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Tuesday, 24 December, 2024
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कभी अछूत रही मगर आज जिसे छू पाना हुआ मुश्किल, 43 सालों में कहां से कहां पहुंची बीजेपी

BJP के संस्थापक कभी बहुमत नहीं हासिल कर पाए और उन्हें गठबंधन करते रहना पड़ा पर आज मोदी-शाह की बदौलत उसे किसी सहयोगी की बैसाखी की जरूरत नहीं रही.

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उसके संस्थापक कभी बहुमत नहीं हासिल कर पाए और उन्हें बहुरंगी गठबंधनों को एकजुट रखने का करतब करते रहना पड़ा मगर आज मोदी-शाह की बदौलत उसे किसी सहयोगी की बैसाखी की जरूरत नहीं रही तो उन्हें अपने पुराने नेताओं, खासकर वाजपेयी का शुक्रगुजार होना चाहिए

भाजपा के जन्मदिन को उसके नेता लालकृष्ण आडवाणी उसका पुनर्जन्म दिवस कहा करते हैं, खासकर इसलिए कि उसकी स्थापना 1980 में ईस्टर के सप्ताहांत में हुई थी. भाजपा के 43वें जन्मदिन पर इस पार्टी के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है जिसके इर्द-गिर्द भारत की राजनीति आज घूम रही है. वैसे, ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टी की लगातार दूसरी बार बनी सरकार अपने आखिरी वर्ष में प्रवेश कर रही है.

अगले साल लगभग इसी समय मतदान के करीब दो चक्र पूरे हो चुके होंगे. आज जो स्थिति है उसके अनुसार भाजपा लगभग अपराजेय स्थिति में दिखेगी, चाहे विपक्षी पार्टियां कितनी भी उछलकूद क्यों न कर रही हों.

अपने संस्थापकों के अधीन यह कभी इस विशेष स्थिति में नहीं दिखी. आज भी यह वही पार्टी है, जो जनता पार्टी की राख़ से उठकर खड़ी हुई है लेकिन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अब जे.पी. नड्डा के नेतृत्व में काफी कुछ बदल गई है, उसने काफी विकास किया है. आज यह समझने का अच्छा मौका है कि 43 साल पुरानी यह पार्टी उस पार्टी से कितनी मिलती-जुलती है और उससे कितनी बदल चुकी है जिसकी स्थापना अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने की थी.

पहली चीज जो नहीं बदली है वह है इसकी वैचारिक संबद्धता. इसके संस्थापक आरएसएस (या संघ) की विचारधारा से लगभग बंधे रहे. हालांकि उन्होंने बाहरी प्रतिभाओं से काफी कुछ ग्रहण किया, जैसा कि मोदी-शाह की टीम ने भी एनडीए-2 के दौरान किया, लेकिन पार्टी के सारे शीर्ष नेता एक ही वैचारिक पाठशाला से आए. उनमें पार्टी के सभी अध्यक्ष, प्रमुख महासचिव, और लगभग सारे प्रदेश अध्यक्ष शामिल हैं. नेतृत्व भी संघ की विचारधारा से उतना ही प्रतिबद्ध रहा.

लेकिन कई अंतर भी आए, हालांकि आप कह सकते हैं कि यह आंकड़ों की हकीकत को भी प्रदर्शित करता है. इसकी वजह यह रही कि संस्थापकों को कभी बहुमत नहीं हासिल हुआ. विविध किस्म के गठबंधनों को एकजुट रखने की जरूरत के चलते उन्हें अपनी विचारधारा के कुछ मूल तत्वों को किनारे करना पड़ा था, जिनमें कश्मीर के विशेष दर्जे (अनुच्छेद 370) या राम मंदिर या समान नागरिक संहिता जैसे मामले सबसे प्रमुख रहे. उनके उत्तराधिकारियों ने बहुमत हासिल किया और इनमें से पहले दो मामले पर फटाफट कार्रवाई कर डाली. तीसरे मामले को बड़ी बारीकी से लागू करने की कोशिश की जा रही है. इसकी शुरुआत तीन तलाक प्रथा पर रोक लगाने से की गई है; और आप निश्चित मान सकते हैं कि शादी के लिए न्यूनतम उम्र निश्चित करने और बहु-विवाह पर रोक लगाने के कदम भी उठाए जाएंगे.


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एक विचारधारा से प्रतिबद्ध पार्टी को, जो 1977 की जनता पार्टी के प्रयोग में खो गई थी, उसके संस्थापकों ने फिर से खड़ा कर दिया यह अपने आपमें सराहनीय बात है. पांच बड़े दलों– भारतीय जनसंघ, इंडियन नेशनल कांग्रेस (ओ), सोशलिस्ट पार्टी, चरण सिंह के नेतृत्व वाले भारतीय लोकदल और बाबू जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डिमॉक्रसी– ने खुद को विलीन करके जनता पार्टी का गठन किया था. इनमें से केवल एक पार्टी ने ही न केवल अपना अस्तित्व बनाए रखा बल्कि एक नये अवतार में उभरी. वह पार्टी थी भाजपा.

बाकी सब बिखर गए और कुछ तो प्रदेश-केंद्रित, जाति-केंद्रित (जनता दल के रूप में) होकर रह गए, जैसे समाजवादी पार्टी (मुलायम) और राजद (लालू). सोशलिस्ट लोग अंततः जॉर्ज फर्नांडीस और अब नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में सीमित हो गए. जनता पार्टी के हश्र को मुहम्मद रफी तथा सुरैया के गाए 1948 के इस फिल्मी गाने से समझा जा सकता है– ‘एक दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा.

इनमें से केवल एक पार्टी ने खुद को खड़ा किया और आज जिस तरह राज कर रही है उसकी दूसरी कोई मिसाल हमारे इतिहास में नहीं मिलती, इंदिरा गांधी के उत्कर्ष के दौर में भी नहीं. विचारधारा की स्पष्टता ही वह बड़ी वजह थी जिसके चलते जनसंघ ने बेदाग होकर भारतीय जनता पार्टी के रूप में पुनर्जन्म लिया.

विचारधारा एक ओर अगर इतनी प्रभावी थी तो दूसरी ओर वह दूसरों को एक-दूसरे से हाथ मिलाने में अड़चन भी बनी, भले ही वे सब कांग्रेस और गांधी परिवार से नफरत क्यों न करते रहे हों. भाजपा के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती रही. और आज मोदी तथा शाह इतने कामयाब हैं तो उन्हें इसके संस्थापकों, खासकर वाजपेयी का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने भाजपा को विपक्षी खेमे में अछूत वाली हैसियत से मुक्ति दिलाई थी.

उनका बड़ा कदम था राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को सत्ता से वंचित करने के लिए वी.पी. सिंह सरकार को समर्थन देना, हालांकि कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी. इस राजनीतिक कदम की पर्याप्त प्रशंसा नहीं की गई है लेकिन विचारधारा के लिहाज से इतने असुविधाजनक, वामपंथी झुकाव वाले एक गठजोड़ को भाजपा के समर्थन (हालांकि वह थोड़े समय के लिए ही रहा) ने उसे उसकी अछूत वाली हैसियत से मुक्ति दिलाने की शुरुआत कर दी. यह यथार्थपरक राजनीति भी थी, जो कांग्रेस को कमजोर और सत्ता से दूर करने का सबसे अच्छा तरीका था.

यह कितनी बड़ी चुनौती थी, यह भाजपा विरोधी उन गठबंधनों से स्पष्ट हो गया, जिन्होंने कांग्रेस को बाद में सत्ता हासिल करने में मदद दी. चंद्रशेखर (1990-91) से लेकर एच.डी. देवेगौड़ा (1996-97) और आइ.के. गुजराल (1997-98) तक, तमाम गठबंधनों को इस आधार पर उचित ठहराना बहुत आसान था कि ये ‘सेक्युलर’ ताकतों को एकजुट रखने और ‘कम्युनल’ ताकतों को बाहर रखने के लिए बनाए गए थे.

बाद में इनमें से ही कुछ ताकतों के साथ जुड़ना आडवाणी तथा वाजपेयी की कहीं बड़ी उपलब्धि थी. उनके गठबंधन से शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना जैसे उनके स्वाभाविक साथी के अलावा ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, राम विलास पासवान, और कश्मीर का अब्दुल्ला खानदान तक जुड़ा. इसने उन्हें राजनीतिक अछूत वाली स्थिति से मुक्त कर दिया.

अब स्थिति यह है कि भाजपा खुद इतनी ताकतवर हो गई है कि उसे इन जैसे सहयोगियों की तो क्या, अकाली दल और शिवसेना की भी जरूरत नहीं रह गई है. उसने एक को खारिज कर दिया, और दूसरे को तोड़ डाला. वह खासकर हिंदी पट्टी में जाति-आधारित छोटे स्थानीय दलों से अवसरवादी तालमेल कर सकती है, लेकिन उसे किसी पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है. वैसे, दो अपवाद हैं— अन्ना-द्रमुक और एकनाथ शिंदे की शिवसेना. वैसे, अभी शिंदे की शिवसेना के भविष्य पर नजर रखने की जरूरत है, शायद तब तक जब हम भाजपा के 45वें जन्मदिन पर उसके बारे में कुछ लिख रहे होंगे.

अछूत वाली चिंताजनक स्थिति से एक पसंदीदा सहयोगी वाली तक पहुंचकर भाजपा उस ऊंचे मुकाम पर पहुंच गई हैं जहां कोई प्रतिद्वंद्वी उसे छू नहीं सकता, और खुद उसने विरासत में मिले कुछ विचारों से बड़ी दूरी बना ली है. आप इसे उसका विकास कह सकते हैं.

सबसे पहली बात तो यह है कि पार्टी में जबरदस्त व्यक्तिपूजा ने घर बना लिया है, जबकि इंदिरा गांधी के दौर में वह इसके (“इंदिरा इज़ इंडिया”) खिलाफ थी. वाजपेयी-आडवाणी के दौर में सत्ता इन दो के अलावा दूसरों, खासकर आरएसएस के बीच बंटी हुई थी, और अक्सर यह असहमति के रूप में था.

आज, आरएसएस सरकार का पूरा समर्थन कर रहा है और उसके हर कदम पर जश्न मना रहा है. आप बेशक यह कह सकते हैं कि अगर सरकार उसके वैचारिक सरोकारों पर काम कर रही है तब आरएसएस भला क्यों शिकायत करेगा.

दूसरा मामला है राजनीति के प्रति दृष्टिकोण का. संस्थापक नेता सख्त रुख अपना सकते थे, लेकिन वाजपेयी अक्सर कहा करते थे कि “राजनीति सौदा नहीं है”. उनके उत्तराधिकारियों ने लेन-देन वाली बेबाक राजनीति की अपनी कला में महारथ हासिल कर ली है.

वाजपेयी ने एक मजबूत, केंद्रित पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) बनाया था, जिस पर आरएसएस बराबर सवाल उठाया करता था. मोदी का पीएमओ कहीं ज्यादा ताकतवर है, और कोई इसकी शिकायत नहीं कर रहा है. पार्टी के लिए अच्छी बात यह है कि उसे किसी सहयोगी की फिक्र नहीं करनी पड़ रही है. याद रहे, वाजपेयी सरकार में सुरक्षा मामलों की उनकी कैबिनेट कमिटी में एक सदस्य (जॉर्ज फर्नांडीस) ऐसे थे जो वैचारिक दृष्टि से बाहरी थे.
संस्थापकों ने कई कदम उठाए थे उनमें युवा प्रतिभाओं की खोज भी शामिल थी.

जनवरी 1984 में, राजीव लहर के कारण जब पार्टी महज दो लोकसभा सीटों पर सिकुड़ गई थी तब मैंने भारत के बिखरे विपक्ष पर एक कवर स्टोरी के लिए वाजपेयी का इंटरव्यू किया था. उन्होंने कबूल किया था कि युवा वर्ग राजीव गांधी की एक बड़ी ताकत है, और खुद वे युवा नेताओं की खोज में जुटे हैं. वाजपेयी ने अरुण जेटली और प्रमोद महाजन का नाम लिया था. हकीकत यह है कि संस्थापकों ने जिन युवा नेताओं की पहचान की थी उनमें से कई आज पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं. नरेंद्र मोदी उनमें से एक हैं.

‘एचआर’ के पैमाने पर वर्तमान नेतृत्व का रिपोर्ट कार्ड संस्थापकों के रिपोर्ट कार्ड की तुलना में कैसा है? क्या हम अगली पीढ़ी के नेताओं को उभरते देख रहे हैं? हिमन्त बिसवा सरमा, योगी आदित्यनाथ, और शायद देवेंद्र फडनवीस जैसे कुछ के नाम लिये जा सकते हैं. लेकिन उभरते युवाओं का जितना बड़ा दायरा संस्थापकों के समय में था, आज शायद उतना बड़ा दायरा नहीं हैं.

अपने 43वें वर्ष में भाजपा पूर्ण वैचारिक निरंतरता, और राजनीति के तौर-तरीके तथा शैली में बड़े बदलाव के साथ विकास की ओर अग्रसर है. आपको यह पसंद है या नहीं, यह इस पर निर्भर है कि आप किस पृष्ठभूमि से आते हैं.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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