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Thursday, 12 September, 2024
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बांग्लादेश के हिंदुओं की रक्षा के लिए PM मोदी की अमेरिका से गुहार, भारत हसीना की हार को अपनी हार न बनाए

बांग्लादेश ने शेख हसीना और अवामी लीग को खारिज कर दिया तो क्या उसके जवाब में हम बांग्लादेश को ही खारिज कर देंगे? हम अपने पड़ोसी नहीं चुन सकते, लेकिन हम खुद कैसे पड़ोसी बनें यह फैसला तो कर ही सकते हैं.

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भयावह रूप से तुनुकमिज़ाज इस दौर में छोटे-मोटे झगड़े भी भू-राजनीतिक बहसों में भारी विवाद का रूप ले लेते हैं. मसलन, इस हफ्ते की शुरुआत में नरेंद्र मोदी और जो बाइडन के बीच फोन पर हुई बातचीत के बारे में भारत और अमेरिका के बयानों में फर्क को लेकर जो विवाद हुआ उसे हम इसी का एक मज़ाकिया उदाहरण मानते हुए खारिज कर सकते हैं.

इसलिए, इस बात को बड़ा मुद्दा बना दिया गया कि अमेरिका ने अपने बयान में इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि मोदी ने बांग्लादेश के हिंदुओं की हालत पर चिंता व्यक्त की. अब इस पर यही कहा जा सकता है कि जरा समझदार बन जाओ भारत!

‘जरा समझदार बन जाओ भारत!’ वाली हिदायत बिलकुल दूसरे संदर्भों में भी दी जा सकती है. वास्तव में, हम तो यह कहेंगे कि इस तरह की बड़ी शिकायत कोई मज़ाक में टालने वाली बात नहीं है. यह एक गंभीर मामला है. सबसे गंभीर बात तो यह है कि एक मजबूत तथा स्थिर सरकार का नेतृत्व कर रहे भारत के एक प्रधानमंत्री को अपने पड़ोस में हिंदुओं की सुरक्षा के लिए अमेरिका से मदद की गुहार करने की ज़रूरत पड़ गई. इस पर कुछ गंभीर सवाल उठाने की ज़रूरत महसूस होती है. उदाहरण के लिए—

  • क्या हमें याद आता है कि भारत के किसी प्रधानमंत्री को कब अपने पड़ोस में हिंदुओं की सुरक्षा के लिए अमेरिका (जो कि आज हमारा करीबी रणनीतिक सहयोगी है) के किसी शासनाध्यक्ष से मदद की गुहार करनी पड़ी थी?
  • या पिछली बार कब अपने पड़ोस में हालात पर काबू पाने के लिए किसी विदेशी सत्ता से मदद मांगने के लिए फोन करना पड़ा था? बेशक पूरी दुनिया से बार-बार यह ज़रूर कहा जाता रहा है कि वह पाकिस्तान को सीमा पार से भारत में आतंकवादी हरकतें करने से रोके, लेकिन क्या भारत ने सचमुच में कभी इस बात की परवाह की कि तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) या तमाम तरह के नामों से सक्रिय दसियों लश्कर पाकिस्तान के अंदर क्या कुछ कर रहे हैं? जरा पता कीजिए कि टीटीपी ने पाकिस्तानी फौज के जिस कर्नल का अपहरण किया है उसके साथ क्या सलूक कर रहा है. टीटीपी द्वारा ट्वीट किए गए एक वीडियो में आप उस कर्नल को गिड़गिड़ाते देख सकते हैं.
  • क्या भारत ने कभी यह कबूल किया था कि हमारे बिलकुल पड़ोस में या इस उप-महादेश में किसी दूसरी सत्ता को कोई भूमिका निभाने का वैध अधिकार हासिल है? इंदिरा युग में ‘वायस ऑफ अमेरिका’ ने त्रिंकोमली में जब अपना ट्रांसमीटर लगा दिया था तब इस छोटी-सी घटना पर हम बुरी तरह नाराज़ हो गए थे कि कोई विदेशी ताकत हमारे क्षेत्र में इस तरह कैसे अपना कदम रख सकती है.
  • पाकिस्तान में हिंदू समुदाय अपने ऊपर अत्याचारों की शिकायत करता रहा है और वहां के कई हिंदुओं ने भारत में शरण भी ली है. श्रीलंका से लाखों तमिलों (अधिकतर हिंदुओं) को निष्कासित किया गया. नेपाल में मधेसी समुदाय अक्सर भेदभाव की शिकायत करता रहा है और भारत से समर्थन मांगता रहा है. भारत को पहले कभी अमेरिका या यूरोप से इन मामलों में दखल देने की मांग करने का ख्याल आया?
  • इन सवालों के बाद अंतिम सवाल: क्या हम यह मान बैठे हैं कि बांग्लादेश में अमेरिका हमसे ज्यादा वजन रखता है? बावजूद इसके कि हमारा उच्चायोग और हमारे चार वाणिज्य दूतावास हर साल करीब 20 लाख बांग्लादेशियों को वीज़ा जारी करते रहे हैं?

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इन पांचों सवालों के जवाब हैं — कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, कभी नहीं, बिलकुल नहीं. दशकों से, बल्कि दिसंबर 1971 के बाद से भारत के बड़े रणनीतिक हित तीन सिद्धांतों पर आधारित रहे हैं.

पहला यह कि भारत की भौगोलिक सीमाओं में कोई कटौती नहीं होनी चाहिए.

दूसरा: अपने परमाणु हथियारों या जिसे रणनीतिक थाती कहते हैं उन पर भारत का पूरा अधिकार होना चाहिए.
और तीसरा : भारतीय उप-महादेश (यह नाम हमें किसी ‘थिंक टैंक’ द्वारा दिए गए नाम ‘दक्षिण एशिया’ से ज्यादा पसंद है) की अपनी अहमियत है. इसमें कटौती मंजूर नहीं है.

पिछले 53 वर्षों में 12 प्रधानमंत्रियों के तहत इन सिद्धांतों को स्थापित, विस्तृत और मजबूत किया जा चुका है, लेकिन तीसरा सिद्धांत अब खतरे में है.

यह 1980 के दशक वाला भारत नहीं है. इसकी अर्थव्यवस्था अब 4 ट्रिलियन डॉलर वाली होने जा रही है और जल्दी ही यह दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी. ‘पी-5’ देशों के बाहर यही एक ऐसा देश है जिसके पास परमाणु मिसाइलों से लैस पनडुब्बियां हैं. ‘क्वाड’ नामक समूह में यह अहम भूमिका निभा रहा है. इसका मानना है कि वह यूक्रेन में अमन कायम करवाने की नैतिक अहमियत और रणनीतिक वजन रखता है.

इस सबके बावजूद इसके प्रधानमंत्री अगर बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा के लिए अमेरिकी सहयोगियों की मदद मांग रहे हैं तो स्वाभाविक है कि यह रहस्यपूर्ण लगेगा. यह अमेरिकी वर्चस्व को कबूलने वाली बात है, जिसे भारत हमेशा चुनौती देता रहा है, जिसका विरोध करता रहा है और जिसको लेकर आशंकाएं जाहिर करता रहा है.


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बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ जो व्यवहार हो रहा है वह बेशक चिंताजनक मसला है. इसकी वजह यह है कि 1950 में पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म लियाकत अली खान ने अल्पसंख्यकों के साथ सलूक के मसले पर जवाहरलाल नेहरू के साथ हुए समझौते (अप्रैल 1950) का पालन नहीं किया, लेकिन अक्तूबर 1951 में ही उनकी हत्या कर दी गई और पाकिस्तान ने दो स्वतंत्र देशों के बीच हुए ऐसे वादे की पवित्रता को महत्व नहीं दिया.

बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को पहले भी निशाना बनाया जाता रहा, कभी आंतरिक राजनीतिक उथल-पुथल के बीच तो कभी भारत में हुई घटनाओं की वजह से. 1963 में श्रीनगर में हुआ हजरतबल कांड और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं.

पूर्वी पाकिस्तान में 1971 के जनसंहार के कारण भारत में शरण लेने वाले एक करोड़ से ज्यादा लोगों में से लाखों हिंदू वापस नहीं लौटे. इसके अलावा, 1950 और 1960 के दशकों में भी वहां से हिंदुओं के पलायन होते रहे, लेकिन तथ्य यह है कि 1970 के दशक में यह पलायन काफी घाटा और अंततः रुक गया.

शेख हसीना का 15 साल का शासन हिंदुओं के लिए सबसे शांतिपूर्ण दौर रहा और उनमें से कुछ लोगों को सत्ता तंत्र में प्रमुख पद भी मिले, लेकिन उस दौर में भी दंगे या हमले बात-बात पर होते रहते थे. 2013 में बांग्लादेश सुप्रीम कोर्ट ने जब जमात-ए-इस्लामी के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया तो हिंदुओं और उनके मंदिरों पर भीड़ ने हमले किए. ये सारी बातें निर्विवाद तथ्य हैं और दर्ज की जा चुकी हैं.

हसीना के नाटकीय पतन के घटनाक्रम में भी हिंदुओं और उनके मंदिरों के साथ ही इंदिरा गांधी सांस्कृतिक केंद्र को भी मुल्क में भारत के दखल के प्रतीक के तौर पर निशाना बनाया गया, लेकिन अंतरिम सरकार और खुद मुहम्मद यूनुस ने बड़े बयान देकर कुछ सुरक्षा का माहौल लौटाया है.

मैं कहूंगा कि उनके शासन ने इतनी तत्परता से इसलिए भी कदम उठाए क्योंकि भारत ने सख्त रुख अपनाया. भारत विरोधी भावनाएं सड़कों पर चाहे जितनी उबल रही हों, बांग्लादेश के शासक वर्ग को एहसास है कि भारत के साथ उनके रिश्ते कितना महत्व रखते हैं. वे भारत को हमेशा के लिए नाराज़ नहीं कर सकते, न उसे चोट पहुंचा सकते हैं, हालांकि, खासकर दक्षिणपंथी इस्लामी तत्वों जैसी ताकतें इसी कोशिश में हों. मूल बात यह है कि बांग्लादेश के कदम इस बात के प्रमाण हैं कि बांग्लादेश में हिंदुओं को सुरक्षा दिलाने के लिए भारत के पास पर्याप्त प्रभाव है. तो फिर, बाइडन से गुहार लगाने की क्या ज़रूरत है?

मोदी सरकार को इस पर विचार करना होगा. उसने जो कुछ किया वह शायद अपनी घरेलू जनता को दिखाने के लिए था, लेकिन अगर आप यह मानते हैं कि बांग्लादेश पर आप अपने प्रभाव का इस्तेमाल न करके अमेरिका के प्रभाव का सहारा लेंगे और इससे भारत में आपके समर्थक हिंदू ज्यादा आश्वस्त हो जाएंगे, तो यह अपनी हार मानने और खुद को छोटा करने वाली बात है.

जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं, यह आपकी बुनियादी रणनीतिक अनिवार्यता के इस तीसरे आधार को चोट पहुंचाता है कि इस उप-महादेश में हमारा वर्चस्व रहे. अपने घर में किसी महाबली को बुलावा देकर कोई भी इस आधार की न तो रक्षा कर सकता है और न कभी इस लक्ष्य को हासिल कर सकता है.

हमारे पड़ोसी समेत इस्लामी मुल्कों का संगठन ‘ओआईसी’ और दूसरे देश जब हमें हमारे मुसलमानों को लेकर उपदेश देते हैं तब हम कितने चिढ़ जाते हैं? क्या भारत दुनिया भर में हिंदू हितों के मामले को लेकर ‘ओआईसी’ जैसा बनना चाहता है? ‘विश्वगुरु’ न सही, ‘विश्वमित्र’ ही बनने की ख़्वाहिश रखने वाला देश ऐसा नैतिक रुख नहीं अपना सकता.

अंत में आप अपनी घरेलू सियासत की मांगों को अपने रणनीतिक हितों की कीमत पर कैसे पूरी कर सकते हैं? हमारे बारे में हमारे पड़ोस में जो कुछ किया या कहा जाता है उस पर बहुत ज्यादा ध्यान या उसका बहुत ज्यादा विश्लेषण केवल हम भारतीय ही नहीं करते, हमसे आकार में बेहद छोटे हमारे पड़ोसी भी हमारे यहां कहे गए हर शब्द पर खूब ध्यान देते हैं. आज असम में जिस तरह की मुस्लिम विरोधी राजनीति का बोलबाला है, वहां के मुख्यमंत्री हिमंत बिसवा सरमा ‘मियां’ शब्द का (बांग्लादेशी मुसलमानों को निशाना बनाने के लिए) जिस तरह इस्तेमाल करते रहते हैं वह हसीना के उत्तराधिकारियों या वहां के जनमत के साथ संबंध बनाने के लिए आवश्यक नया संतुलन हासिल करने में कतई मदद नहीं करेगा.

बांग्लादेश ने शेख हसीना और अवामी लीग को खारिज कर दिया है. क्या उसके जवाब में हम बांग्लादेश को ही खारिज कर देंगे? हसीना की हार को भारत की हार कतई न बनाएं. बांग्लादेशी लोग ‘होश में आएंगे’, इसकी उम्मीद और इंतज़ार करना काफी अविवेकपूर्ण होगा. कोई भी आज़ाद देश उसी दिशा में जाता है जिस दिशा में उसके लोग उसे ले जाते हैं. हम अपने पड़ोसी नहीं चुन सकते, लेकिन हम खुद कैसे पड़ोसी बनेंगे यह फैसला तो कर ही सकते हैं.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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