अगले सप्ताह से अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपिओ और रक्षा मंत्री मार्क एस्पर का भारत दौरा शुरू हो रहा है. ये 2+2 की वार्ताएं कुछ समय से जारी हैं. आपसी व्यापार को लेकर जो भी खींचतान चल रही हो, दोनों देशों के बीच रणनीतिक रिश्ते मजबूत ही होते गए हैं. तो अगले सप्ताह क्या खास होने जा रहा है?
असली मामला तो इस वार्ता के लिए समय के चुनाव का है. इसके एक सप्ताह बाद ही अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होंगे और शायद उसके नतीजे भी आ जाएंगे. इस महामारी के समय में अमेरिकी प्रशासन के दो सबसे महत्वपूर्ण सदस्य आखिर उड़ान भरकर भारत क्यों आ रहे हैं, जबकि यह 2+2 की प्रक्रिया का एक और प्रकरण ही है?
ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत उनके साथ पींगें क्यों बढ़ा रहा है, जबकि दोनों पक्ष को पता नहीं है कि एक सप्ताह बाद चुनाव कौन जीतेगा? वैसे, तमाम जनमत सर्वे तो यही बता रहे हैं कि डोनाल्ड ट्रंप के जीतने से ज्यादा हारने के ही आसार हैं.
सामान्य दौर होता तो परंपरावादी भारतीय ‘सिस्टम’ फैसला आने का इंतजार करता. लेकिन यह सामान्य समय नहीं है, सिर्फ इसलिए नहीं कि चीन लद्दाख में छह महीने से जो धरना दिए बैठा है उसे खत्म नहीं कर रहा. यह भारत के लिए भारी चिंता का कारण तो है, लेकिन आला अमेरिकी विदेश और सामरिक नीतिकारों के लिए यह प्राथमिकता का मसला नहीं है.
लेकिन पूरी तस्वीर इस तथ्य के कारण बदल जाती है कि चीन केवल वाशिंगटन के लिए ही नहीं बल्कि दुनिया की ज़्यादातर राजधानियों, खासकर लोकतान्त्रिक देशों की राजधानियों के लिए रणनीतिक चिंता का कारण बन गया है. इनमें ब्रिटेन समेत पूरा यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड शामिल हैं.
अरब भले कुछ बोल न रहा हो मगर वह एक तरफ ईरान और चीन की दोस्ती पर खौफजादा होकर नज़र रखे हुए है, तो दूसरी तरफ पाकिस्तान के साथ चीन का बढ़ता जैविक संबंध भी है; और वह तुर्की की तरफ पूरी तरह झुक रहा जबकि उसके विदेश मंत्री ने सऊदी अरब की खुली आलोचना की.
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शी जिनपिंग के चीन ने पूरब, पश्चिम, दक्षिण में दहशत की लहर फैला दी है. उत्तर में शायद क्षेत्रीय स्तर पर उसे स्वीकार कर लिया गया है. एकमात्र रूस ही चीन का करीबी और वास्तविक रूप से ताकतवर सहयोगी है. पाकिस्तान माफ करे कि हम उसे इस जमात में नहीं शामिल कर रहे हैं. इसकी वजह है. चीन के साथ उसका रिश्ता दोस्ती से ज्यादा निर्भरता का है.
रूस चीन को ऊर्जा का प्रमुख सप्लायर है और उसे मलक्का जलडमरूमध्य से होने वाले खतरे से बचाता भी है. दोनों के बीच सैन्य संबंध बढ़ रहा है. रूस के पास टेक्नोलॉजी और औद्योगिक आधार है. चीन के पास सेना है, जिसे इसकी जरूरत है और इसे खरीदने का पैसा भी है. नतीजतन, हम चीन की सेना और रूस के उद्योग के बीच एक अनूठा सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ बनता देख रहे हैं.
यहां गौरतलब बात यह है कि भारतीय वायुसेना को यह मान कर चलना है कि उसे लद्दाख सेक्टर में रूसी एस-400 और स-300 मिसाइलों की चुनौती का सामना करना है. भारत अपनी एस-400 मिसाइलें 2022 में ही जाकर इस्तेमाल कर पाएगा.
यह एक नयी पेचीदा रणनीतिक वास्तविकता है. पाकिस्तान और उत्तरी कोरिया के रूप में चीन की छत्रछाया में दो ऐसे देश पहले से मौजूद हैं जो परमाणु हथियार से लैस हैं और गैर-भरोसेमंद हैं. इसके साथ पुतिन का रूस उनका साथी है. इस क्षेत्र में संतुलन स्थापित करने वाले केवल दो देश जापान और ऑस्ट्रेलिया पर भारी दबाव डाला जा रहा है. ताइवान को धमकाया जा रहा है, हांगकांग को कब्जे में ‘ले’ लिया गया है.
अमेरिका के नेतृत्व वाले ‘फाइव आइज़ अलायंस’ के देश चिंतित हैं. और दुनिया के लिए इस उथलपुथल वाले साल में एकमात्र चीन ही ऐसी अर्थव्यवस्था होगी, जो वृद्धि दर्ज करेगी.
यह इसे अमेरिका के लिए अव्वल द्विपक्षीय रणनीतिक चिंता का कारण बना देता है. ट्रंप और बाइडेन शायद एक ही मसले पर एकमत हैं, कि चीन के खिलाफ मुक़ाबला करने में कौन ज्यादा सख्त साबित होता है.
गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ में क्रुद्ध राम सभी संबंधों के लिए, चाहे वह व्यक्ति के साथ हो या देश के साथ, एक महत्वपूर्ण सूत्र देते हैं—‘भय बिनु होहि न प्रीति’. उन्होंने अपनी शक्ति का बोध कराने के लिए यह कहा होगा, मगर इसका उलटा भी कारगर हो सकता है.
उदाहरण के लिए, कोई भी यह बहाना बनाने से परहेज नहीं करता कि भारत-अमेरिका के बीच संपर्कों में तेजी, ‘क्वाड’ को लेकर जल्दीबाजी, ऑस्ट्रेलिया का मालबार नौसैनिक अभ्यास में फिर से शामिल होना, यह सब चीन की वजह से नहीं हो रहा है. लेकिन पिछले सप्ताह भारत आए अमेरिकी उप विदेश मंत्री स्टीफेन ई. बीगन जैसे आला अमेरिकी अधिकारी यह कहने से नहीं झिझक रहे कि चीन ‘कमरे में घुस आए हाथी’ जैसा है.
जाहिर है कि ‘भय’, बेकाबू चीन का भय इन महाशक्तियों को एकजुट कर रहा है, और सभी कूटनीतिक बहानों को बेमानी कर रहा है. अपने अधिक मज़ाकिया क्षणों में, जो काफी रचनात्मक भी होता है, मैं ‘क्वाड’ को ‘चीन पीड़ित समाज’ तक कहता हूं. यह एक वास्तविकता है. चीन ने इन देशों के सजग कूटनीतिक हलक़ों में खलबली पैदा कर दी है. यही वजह है कि पोंपिओ नयी दिल्ली के बाद कोलंबो और माले जा रहे हैं. हां, माले, वह भी अमेरिका में मतदान से चंद दिनों पहले.
इस परिवर्तन पर विचार करते हुए मैं भारत के रणनीति विशेषज्ञों की दिलचस्प व्याख्याएं भी पढ़ता रहता हूं. 25 अगस्त को सी. राजा मोहन ने ‘इंडियन एक्स्प्रेस’ में लिखा कि बहुचर्चित रणनीतिक स्वायत्तता की परिभाषा भारत के लिए किस तरह बदल गई है.
उन्होंने लिखा कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद नब्बे वाले दशक में एकध्रुवी विश्व उभरा, तब भारत के लिए रणनीतिक स्वायत्तता का अर्थ था— महाशक्ति अमेरिका के दबाव से मुक्त होकर अपने रणनीतिक हित और नीतियां तय करने की स्वतन्त्रता. यह खास तौर से महत्वपूर्ण था क्योंकि राष्ट्रपति क्लिंटन के दो कार्यकालों में चाहे जो भी अंतर रहा हो, उनके लोग भारत-पाकिस्तान को दुनिया का सबसे खतरनाक क्षेत्र मानते थे, जहां परमाणु युद्ध का खतरा मौजूद था. वे यह भी मानते थे कि वे कश्मीर मसले को हल करने में इन दोनों देशों की मदद कर सकते हैं. इसने भारत को रणनीतिक संतुलन बनाने के लिए रूस के साथ पुरानी दोस्ती को मजबूत करने और चीन की ओर हाथ बढ़ाने को मजबूर किया.
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आज, रणनीतिक स्वायत्तता की परिभाषा ज्यादा तीखी हो गई है. आज इसका अर्थ हो गया है भारत की भौगोलिक अखंडता, संप्रभुता, और क्षेत्रीय हैसियत को चीनी चुनौती को भोथरा करना. मुझे 2018 में सिंगापुर में सांग्री-ला डायलॉग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने रणनीतिक स्वायत्तता की एकदम अलग, पारंपरिक परिभाषा पर ज़ोर दिया था. उन्होंने संकेत दिया था कि भारत अपना रास्ता खुद बनाएगा, और महाशक्तियों को किसी और होड़ में पड़ने से बचना चाहिए. यह साउथ ब्लॉक यानी भारतीय विदेश विभाग के पुराने सुर की ही प्रतिध्वनि थी. लेकिन मोदी आज उस सुर में नहीं बोल सकते.
दूसरे हैं ध्रुव जयशंकर, जो अमेरिका के ‘थिंक टैंक’ ओआरएफ सेंटर के प्रमुख हैं. ‘फर्स्टपोस्ट’ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को लेकर यहूदी कानूनों के लिए की गई ‘तालमुडिक’ किस्म की बहसों का युग बीत गया है. आज आप उनसे परिभाषा के मामले में वैदिक की जगह यहूदी परंपरा से तर्क उठाने को लेकर झिकझिक कर सकते हैं. लेकिन संदेश बिलकुल साफ है. रणनीतिक नीतियां सर्वोच्च राष्ट्रहित से तय होती हैं, किस भावुक याद या पुराने पाखंड से नहीं.
जब कोई शीतयुद्ध चल रहा होता है, या नया शुरू होता है जैसा कि अब हो रहा है, तब भारत सचमुच में तटस्थ नहीं रह सकता. मैं यह इस पूरे एहसास के साथ कह रहा हूं कि इससे नेहरू और इंदिरा के कई प्रशंसक नाराज हो जाएंगे. लेकिन मैं इन दोनों की और भी ज्यादा प्रशंसा इसलिए करता हूं कि जो भी बहाना रहा हो, इन्होंने एक पक्ष का चुनाव करने से कभी परहेज नहीं किया. बस इतना ही है कि नेहरू ने 1962 के बाद अमेरिका को चुनने में काफी देर कर दी, जब कि वे कमजोर हो चुके थे. उनकी बेटी ने रूस को चुना. उनके दौर में कम-से-कम 1969-77 के बीच और 1980-84 के बीच भारत शायद ही गुटनिरपेक्ष था. वे मॉस्को के साथ थीं क्योंकि वे राष्ट्रहित के लिए काम कर रही थीं.
ऐसा ही फैसला आज भी किया गया है. भारत इस दिशा में दो दशक से बढ़ रहा है, और अमेरिका ने भी उत्साह दिखाया है. इसमें कुछ व्यवधान आया, खासकर परमाणु संधि के बाद, जब काँग्रेस आलाकमान थका हुआ दिखा और नये रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी जोखिम लेने से इतना कतराते थे कि ‘एक्सरसाइज़ मालाबार’ भी शीतयुद्ध वाले मूड के हिसाब से अपना जज्बा खो बैठा था.
आज वैसी कोई हिचक या झिझक नहीं है. वाशिंगटन और नयी दिल्ली में एक फैसला कर लिया जाता है. यह गहरी गलबहियां है. दोनों देशों में यह द्विपक्षीय मामला है, खासकर अमेरिका में, जहां एक सप्ताह के अंदर सत्ता परिवर्तन एक वास्तविक संभावना है. यही वजह है कि अमेरिका में मतदान से एक सप्ताह पहले 2+2 वार्ता हो रही है.
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