उत्तर भारत से ग्रैंड ट्रंक रोड होकर दिल्ली में प्रवेश करने की सीमा पर बसा सिंघू गांव इन दिनों अखबारी खबरों की बहुचर्चित डेटलाइन बना हुआ है.
विरोध प्रदर्शन कर रहे किसानों ने, जिनमें पंजाब के ज्यादा हैं, वहां छोटा-मोटा शहर ही बसा लिया है. वहां जाने वाले तमाम रिपोर्टरों और कैमरामैनों को हर दिन कोई नई खबर मिल जाती है. पिज्जा लंगर से लेकर जिम, मोबाइल शौचालय, कैंपर बिस्तरे, क्लीनिक, दवाखाना, और सबसे अहम बात यह कि अब पुस्तकालय और रीडिंग रूम भी सूची में शामिल हो गए हैं.
खबरों, चित्रों, राजनीति और विवादों, तारीफ़ों और तंजों के इस रेले में पिछले सप्ताह एक चित्र ने मेरा ध्यान खींच लिया. दिप्रिंट की युवा फोटोग्राफर मनीषा मंडल ने वहां प्रदर्शन स्थल पर बनाए गए एक रीडिंग रूम में बड़े ध्यान से पढ़ते हुए तीन महिलाओं की फोटो खींची. वे पढ़ने में इतनी तल्लीन थीं कि उन्हें फोटो खींचे जाने का पता तक नहीं चला. उनके सिर के ऊपर एक रंगीन साइनबोर्ड लगा था, जो मेरे लिए एक अहम कहानी बयान कर रहा था. साइनबोर्ड पर गुरमुखी और रोमन लिपि में लिखा था—‘उड़ता पंजाब नहीं, पढ़ता पंजाब’. यानी पंजाब अब ड्रग्स की नशाखोरी वाला पंजाब नहीं है, पढ़ने-लिखने वाला पंजाब है.
हिंदी सिनेमा में दिलचस्पी रखने वालों को पता होगा कि ‘उड़ता पंजाब’ नाम की एक फिल्म 2016 में बनी थी, जो एक करुण हास्य थी मगर उसने एक गहरा राजनीतिक संदेश देने की कोशिश भी थी. पंजाब में चुनाव होने वाले थे. वहां सरकार अकाली-भाजपा गठबंधन की थी. सामाजिक हो या आर्थिक, किसी भी मोर्चे पर पंजाब की हालत दुरुस्त नहीं थी. ऊपर से, युवाओं में ड्रग्स की नशाखोरी में खतरनाक वृद्धि हो रही थी.
यह कांग्रेस और वहां की राजनीति में कदम रख रही आम आदमी पार्टी के लिए सत्ता हासिल करने का चुनिन्दा मुद्दा था. उनका दावा था कि अकाली-भाजपा सरकार ने पंजाब को हेरोइन/स्मैक/कोकीन के नशे में गर्क कर दिया है. हर गांव का एक-एक युवा नशाखोर बन गया है. और सुखबीर सिंह बादल के साले समेत तमाम अकाली नेता ड्रग माफिया के सरगना बन गए हैं.
‘उड़ता पंजाब’ फिल्म में एक पात्र ऐसा भी रखा गया था जो इस साले की नकल करता था. इस फिल्म का संदेश यह था कि राज्य के नेता और पुलिस की मिलीभगत से चल रही इस नशाखोरी के चलते हर कोई बलात्कारी, तस्कर बन रहा है. यह पंजाब को तबाह कर देगा. सच्ची बात यह है कि इस फिल्म ने पूरे देश का ध्यान पंजाब की ओर खींचा मगर पंजाब में कई लोग इससे नाराज हो गए. यह एक समस्या तो है मगर इतनी गंभीर नहीं है.
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पंजाब में कितने लोगों के पास इतना पैसा है कि वे दिल्ली/मुंबई/गोवा के क्लबों और बार में नशाखोरी करने वाले अमीरों के बच्चों की तरह कोकीन तो क्या हेरोइन तक खरीदने के पैसे जुटा सकें? फिल्म राज्य में चुनाव के ठीक पहले आई, और मतदाताओं ने अकाली-भाजपा सरकार के साथ-साथ ‘आप’ को भी खारिज कर दिया, जो उड़ता पंजाब की लहर पर सवार होकर वादे कर रही थी कि वह सत्ता में आई तो इन माफिया सरगनाओं समेत उस साले को भी जेल में डाल देगी.
समय के साथ उड़ता पंजाब की कहानी भी भुला दी गई, जैसे होना चाहिए था. लेकिन इसने पंजाब को बदनाम कर दिया. बेशक साले महोदय को सभी एजेंसियों ने ‘क्लीन चिट’ दे दी और वे कई प्रतिष्ठित अखबारों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा भी जीत गए.
जाहिर है, ऊपर जिस साइनबोर्ड का जिक्र किया गया है वह उन लोगों की नकारात्मक छवि पेश करने की कोशिश का पंजाब द्वारा दिया गया जवाब है, जो अपनी उस खुशहाली पर नाज करता है जिसमें भांगड़ा के अलावा और भी बहुत कुछ शामिल है. वह कहना चाहता है कि हमारे बारे में आप जो सोचते हैं उसके अलावा बहुत कुछ है हमारे अंदर. अखंड पंजाब का बच्चा होने के नाते मैं इस पर यही कहूंगा—शाबाश! 1966 के बाद जिस राज्य को काट कर तीन राज्य बनाए गए उसके लोगों में कई खामियां होंगी मगर वे इतने भी बुरे नहीं हैं.
न ही हमारे सारे युवा भांगड़ा-पॉप संगीत कंसर्ट में नशे में डूबे रहते हैं, या हमारे पिता-चाचा आपकी थाली में रोटी-चावल पहुंचाने के लिए खेतों में मेहनत करने की जगह हेरोइन की तस्करी करते हैं. न ही वे अपने खेतों पर काम करने के लिए बिहार से आए गरीब मजदूरों पर अत्याचार करते हैं या उनके साथ आईं महिलाओं का सामूहिक बलात्कार करते हैं या उन्हें देह बेचने पर मजबूर करते हैं. उस फिल्म में आलिया भट्ट ने ‘बौरिया’ नाम जिस पात्र की भूमिका निभाई थी उसे याद कीजिए. अदाकारी जोरदार थी मगर उसके चरित्र को जिस तरह पेश किया गया है वह उस राज्य और उसके लोगों की गलत तस्वीर पेश करता है.
असलियत आपको तब पता चलेगी जब आप कुछ समय पंजाब के गांव में बिताएंगे या सिंघू बॉर्डर पर लंगर खा रहे लोगों से बात करेंगे जिनकी साउंड बाइट लेने और जिनके साथ सेल्फी खिंचाने वालों की भीड़ लगी रहती है. वे लोग बताएंगे कि वे अपने मजदूर ‘भैयों’ के साथ कैसा बरताव करते हैं, कि किस तरह उनके बिना उनका काम नहीं चल सकता, कि वे उनके लिए किस तरह शेल्टर बनाते हैं और उनकी सुरक्षा करते हैं.
यहां पर आकर मैं कुछ गहराई से विचार करता हूं. मैं देख सकता हूं कि ‘उड़ता पंजाब’ की छवि बनाने वाले कुछ प्रमुख चेहरे ‘पढ़ता पंजाब’ की दुहाई देने में भी व्यस्त हैं. ‘आप’ उन्हें राजनीतिक समर्थन देने के साथ-साथ उनके लिए मुफ्त वाइ-फ़ाइ और शौचालय की भी व्यवस्था कर रही है. अखिल भारतीय वाम दल भी इस आंदोलन की अगुआई कर रहा है. अब कोई भी नहीं है, जो ड्रग्स के खतरे की बात कर रहा हो, जो कि एक हकीकत है जिसे उस मानहानि करने वाली उस फिल्म में आधे-अधूरे ढंग से ही प्रस्तुत किया गया.
पिछले चार साल में ऐसा क्या हो गया कि दलजीत दोसांझ उड़ता से पढ़ता में तब्दीली का गुणगान कर रहे हैं? क्या अमरिंदर सिंह की कांग्रेस सरकार ने इतना चमत्कार कर दिया है? इतना तो वे भी दावा नहीं करेंगे. सर्वगुणसम्पन्न पंजाब का आज महिमागान करते पात्र वे ही हैं, जो कल उड़ता पंजाब की धूल उड़ा रहे थे. कल उन्हें यह माफिक लग रहा था, आज यह माफिक लग रहा है.
कृषि क़ानूनों के लिए पंजाब और पंजाबियों की अपनी आशंकाएं, अविश्वास, और शिकायते हैं. औरंगजेब के जमाने से यह प्रदेश और इसकी गौरवशाली सिख जमात ‘दिल्ली दरबार’ के प्रति विद्रोह का भाव रखती आई है. औरंगजेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में गुरु तेग बहादुर की हत्या कारवाई थी, जहां आज सीसगंज गुरुद्वारा है. 19वीं सदी में जबरदस्त एंग्लो-सिख लड़ाइयां हुईं, 20वीं सदी में दिल्ली दरबार के ‘धक्कों’ के खिलाफ व्यापक जन प्रतिरोध हुए. उनकी वजह से ही अकालियों ने 1973 में बैसाखी के दिन आनंदपुर साहब प्रस्ताव पास किया. इसने संघीय व्यवस्था की नयी परिभाषा गढ़ने की कोशिश की, जिसे हम ‘अनुच्छेद 370+++’ नाम दे सकते हैं.
पंजाब के लिए इसके नतीजे बुरे हुए. 1981 से 1993 के बीच आतंकवाद के कारण लाखों लोग मारे गए. राज्य से प्रतिभाओं, पूंजी और उद्यमियों का पलायन हुआ.
पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले लुधियाना से अधिकतर उद्यमी घराने पलायन कर गए. बाकी देश आगे बढ़ता रहा, और पंजाब केवल कृषिप्रधान राज्य बना रहा. वह 1991 के बाद आई आर्थिक वृद्धि की लहर पर सवार न हो सका.
प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से देश का सबसे अमीर राज्य होने के कारण पंजाब निश्चिंत बैठा रहा. दूसरे राज्य उद्योगीकरण करके आगे बढ़ रहे थे. 2002-03 आखिरी साल था जब पंजाब सबसे अगले पायदान पर था. आज वह 13वें पायदान पर है. अफसोस की बात है कि उसकी प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा इसके राष्ट्रीय औसत के आंकड़े से मात्र 15 प्रतिशत ज्यादा है. गोवा, सिक्किम जैसे छोटे राज्यों को तो छोड़िए, वह हरियाणा (5वें नंबर) और हिमाचल प्रदेश (12वें नंबर) से भी नीचे चला गया है, जिन्हें इसमें से ही काट कर बनाया गया था. वैसे, वह इस बात पर भले गर्व कर सकता है कि औसत पंजाबी एक बिहारी से साढ़े तीन गुना अमीर है. लेकिन वह अमीरी के मामले में एक गोवा वाले के मुक़ाबले एक तिहाई ही है. और हरियाणा, जिसे विरासत में किसी नदी का पानी नहीं मिला और जिसकी जमीन सबसे सूखी थी, वह आज पंजाब से 50 प्रतिशत बढ़त लेकर आगे है.
अमरिंदर सिंह की सरकार ने मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अध्यक्षता में ‘आइसीआरआइईआर’ के ‘थिंक टैंक’ समेत विशेषज्ञों की जो कमिटी नियुक्त की थी उसके आंकड़े देख लीजिए. वे बताते हैं कि कृषि में भी पंजाब पिछड़ रहा है. 2004-05 से 2019 के बीच 15 साल में पंजाब ने कृषि में मात्र 2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जबकि बिहार ने 4.8 प्रतिशत की और उत्तर प्रदेश ने 2.8 प्रतिशत की वृद्धि की. यहां तक कि हरियाणा (3.8 प्रतिशत) और हिमाचल (2.7 प्रतिशत) भी उससे आगे रहे. प्रति व्यक्ति आय के मामले में उससे 25 प्रतिशत ज्यादा अमीर महाराष्ट्र में कृषि में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई, यानी फासला बढ़ रहा है.
आंकड़े और भी कठोर हकीकत बयान करते हैं. इसमें शक नहीं कि एमएसपी और सब्सीडी अभी कई वर्षों तक जारी रहनी चाहिए. लेकिन पंजाब को अपनी स्वाभाविक उद्यमशीलता को फिर से उभारने की जरूरत है. केवल एमएसपी की मांग तक सीमित न रहकर उसे जमीन के इस्तेमाल की आज़ादी की भी मांग करनी चाहिए. हरियाणा तक ने इस मामले में दायरा बढ़ाया है, और अपने किसानों को कल-कारखानों और गोडाउन आदि के लिए अपनी जमीन किराये पर देने की छूट दी है. पंजाब और उसके किसानों को आर्थिक आज़ादी, जमीन के इस्तेमाल की छूट मिलनी चाहिए. उन्हें केवल चावल-गेहूं-एमएसपी के सुकून में ही नहीं पड़े रहना चाहिए. अगर आज वे इस बात को नहीं समझेंगे और जो महिमगान चल रहा है उसी में उलझे रहेंगे तो वे न तो उड़ता रह पाएंगे, न पढ़ता बन पाएंगे, बल्कि वह ‘फुकरा पंजाब’ बनकर रह जाएंगे, जिसे बॉलीवुड ने बदनाम कर दिया है.
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