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Wednesday, 4 September, 2024
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राहुल गांधी कांग्रेस में जान फूंक सकते हैं, लेकिन उन्हें दशकों से बनी राजनीतिक छवि से बाहर आना होगा

लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की 99 सीटों पर जीत ने दो दशकों से राहुल गांधी को परेशान कर रहे तीन नुकीले सवालों की धार खत्म तो कर दी है मगर उनके अब तक के सियासी सफर पर भी गौर करना ज़रूरी है.

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अब जबकि राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में संसद के पहले पूर्ण सत्र की तैयारी कर रहे हैं, वे इस बात को लेकर राहत की सांस ले रहे होंगे कि दो दशकों से जो तीन नुकीले सवाल उन्हें परेशान कर रहे थे उनकी धार खत्म हो चुकी है.

पहला सवाल यह था कि क्या भाजपा कांग्रेस को गंभीरता से ले रही है, या उसे ऐसा करना चाहिए? दूसरा सवाल कि क्या वह राहुल गांधी को गंभीरता से ले रही है या उसे लेना चाहिए? और तीसरा सवाल यह था कि क्या कांग्रेस जैसी मृतप्राय पार्टी में जान फूंकी जा सकती है?

इन तीनों सवालों के जवाब 4 जून को मतगणना वाले दिन में दोपहर के बाद मिल गए. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को न केवल कांग्रेस और राहुल को गंभीरता से लेना पड़ेगा, बल्कि राहुल की पार्टी को 2029 में सत्ता में पहुंचने का यथार्थपरक रास्ता भी दिखने लगा है. उसमें फिर से जान आ ही गई है और वह मुकाबले में भी आ गई है. यह आप अगले सोमवार से शुरू हो रहे संसद के मानसून सत्र में देख सकते हैं.

इस सत्र में केंद्रीय बजट भी तड़के का काम करेगा. कांग्रेस जिस तरह मुकाबले में आई है उससे जो फर्क पड़ा है वह पूरे विपक्ष के रुख से भी साफ हो जाएगा. इसका अंदाज़ा आपको इस शुक्रवार को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित तृणमूल कांग्रेस सांसद डेरेक ओ’ब्रायन के लेख से लग जाएगा.

वे अपने लेख के शुरू में ही यह सवाल उठाते हैं कि अब संसद की बैठक के स्थगन से किसे फायदा होने वाला है? ज़ाहिर जवाब यह है कि इससे सत्ता पक्ष को ही फायदा होगा.

जब विपक्ष निराशाजनक अल्पमत में था तब सत्ता पक्ष उसे अपने संख्याबल के बूते चुप करा देता था और ऊपर से सदन का अध्यक्ष भी उसे दबा देता था. तब बैठक स्थगित कराना या वॉकआउट करना ही विपक्ष के लिए उपाय बचता था, लेकिन अब वह अखाड़े में कुश्ती लड़ने के लिए डटा रहेगा.

यह काम पश्चिम बंगाल में ओ’ब्रायन की टीएमसी ने बखूबी किया है. कांग्रेस अगर इस बार मजबूत होकर नहीं उभरती तो क्या वह इतने जोश में होती? कोई भी विपक्षी गठबंधन तब तक विश्वसनीय नहीं हो सकता जब तक उसका मूल आधार मजबूत न हो. कांग्रेस अब तक इस अपेक्षा को पूरा नहीं कर रही थी, मगर अब स्थिति बदल गई है.

हमेशा की तरह शुक्रवार की दोपहर जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, टीवी के परदे पर दिख रहा है कि भाजपा अध्यक्ष के पद पर अपने कार्यकाल का सुपर विस्तार पाने वाले जेपी नड्डा ओड़िशा में किसी सभा में भाषण देते हुए मुख्यतः कांग्रेस और गांधी परिवार और खासकर उस परिवार के भाई-बहन पर ही निशाना साध रहे हैं.

वे उन्हें “पढ़े-लिखे अनपढ़” घोषित कर रहे हैं, वह भी उस राज्य में जाकर, जहां कांग्रेस फिलहाल तो किसी गिनती में नहीं है. यह उन तीन में से पहले दो सवालों का साफ जवाब उपलब्ध करा देता है, जिन्हें ऊपर हमने राहुल के लिहाज़ से उठाया था. कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार के तीन लोग भाजपा के लिए महत्व रखते हैं.


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तीसरे सवाल का जवाब खुद राहुल की ओर से ही आना चाहिए. वे 2004 से सांसद हैं और उन्होंने अपनी एक ऐसी राजनीतिक छवि बनाई है जिससे उन्हें मुक्त होना पड़ेगा. यह छवि उनकी ‘दागो और भागो’ मार्का राजनीति की वजह से बनी है.

इसके लिए सोशल मीडिया या भाजपा-आरएसएस की कानाफूसी वाली भारी-भरकम मशीनरी को दोष मत दीजिए. सार्वजनिक जीवन में अपनी अच्छी या बुरी शोहरत बनाने के लिए दो दशक काफी होते हैं. 2024 के चुनावों तक राहुल की छवि डगमग प्रतिबद्धता वाले नेता की थी. इन चुनावों में सफलता के बाद वे अगर इससे आगे बढ़ते हैं तो वे न केवल इस छवि को बदल सकेंगे बल्कि इस सबसे अहम सवाल का जवाब भी उपलब्ध करा पाएंगे कि क्या कांग्रेस फिर से सत्ता में आ सकती है?

अब तक तो उन्हें सिर्फ ढाई बड़ी सफलताएं मिली हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 21 सीटें जीत कर उन्होंने अपनी पार्टी में लहर पैदा कर दी थी. उस समय लगभग सारे विजेता उम्मीदवार वे थे जिनका चयन उन्होंने ही किया था. उनमें से कई तो यूथ कांग्रेस के थे, जिसकी कमान राहुल के हाथ में थी.

दूसरी सफलता 2018 की सर्दियों में राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली थी और आधी सफलता 2017 में गुजरात विधानसभा के चुनाव में मिली, जिसमें उन्होंने भाजपा को कांटे की टक्कर दी थी. विद्रोही युवा जातीय नेताओं के मेल से खड़े किए गए उस चुनाव अभियान ने भाजपा को संकट में डाल दिया था.

उस राज्य को अपनी पार्टी की झोली में बनाए रखने के लिए मोदी को भारी चुनाव अभियान चलाना पड़ा था. वो मुकाबला कितना तगड़ा था और वह जीत कितनी मीठी थी यह चुनाव परिणामों के बाद मोदी ने जो भाषण दिया था उसी से साफ हो गया था. उनकी आंखों में आंसू थे जिन्हें कैमरे ने कैद कर लिया था, जिन्हें आपने शायद ही कभी देखा होगा. इसका ज़िक्र हमने 30 दिसंबर 2017 को प्रकाशित इस कॉलम में किया था.

लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि इन सफलताओं को आधार बनाकर आगे और मजबूती हासिल करने की कोशिश राहुल ने नहीं की. 2009 के बाद वे अपनी पार्टी में ही असंतुष्ट नेता की विचित्र भूमिका में दिखे, सजायाफ्ता नेताओं को लेकर अपनी ही सरकार के अध्यादेश की प्रति को वे खुलेआम फाड़ते नज़र आए. हालांकि, बाद में कई बार वे इस पर खेद जाहिर कर चुके हैं.

दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद गठबंधन बनाने या अपनी पार्टी को मजबूत बनाने पर कोई ध्यान नहीं दिया गया. उनका ध्यान कहीं और था, वे कटे-कटे नज़र आए, जैसा कि 2017 के गुजरात चुनाव के बाद भी नज़र आए थे. वे ऐसे मौके थे जो उनकी राजनीति के लिए नया मोड़ साबित हो सकते थे.

यही वजह है कि इस लोकसभा चुनाव के बाद उनकी वापसी को लेकर उनके समर्थक सशंकित हैं. यह शंका उनके प्रतिद्वंद्वियों में ‘उम्मीद’ जगाती है. एक काम हो गया, सफलतापूर्वक हो गया और फिर वे उदासीन हो जाएंगे. दागो और भागो.

इस बार अब तक उन्होंने ऐसा नहीं किया है, सियासत की गली में वे सक्रिय हैं, सार्वजनिक मंचों और सोशल मीडिया पर बहसों में शामिल हो रहे हैं. यह एक अहम बदलाव का संकेत देता है. यह उनकी पार्टी में भी उम्मीद जगाएगा. मोदी को बहुमत के आंकड़े से नीचे लाने की उपलब्धि शायद उन्हें मैदान में डटे रहने को प्रेरित करे.

या यह भी हो सकता है मोदी के एक दशक ने, पराजयों ने, अपमानों और निंदाओं के साथ-साथ पार्टी एवं उसके प्रमुख नेताओं को ‘एजेंसियों’ द्वार निशान बनाए जाने ने एक नये समूहिक संकल्प को जन्म दिया हो. अगर वे डटे रहते हैं और लक्ष्य पर नज़र टिकाए रहते हैं तो उपरोक्त तीसरे सवाल का जवाब अपनेआप मिल जाएगा कि कांग्रेस सत्ता में वापसी की वास्तव में उम्मीद कर सकती है.


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यहां मैं इस कॉलम में एक दशक के अंतराल में राहुल पर लिखे दो लेखों की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा. पहला लेख 6 अप्रैल 2013 को लिखा गया था जब वे कांग्रेस के उपाध्यक्ष बने थे और जयपुर में भाषण दिया था कि “सत्ता एक ज़हर है”. इस लेख में हमने उनकी राजनीति की तीन खामियां या गलतियां गिनाई थी.

इनमें से दो खामियां भारत में असमानता और इसके कारण लोगों की आकांक्षाओं को लेकर राहुल की समझ में खोट से संबंधित थीं. तीसरी खामी सत्ता को एक ज़हर समझने के उनके सोच से संबंधित थी. हमने लिखा था कि बेहतर यही होगा कि वे अपने इस सोच पर चिंतन-मनन करें. लोकतंत्र में सत्ता ज़हर नहीं होती बल्कि इसे मतदाताओं की ओर से आपको एक शानदार तोहफा, सम्मान और बहुप्रतीक्षित विशेषाधिकार माना जाता है. अच्छे राजनेता इसे आनंद, कृतज्ञता और विनम्रता के साथ स्वीकार करते हैं. हमने लिखा था कि सत्ता को ज़हर मानना एक सामंती सोच है, लोकतांत्रिक सोच नहीं.

दूसरा लेख 24 दिसंबर 2022 को ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के शोर के बीच आया था और इसमें भी कुछ वही सवाल उठाए गए थे. हमने लिखा था कि ऐसा लगता है मानो उन्हें अच्छा लग रहा है कि लोग उन पर ध्यान दे रहे हैं, भीड़ उनके लिए इकट्ठा हो रही है और उन्हें बहसों में पहले से ज्यादा मज़ा आ रहा है. वे वैचारिक मुद्दों पर अभियान खड़ा कर रहे हैं — भारत जोड़ो बनाम भारत तोड़ो, मोहब्बत बनाम नफरत, गांधी बनाम सावरकर — इसमें दिलचस्पी भी लेते दिख रहे हैं.

इन सब पर गौर करते हुए हमने दो और सवाल उठाए थे. एक यह कि कांग्रेस चाहती क्या है? इसका आसान जवाब है — सत्ता. दूसरा सवाल थोड़ा टेढ़ा है: राहुल क्या चाहते हैं? क्या वे भी वही चाहते हैं जो उनकी पार्टी चाहती है? तब सवाल उठता है कि क्या उन्होंने अपनी इस सोच को बदल दिया है कि “सत्ता एक ज़हर है”? क्या एक दशक तक बियावान में रहने और अपना मखौल उड़ाए जाने ने उन्हें सत्ता में खूबियां देखने को मजबूर कर दिया है? इस सवाल का जवाब अगर हां में होगा, तभी कांग्रेस सत्ता में वापसी की उम्मीद कर सकती है.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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