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Friday, 15 November, 2024
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मोहन भागवत सही कह रहे- चीन एक बड़ा खतरा है, लेकिन उससे निपटने का उनका फॉर्मूला गले नहीं उतर रहा

भारत चीन से लड़ सकता है मगर इसके लिए देश में शांति और स्थिरता चाहिए, चुनाव जीतने के लिए एनआरसी जैसे पुराने विवादों को भड़का कर या हिंदू-मुसलमान ध्रुवीकरण करके चीन से मुक़ाबला नहीं किया जा सकता शेखर गुप्ता

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शरद पवार कई बार घालमेल भरे राजनीतिक संकेत दिया करते हैं. वे जब सत्ता का घरेलू सियासी खेलों से इतर बातें करते हैं तो उनमें स्पष्टता होती है. उदाहरण के लिए उनका यह कहना कि चीन भारत की घेराबंदी करने की कोशिश में जुटा है. लेकिन दिक्कत यह है कि यह पूरा सच नहीं है, क्योंकि चीन ऐसी कोशिश नहीं कर रहा है बल्कि फिलहाल वह इसमें सफल हो रहा है. उसका शिकंजा कसता जा रहा है.

हमारे त्योहारों का सप्ताह जब समाप्त हो रहा है, चीन के प्रचार तंत्र ने जून 2020 में गलवान में हुई झड़पों के कई वीडियो जारी किए हैं. उनमें दिखाया गया है कि किस तरह उसने भारत के सैनिकों को तीन दिनों तक बंदी बनाकर रखा था. इसके अलावा भी कई उकसाऊ दृश्य, और धमकियां भी हैं. इनके साथ ही ‘ग्लोबल टाम्स’ में युद्ध में दी जाने वाली या मनोवैज्ञानिक स्तर पर जनसंहार करने वाले हथियारों के बारे में कमेंटरी भी है. उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के अरुणाचल प्रदेश के दौरे पर चीन की प्रतिक्रिया कोई अप्रत्याशित नहीं थी, फर्क सिर्फ उसकी आक्रामकता का और उसमें इस्तेमाल किए गए शब्दों का था.

ये सब कोशिशों में शामिल हैं लेकिन अभी इन्हें घेराबंदी नहीं कहा जा सकता. यह कहीं और हो रही है. पाकिस्तान के साथ-साथ श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और अब अफगानिस्तान के बाद चीन के रिश्ते ईरान, तुर्की, और कुछ मध्य एशियाई देशों के साथ गहरे हो रहे हैं.

सबसे ताजा, वास्तव में इस लेख के लिखे जाने के साथ, चीन का सरकारी मीडिया भूटान के साथ सीमा समझौते के दावे जारी कर रहा है. यह साफ-साफ तो नहीं कहा जा रहा है मगर संकेत दिया जा रहा है कि भारत के बावजूद यह समझौता हो चुका है या होने जा रहा है. इस पर ज़ोर देने के लिए भूटान को सलाह दी जा रही है कि उसने डोकलाम के मामले में चीन के साथ अपने संबंधों के बीच भारत को दखल देने की छूट देकर उसने किस तरह अपना अहित किया है.

चीन इस क्षेत्र के और इसके बाहर के हर एक देश को यह जताने की कोशिश करता रहा है कि इस इलाके में बॉस कौन या इस मोहल्ले का दादा कौन है. पूर्वी लद्दाख के मामले में, चीन ने कोर कमांडर स्तर की 13वीं वार्ता में पूरे अड़ियल रुख के साथ भाग लिया और इस तरह के आपत्तिजनक बयान दिए कि ‘इतना लेना है तो लो वरना यह भी नहीं मिलेगा’.

जब कि मनोवैज्ञानिक टकराव जारी है, वह काफी स्पष्टता बरत रहा है. सवाल यह है कि वह क्या हासिल करना चाहता है और क्यों हासिल करना चाहता है. आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने विजयदशमी पर अपने भाषण में चीन-पाकिस्तान-तालिबान-तुर्की मिलीभगत की ठीक ही चर्चा की. मर्ज की पहचान तो उन्होंने ठीक की मगर वे जो इलाज सुझा रहे हैं वह सही नहीं है. हम बताएंगे कि वह ठीक क्यों नहीं है.

कम-से-कम अगले एक दशक तक रूस के साथ भारत के जो पेचीदा संबंध रहने वाले हैं या उस पर सैन्य निर्भरता जो रहने वाली है उसके मद्देनजर भारत उधर से उभरने वाली चिंताओं की बहुत चर्चा नहीं करना चाहता. लेकिन व्लादिमीर पुतिन अब प्रायः शी जिनपिंग या चीन के सेवक की तरह बातें करने लगे हैं. गौर कीजिए कि इस सप्ताह उन्होंने कहा कि ताइवान को कब्जे में लेने के लिए चीन को ताकत का भी इस्तेमाल नहीं करना पड़ेगा, वह इतना ताकतवर है कि ताइवान पर उसका शांतिपूर्ण कब्जा होना ही है.

इस सबका अर्थ यह है कि भारत के लिए और अपने आठवें साल में पहुंची मोदी सरकार के लिए रणनीतिक तस्वीर गंभीर है. 2014 में शी जिनपिंग के साथ शानदार किस्म का सौदा करने की जो भव्य शुरुआती चाल चली गई थी, वह पूरी तरह नाकाम रही. सिर्फ इसलिए कि चीन ने भारत को कभी अपने बराबर नहीं माना. अब वह भारत को यह एहसास दिलाने में लगा है कि दोनों के बीच फासला और बढ़ ही गया है.

ऊपर से देखने पर लगता है कि रणनीतिक पलड़ा चीन की ओर काफी झुका हुआ है. उसने लद्दाख में कुछ जमीन पर कब्जा किया हो या न किया हो, उसने भारत के लिए उस बड़े क्षेत्र में जा पाना मुश्किल कर दिया है जहां वह पहले गश्त लगाता था. उसने सेंट्रल सेक्टर में मैदानी इलाके बाराहोती और पूरब में तवांग के शांत पड़े सीमा क्षेत्रों में गतिविधियां बढ़ा दी है. लद्दाख में चीनी फौज की तैनाती बढ़ गई है और ऐसा लगता है कि वह स्थायी रूप से जम गई है.

इन सबके बावजूद चीन भारत के साथ व्यापार से ज्यादा कमाई कर रहा है. ‘दिप्रिंट’ में पिया कृष्णकुट्टी की रिपोर्ट के अनुसार, 2021 के नौ महीने में ही उसने 47 अरब डॉलर के बराबर का सरप्लस हासिल कर लिया है, जो कि पूरे 2020-21 के सरप्लस से ज्यादा है बल्कि वह 63.05 अरब डॉलर के रेकॉर्ड को भी तोड़ सकता है.

इस मुकाम पर हमें लागतों और नुकसान पर भी ध्यान देना चाहिए. सबसे पहली बात यह कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में चाहे जो हासिल कर लिया हो, पहल करके बढ़त ले लेने की संभावना अब दूसरी जगहों पर उसके लिए काफी सीमित हो गई है. तवांग क्षेत्र में पीएलए की गश्त से यह स्पष्ट हो गया है. भारतीय सेना को इसमें काफी खर्च और दबाव का सामना करना पड़ता है मगर वह इसके लिए तैयार है.

चीन से मिलने वाला हर झटका भारत को अमेरिका के करीब और धीरे-धीरे रूस से दूर ले जाता है. चीन की वजह से ही मोदी सरकार ने अमेरिका के साथ ‘लेमोडा’ (लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट) और दूसरे रणनीतिक समझौते किए, जो 15 साल से अटके पड़े थे.

चीन की हरकतों की वजह से भारत के रणनीतिक हलके, राजनीतिक दुनिया और टीकाकारों के बीच वह हो रहा है जिसे असंभाव माना जा रहा था— सात दशकों से हमारी सामूहिक चेतना पर अमेरिका विरोध का जो भूत सवार था वह उतर रहा है. सी. राजा मोहन ने, जिनकी मैं दशकों से भारत के रणनीतिक विमर्श में दखल देने वाले एक ज़हीन विद्वान के रूप में इज्जत करता रहा हूं, एक बार मुझसे कहा था कि अमेरिका के साथ ‘लेमोडा’ समझौता अगर हो गया तो भारत फ्रांस के साथ भी इस तरह का समझौता करेगा. यह अब इतना सामान्य माना जाने लगा है कि रक्षा मामलों की खबरें देने वाले पत्रकारों ने इस पर ध्यान भी नहीं दिया. सो, शुक्रिया शी जिनपिंग साहब आपका, कि आपने हमारी आंखें खोल दीं.

ऊपर मैंने व्यापार के जो आंकड़े दिए हैं वे भारत के लिए बुरे हैं. लेकिन यह बढ़त अल्पकालिक साबित हो सकती है. हम ‘आत्मनिर्भरता’ पर ज़ोर दिए जाने को संदेह की नज़र से देख सकते हैं, लेकिन भारत के टेलिकॉम और उच्च तकनीक वाले सेक्टर से चीन अब पूरी तरह बाहर हो गया है. अमेरिका की अगुआई में अधिकतर पश्चिमी देशों ने उसकी 5जी तकनीक को चुपचाप खारिज कर दिया है. चीन ने लद्दाख में भारत की चाहे जमीन हथिया ली हो, उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ रही है. यह सैनिकों के मारे जाने या जमीन के नुकसान के रूप में नहीं दिख रही है, लेकिन उसका एक सबसे बड़ा बाज़ार उसके हाथ से निकल जाएगा.

शी जिनपिंग के लिए तस्वीर कैसे बन रही है? उनकी अर्थव्यवस्था को कई झटके लग चुके हैं, जिनमें एक है कर्ज भुगतान में समस्या. अपनी तानाशाही सत्ता को मजबूत करने के लिए वे अपने ‘टेक’ सेक्टर, सोशल मीडिया, एडुटेक सेक्टर, आला उद्यमियों के पीछे पड़े हैं, और अब पश्चिमी निवेशक चीन के प्रति शंकालु हो रहे हैं.

हमारे बिल्कुल पड़ोस में उसके सबसे अहम साथी पाकिस्तान तीन दशकों में आज सबसे बुरी हालत में है. उसकी जीडीपी तमिलनाडू की जीएसडीपी से भी कम है. तालिबान की जीत का मज़ाक उसके गले में सलीब बन गया है. अमेरिका की उप-विदेश मंत्री वेंडी शेर्मन ने पिछले सप्ताह इस तरह की बेबाक टिप्पणी करके पाकिस्तान को संकेत दे दिया कि अब वह आइएमएफ, विश्व बैंक, जैसे संगठनों से मदद हासिल करने के लिए अमेरिका से उम्मीद न करे. उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा गई है, उसका रुपया ध्वस्त हो गया है, और मुद्रास्फीति बेकाबू हो गई है. और चीन कभी किसी को प्यार या वफादारी के लिए पैसे नहीं देता. आप अनुमान लगा सकते हैं कि तुर्की पाकिस्तान को पैसे के भुगतान पर कुछ ड्रोन बेचने के सिवा उसकी कितनी मदद कर सकता है. क्या वह भारत से पंगा लेने का जोखिम मोल ले सकता है? आज तो वह अपनी आइएसआइ के नये मुखिया की भी नियुक्ति नहीं कर पा रहा है.

चीन का शिकंजा कसता जा रहा है. आरएसएस प्रमुख ने खतरे की सही पहचान की है. लेकिन वे जो सुझा रहे हैं कि सीमा पर सुरक्षा बधाई जाए, वह कमजोर समाधान है. इतिहास, जिस पर उन्हें भरोसा है, पढ़कर उन्हें मालूम हो गया होगा कि भारत में 1000 साल से, बचाव की भूमिका अपनाने वालों की हमेशा हार होती रही है, चाहे उनके किले कितने भी ऊंचे और विशाल क्यों न रहे हों और उनके रक्षक कितने भी साहसी क्यों न रहे हों.

लड़ते हुए मर जाने वाले को जीत नहीं हासिल होती. ज्यादा मजबूत खतरों से अपना बचाव करने वालों को गठबंधन करने पड़ते हैं. इसमें समय लगता है. इसके लिए घर में शांति और स्थिरता की जरूरत होती है. अपनी ही चारदीवारी के भीतर पुरानी चिनगारियों (मसलन नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर यानी एनआरसी) को भड़काने से आपको यह समय नहीं मिल सकता. आप एक दिन तो यह कहें कि भारत के हिंदू और मुसलमान समान हैं, और दूसरे दिन यह चिंता करने लगें कि किसकी आबादी ज्यादा तेजी से बढ़ रही है, यह नहीं चल सकता.

हम चुनावी मजबूरियों को, कुछ महीने बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को कम-से-कम 50 फीसदी हिंदू वोट दिलाने की हताश जरूरत को समझते हैं. इसके लिए आपको ध्रुवीकरण जरूरी लगता है, अपने मुस्लिम साथियों को ‘दूसरे’ पाले में डालना जरूरी लगता है. आपकी घरेलू सियासत इसी तरह आपके राष्ट्रीय, रणनीतिक हितों के विपरीत चलती है. चीन की जीडीपी भारत की जीडीपी से भले ही पांच गुना ज्यादा हो, भारत उसका मुक़ाबला कर सकता है, मगर बंटा हुआ भारत नहीं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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