अपने तीसरे कार्यकाल की पहली वर्षगांठ की ओर बढ़ रहे नरेंद्र मोदी आत्मविश्वास से लबालब और बेहद आश्वस्त दिख रहे हैं. पिछले चुनाव में 240 सीटें पाने के बाद उनमें जो संशय और तनाव आपको दिख रहा होगा. वह दूर हो चुका है. हरियाणा और महाराष्ट्र में विजय के अलावा ‘इंडिया’ गठबंधन में बिखराव ने बेशक इस आत्मविश्वास में इजाफा किया.
लेकिन आत्मतुष्टि के कगार पर पहुंचे इस आत्मविश्वास के पीछे गहरा और अधिक ठोस कारण है. यह कारण है: उन्हें चुनौती देने वालों में नये विचारों का अभाव. आज कोई भी नहीं है— न कोई नेता और न कोई पार्टी और न कोई विचार— जो राष्ट्रीय राजनीति में खलबली पैदा कर रहा हो. फिलहाल खिन्नता की राजनीति चल रही है. नाव को कोई हिला नहीं पा रहा है. यह नाव है मोदी की भाजपा. और यह नाव जिस भी हाल में है, मोदी उससे खुश हैं.
उनके प्रतिद्वंद्वी पुराने विचारों से चिपके हैं, या तो वे मोदी से मात खा चुके हैं या मोदी ने उन्हें बेअसर कर दिया है या बदल दिया है. और अगर आप भी व्हाट्सएप पर फॉरवर्ड किए गए उन संदेशों पर गौर का रहे हैं जो यह बता रहे हैं कि इस सितंबर में 75 साल के हो जाने पर मोदी रिटायर हो जाएंगे, तो मेहरबानी करके खुद को धोखे में न रखिए. मोदी कहीं नहीं जाने वाले, वे 2029 में भी भाजपा का नेतृत्व करेंगे.
यह समझने के लिए किसी ज्योतिषशास्त्र या राजनीतिक दूरदर्शिता की जरूरत नहीं है. तथ्यों पर गौर कीजिए. 2029 में उनकी उम्र उतनी ही होगी जितनी आज डोनल्ड ट्रंप की है. अगर उनके प्रतिद्वंद्वी इस मुगालते में रहना चाहते हैं कि उनका समय खत्म होने वाला और राहुल की उम्र उनकी मदद करेगी, तो वे मोदी युग को नहीं समझ पाए हैं.
ऐसा लगता है कि मतदाताओं के लिए विरोधियों के पास कोई बेहतर पेशकश नहीं है, कम-से-कम एक दिलचस्प और उत्साहित करने वाली पेशकश. अपनी शैली, अपनी विचारधारा या राजनीतिक पेशकश के बूते कोई भी वैसी बड़ी खलबली नहीं पैदा कर रहा है जो इस सुविधाजनक गतिरोध में हलचल पैदा करने के लिए जरूरी है. उधर मोदी उस क्रिकेट टीम की तरह आगे बढ़ते जा रहे हैं जो टेस्ट मैच में 300 (यह आंकड़ा जानबूझकर चुना गया है) के लक्ष्य का पीछा कर रही है और दो विकेट गंवाकर 190 रन पर खेल रही है. सवाल यह है कि वह बड़ी खलबली पैदा करने वाला ‘आइडिया’ क्या हो सकता है?
यह वह सब नहीं हो सकता जो विपक्ष आज पेश कर रहा है—सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा पुराना पड़ चुका है. इस हथियार की धार भोथरी पड़ चुकी है. अमीर बनाम गरीब की बहस में वे जीत नहीं सकते.
उनके मुक़ाबले मोदी हमेशा ज्यादा आम आदमी जैसे दिखेंगे, और मोदी की राजनीति उनकी राजनीति के मुक़ाबले ज्यादा ‘गरीबोन्मुख’ दिखेगी. यही वजह है कि अडाणी-अंबानी का ठप्पा उन पर चस्पां नहीं हो पाता. इसलिए नहीं कि उन पर टेफ्लन का मुलम्मा चढ़ा है या वे टाइटेनियम नामक धातु से बने हैं, बल्कि इसलिए कि इस ‘आइडिया’ में दम नहीं है. इसलिए कि यह आइडिया देने वालों में आत्मविश्वास की कमी है. मोदी ने उनसे ‘मनरेगा’ की जो गरीबवादी सीढ़ी उत्तराधिकार में हासिल की थी उसके कई पायदान वे ऊपर चढ़ चुके हैं. आज 80 करोड़ से ज्यादा लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है, उनके लिए आवास बनाए जा रहे हैं, शौचालय बनाने के लिए अनुदान दिए जा रहे हैं, किसानों को ‘मुद्रा लोन’ आदि के जरिए मदद दी जा रही है. गरीबों को आज जितना कुछ मिल रहा है उतना पिछली किसी भी सरकार ने नहीं दिया था. और यह सब सत्तातंत्र या भ्रष्ट स्थानीय अधिकारियों से हासिल करने में आने वाली दिक्कतों के बिना मिल रहा है.
क्या इस तरह की मुफ्त रेवड़ियां विपक्ष को आगे बढ़ने में मदद कर सकती हैं? वे ऐसा जो भी वादा करेंगे, मोदी उससे बेहतर पेशकश कर देंगे. मोदी को चुनौती देने वालों को अब तक तो समझ जाना चाहिए था कि राजनीति को ‘लेन-देनवाद’ में बदलने के क्या नतीजे हो सकते हैं. लेन-देन पर भरोसा करने वाला मतदाता वफादार नहीं होता. वह हमेशा उसका पक्ष लेगा, जो ज्यादा बड़ी बोली लगाएगा.
तो विपक्ष के नेता क्या करें? वे मोदी से धर्म के मुद्दे पर नहीं लड़ सकते, चाहे वे कितने भी मंदिरों में मत्था टेकें या अपनी कलाई पर कितने भी धागे बांधें या कितने भी रंग की चादर ओढ़ें. और, राष्ट्रवाद? इसका तो भूल कर भी नाम न लें. इस प्लेटफॉर्म को पिछले 11 वर्षों से तैयार किया गया है. अब आप कुछ नहीं कर सकते, क्योंकि अंतिम ट्रेन रवाना हो चुकी है. मोदी के प्रतिद्वंद्वियों के लिए फिलहाल जाति एक पसंदीदा मुद्दा बना हुआ है. जाति आधारित दलों के बावजूद, ‘वन-स्टेट’ में जातीय जनगणना का पत्ता खेलकर कांग्रेस कुछ भी हासिल नहीं कर सकती.
जिस पार्टी को एक ऐसी विशाल छतरी के रूप में तैयार किया गया था, जिसके नीचे सभी को सत्ता में हिस्सेदारी मिलेगी और वे फले-फूलेंगे, वह पार्टी जाति की बात करती हुई हास्यास्पद लगती है. यहां मुझे उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो का वह यादगार वाक्य याद आता है, जो उन्होंने पाकिस्तान में बसने के लिए रवाना होते हुए कहा था, कि पंजाबी लोग (पाकिस्तान में जो भारी बहुमत में हैं) उर्दू बोलते हैं तो ऐसा लगता है कि वे झूठ बोल रहे हैं.
कांग्रेस जातीय जनगणना वाली पार्टी का चोला धारण करती हुई, और इसके जरिए सामाजिक न्याय दिलाने का वादा करती हुई ऐसी लगती है मानो वह झूठ बोल रही है. जब कि उसे मुख्यधारा की राजनीति के बूते अपना विस्तार करना चाहिए था, वह उसके चारों ओर खाई खोदती दिख रही है.
इसके बाद कांग्रेस क्या करेगी? क्या इस खाई में कूदना चाहेगी? जातीय जनगणना के खतरे कर्नाटक में उसकी अपनी सरकार में उभर चुके हैं. अगर किसी ने राहुल गांधी को यह समझा दिया है कि जातीय जनगणना ही वह रामबाण है जो मोदी की गद्दी हिला सकती है, तो हम यही कहेंगे कि उन्हें बेहतर सलाहकारों की जरूरत है. राजनीतिक की कोई भी समझ न रखने वाली मैकिन्से भी इस तरह का चुटकुला नहीं उछाल सकती.
यह हमें वापस उसी सवाल पर पहुंचाता है जो हमने शुरू में उठाया था, कि क्या ऐसा कोई आइडिया, कोई नेता या कोई राजनीतिक आंदोलन है जो इस खेल को पलट सके? जो बुमराह के उन छह ओवरों की बौछार की तरह हो, जो दो विकेट पर 190 रन बना चुकी प्रतिद्वंद्वी टीम का खेल उलट दे?
1969 के बाद से, भारतीय राजनीति में केवल तीन बड़े आइडिया उभरे: ‘गरीबी हटाओ’ (इंदिरा गांधी का ठोस समाजवादी नारा); मंडल (सामाजिक न्याय का नारा); और मंदिर (हिंदुत्ववादी नारा). अलग-अलग समय पर ये तीनों सफल रहे. अब चुनौती यह है कि इनमें से दो में सभी बड़ी पार्टियों की हिस्सेदारी है. हिंदुत्व पर अभी भी भाजपा का एकाधिकार है. और दूसरे दल (कांग्रेस के नेतृत्व में) जब समाजवाद और सामाजिक न्याय की बात करते हैं तब कोई उत्साहित नहीं होता. वे करीब 15 फीसदी मतदाता तो नहीं ही होते, जो पाला बदल सकते हैं. आंकड़ों से हमें पता है कि 20 फीसदी मतदाता कांग्रेस के साथ हैं और करीब 25 फीसदी बीजेपी के साथ हैं. बाकी 10-12 फीसदी मोदी के लिए बोनस जैसे हैं. ये मतदाता कांग्रेस से थककर दूसरे पाले में गए हैं. आप वही पुराने मंत्र जपते रहे तो वे आपकी ओर नहीं लौटेंगे. उबाऊ होना, और नीरस होना राजनीति में अपराध जैसा है.
पिछले पांच साल में हमने देखा है कि वास्तव में गैर-पारंपरिक किरदारों ने राजनीति को नया रूप देने के लिए स्थापित राजनीतिक प्रवृत्तियों को किस तरह उलटपुलट दिया है. डॉनल्ड ट्रंप की राजनीति का ठेठ रिपब्लिकनों की राजनीति से कोई साम्य नहीं है. ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) वाली यह एक अलग ही पार्टी है जिसके अपने विचार हैं, अपनी शैली तथा अपनी भाषा है, और इसे किसी स्थापित परंपरा का अपमानजनक अनादर करने से कोई परहेज नहीं है. इन सबको पसंद करने वाले मतदाता पर्याप्त संख्या में हैं. रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच अदलाबदली के सामान्य चक्र के बाद अब यह एक अलग ‘प्रोडक्ट’ है.
जॉर्जिया मेलोनी ने इटली में यह कर दिखाया है. अर्जेंटीना में बिलकुल बाहरी, युवा जेवियर मिले ने मानो आरी से सरकार के आकार को आधा काट कर स्थापित राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है. उनका ‘प्रोडक्ट’ मूलतः इतना नया था कि घिसे-पिटे पुराने प्रोडक्ट से ऊब चुके मतदाताओं ने उन्हें एक मौका दे दिया. अपने यहां भारत में, ‘आप’ ने अपने उत्कर्ष के दौर में दिल्ली को इसी तरह जीता था. और इसके उलट, बाद में पंजाब में भी धर्म जिस तरह राज्य की राजनीति के मुक़ाबले भारी पड़ा, उसने हथियार डाल दिया.
भारत जैसे विशाल और विविधता से भरे देश में मिले सरीखे किसी नेता का उभरना असंभव है. लेकिन गौर कीजिए कि मिले की विचारधारा न तो वामपंथी है और न दक्षिणपंथी, बल्कि स्वाधीनतावादी है. भारत में भी 1959 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी स्वाधीनतावादी पार्टी ही थी. उस पार्टी के 21-सूत्री मांगपत्र को भारतीय स्वाधीनतावादियों का पहला एजेंडा माना जा सकता है. वह न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन का मूल एजेंडा था. वह नियमन और नियंत्रण में फर्क करता है; जो संपदा पहले से मौजूद है उसके वितरण को बुरा मानता है और उत्पादन के जरिए ज्यादा संपदा बनाने की बात करता है. यह अधिक उत्पादन केवल उद्योग के जरिए ही मुमकिन हो सकता है, जिसे प्रोत्साहनों, बचत और पूंजी से मदद मिलेगी, न कि टैक्स लगाने और दमन करने से.
अंत में मैं स्वतंत्र पार्टी के नेता मीनू मसानी के उस बयान की कुछ पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा, जो उन्होंने बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इंदिरा गांधी के विधेयक पर संसद में बहस के दौरान दिया था. उन्होंने कहा था: “अर्थव्यवस्था के लिए यह विनाशकारी साबित होगा. मैं उन्हें (श्रीमती गांधी) सावधान करना चाहता हूं कि जिसका भी राष्ट्रीयकरण किया जाता है उसके साथ तीन बुराईयां जुड़ जाती हैं. एक बुराई है नौकरशाही की लालफ़ीताशाही और कार्यकुशलता की कमी; दूसरी बुराई है राजनीतिक दबाव, घूसख़ोरी, और भ्रष्टाचार; और तीसरी बुराई यह है कि लगभग सारे सरकारी उपक्रम घाटे में चले जाते हैं.”
इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे ने, और उनके इस बयान ने कि स्वतंत्र पार्टी नवाबों की पार्टी है और उन्होंने इन नवाबों की पदवी और थैली खत्म कर दी थी, इस पार्टी की 15 साल की उम्र में ही 1974 में जान ले ली. लेकिन अच्छे विचार क्या मर सकते हैं?
मोदी के लिए असली चुनौती तब खड़ी होगी जब कोई इस तरह का सच बोलने की हिम्मत करेगा. भारत कथित वामपंथ और दक्षिणपंथ की दिशाहीन राजनीति से ऊब चुका है, जो पुराने समाजवाद में कैद हैं. केवल स्वाधीनतावादी चुनौती ही इस रथ की राह में रोड़े बिछा सकती है.
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