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Saturday, 4 October, 2025
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पाकिस्तान की सोच: किराए पर फौज, अवसरवादी विचारधारा, और राष्ट्रवाद का केंद्र सिर्फ भारत-विरोध

पाकिस्तान की फौज ऊंची बोली लगाने वाले के लिए किराये पर उपलब्ध रही है, चाहे वह मुस्लिम हो या ईसाई. पाकिस्तान कभी किसी मुसलमान की मदद के लिए आगे नहीं आया, चाहे वे फिलस्तीन के हों या गज़ा के; हां, वह शोर जरूर मचाता रहा है.

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यह कॉलम पिछले हफ्ते के नेशनल इंटरेस्ट की अगली कड़ी है और इसे मैंने उस एक पंक्ति से प्रेरित होकर लिखा, जिसे मैंने लगभग कॉलम छपने से कुछ देर पहले ही शामिल किया था. मैंने लिखा था कि पाकिस्तान अब ‘अब्राहम समझौते’ जैसे किसी समझौते पर दस्तखत करेगा, और भारत के साथ जब कभी अमन कायम करेगा उससे पहले इजरायल को मान्यता दे देगा. कुछ ही दिनों में खबरों का चक्र कुछ ऐसे नाटकीय ढंग से घूमा है कि पाकिस्तान उस मुकाम के नजदीक पहुंचता दिख रहा है, जिसकी कल्पना 26 सितंबर को किसी ने नहीं की होगी जिस दिन मैंने इस लेख की पिछली कड़ी लिखी थी.

ठीक पटकथा के अनुसार चलते हुए डॉनल्ड ट्रंप ने बेंजामिन नेतन्याहू की मौजूदगी में गज़ा मसले का 20 सूत्री समाधान पेश किया और संकेत किया कि फिलस्तीन के व्यापक मसले को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. और कुछ घंटों के अंदर ही (टाइम ज़ोन की चिंता मत कीजिए), पाकिस्तान पहला इस्लामी मुल्क था जिसने इस पेशकश को पूरा समर्थन देने की घोषणा कर दी. उसके प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ के इस लंबे ट्वीट को पढ़ लीजिए. ऐसा लगता है कि तारीफ करते हुए उनकी सांस फूली जा रही हो, जैसे किसी छोटी-मोटी रियासत का राजा बड़े बादशाह की चापलूसी कर रहा हो. इस चापलूसी ने बादशाह को कितना खुश किया यह उसके खुले उदगार से जाहिर है कि उसने फील्ड मार्शल के इस बयान को ‘सबसे खूबसूरत’ बता दिया जिसमें बादशाह को अमन का मसीहा घोषित किया गया था.

भारत ने ट्रंप के फॉर्मूले को समर्थन देने के लिए पूरे एक दिन का इंतजार किया, शायद यह समझने के लिए कि उसके दोस्त नेतन्याहू पूरी तरह उस फॉर्मूले के साथ हैं या नहीं. इस बीच पाकिस्तानियों ने बेशक मामले पर गहराई से गौर किया, उन्हें शायद थोड़ा पछतावा हुआ और उन्होंने दबी आवाज में कहा कि उनके बयान के शब्दों में हेरफेर हुई है. लेकिन वे पीछे नहीं हटे हैं और यह उलझन वैसे भी यह संकेत नहीं देता कि हमारी समझ के मुताबिक पाकिस्तान किस तरह से सोचता है.

यह समझ उस मूल तत्व तक पहुंचने की कोशिश करती है कि पाकिस्तान किस तरह का देश है. क्या वह वास्तव में उतना इस्लामी है जितना इसका संविधान या इसका वैचारिक पाठ बताता है? अगर ऐसा है, तो पाकिस्तान वाले कभी किसी इस्लामी मसले के लिए लड़ने को आगे क्यों नहीं आए? उनकी पश्चिमी सीमा के पार ऐसे कई इस्लामी मुल्क हैं जिन्हें खतरों का सामना करना पड़ा है, और कुछ के तो नष्ट होने तक की नौबत आई. पाकिस्तान उम्मा की बात करते थकता नहीं और अपनी सुविधा के लिए उसका नाम लेता रहा है, मसलन ‘ओआइसी’ में वह कश्मीर का मसला बराबर उठाता रहा है. लेकिन उसके लिए शायद ही कुछ करने को राजी दिखता है.

ऐसा नहीं है कि उसकी फौज कभी अपने दोस्त इस्लामी मुल्कों (केवल उसके पश्चिम में स्थित) में लड़ने नहीं गई. बात बस इतनी है कि इनमें से किसी पेशकश को इस्लामी लक्ष्य के लिए किया गया योगदान या बलिदान मानना गलत होगा. जॉर्डन (1970 की फिलस्तीनी बगावत), और सऊदी अरब (1979 की मक्का की घेराबंदी) में कार्रवाई शासक शाही परिवारों की रक्षा के लिए की गई. और आज भी, सऊदी अरब को ईरान या इजरायल से नहीं बल्कि ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ से बचाने के लिए पाकिस्तान की मदद चाहिए.

आप मुझे यह याद दिला सकते हैं कि योम किप्पुर युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने अपनी फौज जॉर्डन भेजी थी, खासकर अपनी वायुसेना को भेजा था. इसके जवाब में मैं यह कहूंगा कि इन दोनों देशों के बीच सैन्य साझीदारी एक गहरा और पुराना समझौता है, जिसकी जड़ें पश्चिमी गठजोड़ों में पाई जा सकती हैं. यह आपसी लेन-देन का भी मामला है. 1971 की लड़ाई के दौरान जॉर्डन ने पाकिस्तानी वायुसेना को मजबूती देने के लिए अपने 10 एफ-104 स्टारफाइटर विमान भेजे थे. इसके जो ब्योरे रॉयल जॉर्डन एयर फोर्स डायरियों में दर्ज थे उन्हें पुष्पींदर सिंह, रवि रिख्ये और पीटर स्टीनमैन की किताब ‘फिज़ाया: साइकी ऑफ द पाकिस्तानी एयर फोर्स’ में प्रकाशित किया गया है.

प्रथम खाड़ी युद्ध में पाकिस्तान ने अपनी फौज मुस्लिम इराक़ की रक्षा के लिए नहीं बल्कि सऊदियों को सद्दाम हुसेन की फौज से बचाने के लिए भेजी थी जिसने कुवैत पर कब्जा कर लिया था. पाकिस्तानियों ने कभी किसी वैचारिक मकसद के लिए लड़ाई नहीं लड़ी, वे केवल अपने चहेतों की रक्षा के लिए लड़े. आप उन्हें राष्ट्र कह सकते हैं.

इसे समझने में अफगानिस्तान ज्यादा मदद करता है. वहां जब पहला अफ़गानी जिहाद हुआ था तब पाकिस्तान सोवियत संघ विरोधी गठजोड़ में शामिल था और वह कह सकता था कि मुजाहिदीनों के मकसद को पर्याप्त इस्लामी लक्ष्य कहा जा सकता है.

लेकिन 2001 के 9/11 कांड के बाद अमेरिका ने जब वापसी की तब क्या हुआ? पाकिस्तान फिर से उसके साथ हो गया, और इस बार वह तालिबान के खिलाफ हो गया. तब, उनसे ज्यादा इस्लामी कौन था? ऐसी बातें कही गईं, रिकॉर्ड की गईं और इतिहास में दर्ज की गईं जो बाद में प्रतिध्वनित होकर दोनों खेमों को परेशान करने लगीं. उदाहरण के लिए, रॉबर्ट गेट्स ने पाकिस्तान को ‘आतंक के खिलाफ अग्रणी सहयोगी’ कहा. याद रहे कि यह 26/11 कांड के बाद कहा गया था. जरा सोचिए, भारत को इस बयान ने कितना आश्वस्त किया होगा!

इसका कुल मतलब यह है कि पाकिस्तानी सैन्य तथा रणनीतिक पूंजी हमेशा किराए पर उपलब्ध रही है, चाहे वह नकदी के रूप में हो या सामान (मध्य-पूर्व के अरबों की ओर से मिले) के रूप में या रणनीतिक तथा आर्थिक लाभ (अमेरिका से मिले) के रूप में. पाकिस्तान ने न केवल अफगानिस्तान में दो अमेरिकी जंग के दौरान इस्लामी मुजाहिदीन/तालिबान के खिलाफ लड़ते हुए सैन्य एवं असैन्य सहायता के एवज में अरबों डॉलर कमाए बल्कि अमीर अरब मुल्कों से भी इसी तरह कमाई की. यहां विडंबना की एक झलक देने के लिए मैं उन कार्यक्रमों के नाम गिनाऊंगा जिनके तहत अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 विमान देने की कोशिश की—‘पीस गेट-1’ (1983), ‘पीस गेट-2’ (1986-7), ‘पीस गेट-3’ (दिसंबर 1988), ‘पीस गेट-4’ (सितंबर 1989), ‘पीस ड्राइव’ (2005-6), और अंत में ‘पीस फैल्कन-1’ नामक कार्यक्रम के तहत जॉर्डन के 16 सेकंड-हैंड एफ-16 विमान.

सार यह है कि पाकिस्तान की फौज ऊंची बोली लगाने वाले के लिए किराये पर उपलब्ध रही है, चाहे वह मुस्लिम हो या ईसाई. आपने उसे कभी ईरान या उसके हाउदी जैसे प्रतिनिधियों की मदद के लिए आगे आते नहीं देखा होगा, जिन्हें खाड़ी के अरबों के अलावा इजरायल और उसके अमेरिकी सहयोगी मसलते रहे हैं जबकि अरब कभीकभार ही सीधी लड़ाई लड़ते हैं (मसलन यमन में) और ज़्यादातर ईरान विरोधी गठजोड़ों के साथ खामोश सहयोगी के रूप में लड़ते हैं. पाकिस्तान कभी किसी मुसलमान की मदद के लिए आगे नहीं आया, चाहे वे फिलस्तीनी हों या गज़ा वाले. हां, वह शोर जरूर मचाता रहा है. और अब उसने उस योजना को सुपरसोनिक तेजी से समर्थन दिया है जो नेतन्याहू को खुश करती है, गज़ा को पश्चिमी देशों की रखवाली में एक फाटकबंद कॉलोनी में तब्दील करना चाहती है, और द्विराष्ट्र वाले समाधान को दफन कर देना चाहती है.

वास्तव में, मुहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान को उसकी फिलस्तीन नीति दे दी थी. वे द्विराष्ट्र वाले समाधान में भी अड़ंगा लगाते. वे चाहते थे कि फिलस्तीन को उसकी मूल जमीन वापस दी जाए और इजरायल को बसाना ही है तो यूरोप में कहीं जगह दी जाए. पाकिस्तानी पासपोर्ट अपने नागरिकों को जिस एकमात्र देश जाने से रोकता है वह इजरायल ही है.

यहां मैं उस पुरानी पाकिस्तानी सलाह के बारे में बताने से खुद को नहीं रोक पा रहा हूं, जिसे मैंने शायद पहले भी आपको बताया होगा. 1947-48 के दौरान जब फिलस्तीन-यरुसलम (अल कुदस) का जज्बा बुलंद था तब उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो हर दिन लाहौर में रोज तीखे नारे लगाते जुलूस के बगल से गुजरा करते थे. एक दिन उन्होंने रुक कर पूछा, “भाई, रोज आपलोग कहां जाते हो?” उन्हें जवाब मिला कि वे फिलस्तीन और अल कुदस को आजाद कराने जाते हैं. मंटो ने उनसे कहा, “ठीक है…देखिए, रीगल चौक से होकर निकल जाएगा, नजदीक पड़ेगा.” मंटो ने अपनी तंज़ भरी सलाह से जिस हकीकत को रेखांकित किया था वह आज भी कायम है. फिलस्तीन और यरुसलम के प्रति मुसलमानों की व्यापक भावना के लिए पाकिस्तान का जो समर्थन है वह महज एक तमाशा रहा है, फर्जी रणनीतिक तेवर का नौटंकीनुमा दिखावा.

निष्कर्ष यह है कि पाकिस्तानी फौज कोई इस्लामी फौज नहीं है, और चूंकि सत्ता पर उसी का वर्चस्व रहा है इसलिए यही कहा जा सकता है कि पाकिस्तान भी कोई इस्लामी मुल्क नहीं है.

तब यह क्या है? हमने यहां जो कुछ कहा है उस सबको फिर से पढ़ें तो यही निष्कर्ष निकलेगा कि इस्लाम या इस्लामवाद पाकिस्तान का वैचारिक आधार नहीं है. भारत-विरोध या कहें कि हिंदू-विरोध ही उसका वैचारिक आधार है. वह कोई भी समझौता कर सकता है, किसी को अपनी सेवाएं भाड़े पर दे सकता है, ईरान को कल-आज-कल खारिज कर सकता है, फिलस्तीन से हमेशा के लिए पल्ला झाड़ सकता है, और मुसलमान भाइयों की हत्या करवा सकता है, यह सब वह तब तक कर सकता है जब तक इस सबसे उसे भारत को कमजोर करने और उसे चुनौती देने की ताकत हासिल होती हो. पाकिस्तान में कभीकभार चुनाव जीत कर सत्ता में आने वाले नेताओं को यह समझ में आ जाता है. जब तक भारत-विरोध (हिंदू-विरोध) उसके राष्ट्रवाद को परिभाषित करेगा तब तक उसकी फौज निर्वाचित नेताओं को कभी सत्ता नहीं सौंपेगी, चाहे उन्हें कितना भी बड़ा बहुमत क्यों न मिला हो.

इसलिए ऐसे दो नेताओं, नवाज़ शरीफ और बेनज़ीर भुट्टो ने स्थायी शांति कायम करने की कोशिश की तो इसकी उन्हें कड़ी सज़ा मिली. यहां तक कि सेना का अध्यक्ष होने के बावजूद परवेज़ मुशर्रफ को भी शांति बहाल करने की कोशिश करने पर बख्शा नहीं गया. भारत के साथ स्थायी शांति बहाल करने की कोशिश करने वाले इन सभी नेताओं को फौज, और आखिरकार घुट्टी पिलाए गए जनमत ने पाकिस्तान के उसूल के खिलाफ करने वाला ही माना. यहां आकर मैं अपनी बात को विराम दे सकता हूं.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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