह आंकड़ा इससे और नीचे जाती दिख रही है क्योंकि तीसरी तिमाही में मैनुफैक्चरिंग कृषि से भी पीछे चल रही है.

वास्तविकताएं ये भी हैं: रोजगार पैदा करने में मैनुफैक्चरिंग.का योगदान 2022-23 में कुछ नीचे गिरकर 10.6 फीसदी पर पहुंच गया जबकि 2013-14 में यह आंकड़ा 11.6 फीसदी का था. ये आंकड़े रिजर्व बैंक के ‘केएलईएमएस’ डाटाबेस के हैं. हम स्मार्टफोन के उत्पादन में वास्तविक सफलता से तो खुश हो रहे हैं लेकिन हमारी जीडीपी में निर्यातों की हिस्सेदारी 2013-14 की 25 फीसदी से गिरकर 22.7 फीसदी पर पहुंच गई है (इकोनॉमिक सर्वे, 2023-24). यह सर्वे यह भी बताता है कि इसी के हिसाब से, ग्लोबल निर्यातों में भारत की हिस्सेदारी में वृद्धि की दर भी नीचे गिरी है.

सरकारी संरक्षण भारत को मैनुफैक्चरिंग और निर्यात के कल्पनालोक में पहुंचा देगा, यह सपना टूट चुका है. भारतीय कंपनियां वित्त मंत्री के बार-बार आग्रहों के बावजूद निवेश नहीं कर रही हैं क्योंकि उन्हें मांग में पर्याप्त मजबूती नहीं दिख रही है. और उन्हें इतना सिर चढ़ा लिया गया है कि वे निर्यात के लिए प्रतिस्पर्द्धा करने को तैयार नहीं हैं. उन्हें डर है कि भारत चीनी कारों और दूसरी चीजों के लिए दरवाजे खोलने वाला है.

इसलिए, भारत को सुधारों की एक और कड़ी खुराक की जरूरत है, जो केवल बंदूक की नली दिखाकर ही दी जा सकती है. ट्रंप ने वह बंदूक हमारे सिर पर तान दी है. टैरिफ संबंधी संरक्षण में भारी कटौती, दूसरे तरह की सरकारी सेवाओं में कटौती ही उद्यमी भारत को फिर से प्रतिस्पर्द्धी बनाएगी. ऐसे में अगर कुछ कंपनियां बंद हो जाती हैं, तो पूंजीवाद की रचनात्मक तोड़फोड़ का जश्न मनाइए. इस मंथन से ही भारत के भविष्य के युद्धवीर और नये सितारे उभरेंगे.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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