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Saturday, 21 December, 2024
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पाकिस्तान की अमन की बात पर सबसे अच्छा जवाब यही हो सकता है कि भारत कोई जवाब न दे

कोई भी कदम जो पाकिस्तान को दम मारने की फुरसत देगा और उसकी रणनीतिक प्रासंगिकता बहाल करेगा वह भारत के लिए नकारात्मक होगा, और वह पाकिस्तान के लिए भी बुरा होगा.

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इस सप्ताह पाकिस्तान वह करने में कामयाब रहा, जिसमें उसे इधर कुछ समय से कामयाबी नहीं मिल रही थी. वह अपने सकारात्मक रुख और अमन पसंदगी के इरादे का दिखावा करने के लिए भारत में सुर्खियां बटोरने में सफल रहा. इस इरादे की वजह क्या है, इसकी तीन व्याख्याओं पर हम नज़र डालेंगे. और हम तीन वजहें इस तर्क के पक्ष में भी पेश करेंगे कि उसके इस इरादे का हमारी ओर से सबसे अच्छा जवाब यही होगा कि हम खामोशी अख़्तियार करते हुए कोई प्रतिक्रिया न दें.

प्रधानमंत्री शहवाज़ शरीफ़ ने टीवी चैनल ‘अल अरबिया’ को दिए इंटरव्यू में कहा कि पाकिस्तान ने भारत से तीन लड़ाई लड़कर सबक सीख लिया है, और अब वह अमन चाहता है.

इससे कुछ दिनों पहले पाकिस्तान एयर फोर्स के वाइस मार्शल शहज़ाद चौधरी अपने एक कॉलम में भारत के साथ शांति कायम करने की भावनात्मक अपील कर चुके हैं. उनकी इस अपील को शांतिवादी नारा मान कर इसलिए खारिज नहीं किया गया क्योंकि वे सत्तातंत्र और ताकतवर इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन्स (आइएसपीआर) से जुड़े हैं.

पाकिस्तान के इस सुर का पहला स्रोत क्या है, इसे आसानी से समझा जा सकता है. उसे इन तीन चीजों की सख्त जरूरत है— रणनीति के मामले में दम मारने की फुरसत, वित्तीय उदारता और सबसे अहम, अपनी अहमियत.

पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति 1950 के बाद से उसकी सबसे बड़ी रणनीतिक थाती रही. जब तक शीत युद्ध जारी था, उसकी अहमियत इसलिए थी कि वह अफगानिस्तान (सोवियत संघ का बफर स्टेट यानी दो दुश्मन देशों के बीच का देश) और भारत (जिसे सोवियत खेमे का सदस्य नहीं, तो दोस्त माना जाता रहा है) के बगल में है.

सोवियत संघ जब अफगानिस्तान में हार गया, तब ओसामा बिन लादेन ने अपना अड्डा अफगानिस्तान (जिसे मुजाहिदीन के जरिए पाकिस्तान के नियंत्रण में माना जाता था) में बनाकर पाकिस्तान का वजन भौगोलिक-रणनीतिक दृष्टि से बढ़ा दिया था. जब तक यह स्थिति कायम रही तब तक पाकिस्तान की चांदी रही. इसने उसे अरबों डॉलर की मदद के अलावा ढेरों हथियार दिलाए और कूटनीतिक समर्थन भी दिलाया. इसके साथ यह भी हुआ कि कश्मीर पर भारत के दावों के प्रति पश्चिमी देशों ने गोल-मोल रवैया अपनाए रखा.

लेकिन पाकिस्तानी सत्तातंत्र अफगानिस्तान में अपनी मुहिमों के साथ जो इस्लामवाद जोड़ता रहा है वह भी वहां पैठ कर गया. यही वजह है कि अफगानिस्तान में अमेरिका से लड़ाई ‘जीतने’ के साथ ही उसने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को भी मार डाला.


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इमरान ख़ान ने इसे ‘आज़ादी’ बताया, तो सत्तातंत्र से जुड़े आईएसआई के तत्कालीन प्रमुख फ़ैज़ हामिद समेत कई लोगों ने इसका जश्न इस्लाम की फतह के रूप में मनाया. लेकिन अफगानिस्तान को जब अमेरिका ने अपनी नज़र से ओझल कर दिया तब पाकिस्तान ने अपनी रणनीतिक थाती गंवा दी. अब चीन समेत कोई भी देश भारत के मद्देनजर उसे अहमियत देने को राजी नहीं है.

अब पाकिस्तान के अपनी रणनीतिक शतरंज पर कम ही गोटियां बची हैं. वह कोई दूसरी चाल सोचे, इसके लिए उसे सांस लेने की फुरसत चाहिए. भारत के साथ बातचीत महज ऐसा ही एक उपाय है.

उसकी अर्थव्यवस्था दिवालिया हो चुकी है. उसकी हालत श्रीलंका जितनी बुरी सिर्फ इसलिए नहीं दिखती क्योंकि असली श्रीलंका पास में ही है. पाकिस्तान यह मान बैठा है कि खाड़ी के अरब मुल्क एक बड़े सुन्नी मुल्क और इस्लामी दुनिया के एकमात्र खुले रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश को ढहने नहीं देंगे. लेकिन अब इसके साथ शर्तें जुड़ गई हैं.

इन शर्तों में एक यह है कि भारत के साथ गड़बड़ करने से बाज आओ. पाकिस्तान द्वारा अपने पूरब में किए जाने वाले दुस्साहसों को बर्दाश्त करने का धैर्य अब किसी में नहीं है. इसके अलावा, भारत के साथ इन मुस्लिम मुल्कों के ज्यादा गहरे आर्थिक और रणनीतिक रिश्ते हैं. पाकिस्तान को अगर अपने लिए ऑक्सीज़न की सप्लाई जारी रखनी है तो उसे दान देने वालों को भरोसा दिलाना होगा कि वह अब बदल गया है, कि वह अपने रणनीतिक अहंकार को परे रखकर असलियत को विनम्रता से स्वीकार कर रहा है. इसलिए वह यह मुद्रा अपना रहा है कि ‘देखिए, हम भारत से भी बातचीत कर रहे हैं!’

पाकिस्तान की अहमियत खोने की वजह यह है कि उसका भौगोलिक-रणनीतिक वजन घट रहा है. लेकिन सिर्फ यही नहीं हुआ है. उसकी अहमियत इसलिए भी थी कि वह भारत के लिए ही नहीं बल्कि उसके जरिए पूरी विवेकी दुनिया के लिए भी इस चिंता के कारण सिरदर्द बना हुआ है कि क्या पता कब वह इस क्षेत्र में परमाणु युद्ध शुरू कर दे. इसीलिए दिवंगत विद्वान स्टीफन कोहेन कहा करते थे कि पाकिस्तान ऐसा देश है जो अपने सिर पर बंदूक तान कर दुनिया से बात करता है कि मुझे जो चाहिए वह दे दो वरना मैं बटन दबा दूंगा. क्या आप गड़बड़ को ठीक करने को तैयार हैं?

यह भारत के साथ लड़ाई का माहौल बनाए रखकर किया जा रहा था. जब आपको अपने ऊपर ज्यादा ध्यान खींचने की जरूरत महसूस हुई, दुश्मनी का पारा ऊपर कर दिया. यह सब तब तक तो सुरक्षित चाल रही जब तक भारत जवाबी कार्रवाई नहीं कर रहा था.


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उरी में सीमा पार जाकर की गई ‘स्ट्राइक’ और इसके बाद बालाकोट में बमबारी ने कायदे बदल दिए. भारत ने जब दिखा दिया कि वह तनाव बढ़ने और यहां तक कि परमाणु खतरे तक की चिंता न करते हुए जवाब देगा, तब पाकिस्तान का झांसा नाकाम हो गया. इसने उसकी अहमियत को पूरी तरह बेमानी साबित कर दिया. अब भारत के साथ बातचीत से शायद यह थोड़ी बहाल हो.

पाकिस्तान की इन चालों का सबसे अच्छा जवाब भारत के लिए यही हो सकता है कि वह कोई जवाब ही न दे. और इसके कई कारण हैं. लेकिन इस तथ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है कि यह पाकिस्तान के लिए अच्छा नहीं होगा. कोई भी कदम जो पाकिस्तान को दम मारने की फुरसत देगा और उसकी रणनीतिक प्रासंगिकता बहाल करेगा वह भारत के लिए नकारात्मक होगा. और वह पाकिस्तान के लिए बुरा होगा. क्योंकि यह पाकिस्तान के सत्ताधारियों को विश्वास दिलाएगा कि वे बड़े तेज हैं और भोलेपन के बीच अपना रास्ता बना सकते हैं. अगर उन्हें फिर राहत मिल गई तो जल्दी ही ऐसा एक संकट और आ जाएगा. और इस सबकी कीमत अंततः लोगों को ही उठानी पड़ती है. यकीन न हो तो आंटे के ट्रक के पीछे दौड़ते लोगों का दुखद वीडियो देख लीजिए.

यह हालत उस आबादी की हो गई है जो प्रति व्यक्ति जीडीपी के आंकड़े के मुताबिक 1985 तक भारत की आबादी से दो-तिहाई ज्यादा (65 फीसदी) अमीर थी. मैंने इस कसौटी का चुनाव इसलिए किया क्योंकि इसी दौरान पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ आतंकवाद की मुहिम शुरू की थी. आज वह 33 फीसदी से पीछे है, और खाई चौड़ी होती जा रही है. भारत की जीडीपी दोगुनी से ज्यादा तेज गति से बढ़ रही है, और उसकी आबादी में बढ़ोतरी की दर पाकिस्तान की इस दर से आधी है. ये दोनों प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े में बढ़ते अंतर को तय करते हैं.

पाकिस्तान को सांस लेने या अपनी अहमियत जताने का मौका तब तक मत दीजिए जब तक यह ठोस सबूत नहीं मिलता कि उसका मिजाज बदल गया है. प्रतिक्रिया को केवल पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की बदहाली और उसकी जनता की तकलीफ़ों के मद्देनजर उचित ठहराया जा सकता है. लेकिन फिलहाल बेदर्द बनना ही बेहतर है.

अंततः पाकिस्तान की जनता को ही अपने हुक्मरानों से मांग करनी पड़ेगी कि वे अपनी चाल सुधारें. इमरान की हैरतअंगेज़ ढंग से बढ़ती लोकप्रियता साबित करती है कि वह ऐसी कोई मांग नहीं कर रही है और ऐसा कोई एहसास उसमें नहीं पैदा हो रहा है.

यह हमें उस दूसरे कारण पर लाता है कि प्रतिक्रिया न देना ही सबसे अच्छा जवाब क्यों है. शहबाज़ शरीफ़ को हासिल बहुमत उसी तरह एक धोखा है जिस तरह इमरान को हासिल बहुमत धोखा था, और यह उन्हीं लोगों के बूते हासिल है. लेकिन इमरान की तरह उन्हें सड़कों-गलियों का समर्थन हासिल नहीं है. वे इस्लामवाद, उग्र राष्ट्रवाद, और बहुरूपी लोकलुभावनवाद के घोड़ों पर सवार हैं.

इस मुकाम पर शहबाज़ शरीफ़ की पहल उतनी ही बेमानी है जिस तरह आई.के. गुजराल की पहल तब बेमानी थी जब वे वी.पी. सिंह सरकार में विदेश मंत्री थे या जब वे खुद प्रधानमंत्री थे. ऐसी पहल सामने आते ही मृत घोषित हो जाती है. जब तक पाकिस्तान में गद्दी की लड़ाई का इधर या उधर फैसला नहीं हो जाता, तब तक भारत को इंतजार करना चाहिए, और वह इसमें सक्षम है.

अब आप यह सवाल पूछ सकते हैं कि अगर वहां फैसला फ़ौज के ही हाथ में रहता है, और उसने इमरान को गद्दी से हटाकर शरीफ़ के नेतृत्व वाली जमात को बैठाया, तो फिर उसे ही क्यों न गंभीरता से लें?

लेकिन अगर आप पाकिस्तान की सियासत पर गहरी नज़र डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि आम राजनीतिक हलके में जैसा होता है वैसी ही खींचतान पाकिस्तानी फौज के अंदर आधुनिकतावादी यथार्थवादियों और जिहादी योद्धाओं के बीच चल रही है. यह एक हकीकत है. जनरल क़मर जावेद बाजवा ने इस सबके बीच से ही अपना रास्ता बनाया था, और अब उनके उत्तराधिकारी के लिए मैदान तैयार है. जाहिर है, यह रस्साकशी अभी खत्म नहीं हुई है.

भारत के साथ अमन कायम करने के लिए पाकिस्तान को कई मौके मिले, वह भी उसकी अपनी पसंद की शर्तों पर. इनमें 2001 का वह प्रकरण भी शामिल है जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ इस मुद्रा में आगरा आए थे मानो वे उस देश में जनरल के रूप में दौरा करने आए हों जिसे उन्होंने हरा दिया हो. ऐसे अवसर 2003-04 से 2008 तक उपलब्ध थे. लेकिन 26/11 कांड ने इस माहौल को बर्बाद कर दिया, हमेशा के लिए नहीं तो कम-से-कम दो पीढ़ी के लिए तो जरूर.

जब रिश्ते स्थिर थे और काफी संवाद जारी था तब 26/11 करने की क्या जरूरत थी? बेशक इसके पीछे पाकिस्तानी फौज और आईएसआई के अंदर हावी उन जिहादी, उग्र राष्ट्रवादी ताकतों का हाथ था जिनकी मौजूदगी बहुत छिपी हुई नहीं है. अब भारत अगर फिर संवाद की कोशिश करता है तो क्या कोई यह गारंटी दे सकता है कि वैसी विध्वंसकारी हरकत दोबारा नहीं की जाएगी?

एक दशक से ज्यादा बीत चुका है, जब हमने अपने कॉलम ‘नेशनल इन्टरेस्ट’ में लिखा था— ‘लीव एफ टू पाक’ (अफगानिस्तान को पाकिस्तान के जिम्मे छोड़ो), अब यह कहने का समय आ गया है कि पाकिस्तान को पाकिस्तान के जिम्मे छोड़ो.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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