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Monday, 25 November, 2024
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एंबेसडर कार की तरह कांग्रेस पर भी अस्तित्व का संकट, नया मॉडल नहीं नया ब्रांड लाने से सुधरेगी हालत

पुरानी एंबेसडर कार की तरह कांग्रेस ने भी खुद को नये अवतार में ढालने की कई नाकाम कोशिशें की लेकिन उसे अपने शानदार अतीत से आगे बढ़कर कुछ ऐसा करना पड़ेगा जो भविष्य के लिए उम्मीदें जगाता हो.

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सोनिया गांधी ने काफी देर करके उदयपुर में आयोजित किए गए कांग्रेस के ‘चिंतन शिविर’ की शुरुआत यह कहते हुए की कि पार्टी को नया स्वरूप प्रदान करना है. इससे चार सवाल उभरते हैं—

  •  पिछले आठ साल से अब तक के सबसे गहरे गर्त में पहुंच चुकी कांग्रेस को क्या अब नया स्वरूप प्रदान किया भी जा सकता है क्या?
  • अगर यह संभव है, तो इसके लिए क्या करना पड़ेगा?
  • जब कई क्षेत्रीय ताक़तें विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए उभर रही हैं, तब एक अखिल भारतीय विपक्षी पार्टी का होना कितना महत्व रखता है?
  • इसका महत्व हो भी तो क्या वह अखिल भारतीय विपक्षी पार्टी केवल कांग्रेस ही हो सकती है? क्या वह नया विकल्प बन सकती है?

इन सवालों को अलग तरह से भी रखा जा सकता है, खासकर अगर आपको याद हो कि एक समय में हर तरफ नज़र आने वाली एंबेसडर मॉडल की कार कैसी हुआ करती थी. भारत के छोटे-से कार बाज़ार में कभी इसका दबदबा था और यह शासन तंत्र की वैसी ही प्रतीक थी जैसी कांग्रेस दशकों तक रही. 1980 के दशक के अंत में जब मारुति-सुज़ुकी उभरी और 1991 में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के साथ कारों के दूसरे आकर्षक मॉडल भारतीय बाज़ार में छा गए तब एंबेसडर बनाने वाली हिंदुस्तान मोटर्स के मालिकों और प्रबंधकों के मन में भी इसी तरह के सवाल उठे होंगे:


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पहला यह कि क्या हम एंबेसडर का नया वर्जन ला सकते हैं? दूसरे, अगर ऐसा हो सकता है तो यह बदलाव कैसे आएगा? तीसरे, भारत के कार बाज़ार के लिए क्या अखिल भारतीय लोकप्रियता वाला एक ब्रांड जरूरी है? और चौथा सवाल यह कि भारत को अगर ऐसा एक ब्रांड चाहिए ही तो क्या वह एंबेसडर ही हो सकती है?

यह भी याद कीजिए कि हिंदुस्तान मोटर्स ने इस कार को नया रूप देने के लिए क्या-क्या किया. उसने उसका बाहरी स्वरूप बदला, उसके एयर-कंडीशन वाले मॉडल निकाले, उसमें जापानी इंजन डाला. लेकिन एंबेसडर को कुछ भी बचा न पाया.

अब आप एंबेसडर वाली कसौटी पर कांग्रेस पार्टी को कसें, तो पहले दो सवालों के जवाब मिल जाएंगे. इतने पुराने ब्रांड को नये अवतार में बदलना संभव नहीं है. आपने जो कोशिशें की वे विफल हो चुकी हैं. कांग्रेस ने जो नयी चीजें की, वे चमक खो चुकी हैं. इसका सबसे नया सबूत यह है कि पार्टी के गुजराती नेता हार्दिक पटेल उदयपुर में नहीं हैं. पार्टी ने उन्हें युवा प्रदेश अध्यक्ष के रूप में शामिल किया था और कहा जा रहा था कि यह रूढ़िवादी पार्टी का क्रांतिकारी कदम है. नये गठबंधन बनाए गए, चाहे वह ममता बनर्जी के साथ हों, वाम दलों के साथ, कर्नाटक में जेडी(एस) के साथ, राजद के साथ, तेलंगाना में टीडीपी के साथ या सबसे अहम उत्तर प्रदेश में सपा के साथ.

गठबंधनों की विफलता इतनी घातक रही है कि अब संभावित सहयोगी भी कांग्रेस से जुड़ाव को खुदकशी के समान मानने लगे हैं. हाल में राहुल गांधी ने खुलासा किया कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनकी पार्टी ने मायावती की ओर हाथ बढ़ाया था लेकिन उधर से कोई जवाब नहीं मिला. शरद पवार की जोशीली पार्टी एनसीपी, और झारखंड मुक्ति मोर्चा के सिवा भारत की लगभग सभी पार्टियां कांग्रेस को गठबंधन के काबिल नहीं मानतीं.

कांग्रेस ने खुद को नया रूप देने की और भी कई कोशिशें की लेकिन विफल रही. ‘अंबानी-अडानी की सरकार’ के नारे के साथ वामपंथी झुकाव देने, और ‘चौकीदार चोर है’ के नारे के साथ भ्रष्टाचार विरोधी तेवर देने की कोशिश हुई, मंदिरों के दौरे किए गए और खासकर दत्तात्रेय गोत्र के जनेऊधारी ब्राह्मण होने के दावे तक किए गए. प्रियंका गांधी को चुनाव प्रचार में उतार दिया गया. प्रमुख राज्यों में नये नेताओं को आजमाया गया, खासकर पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू को. लेकिन सारे प्रयास विफल रहे.

इसलिए, पहले दो सवालों का जवाब यही है कि 1990 के दशक के एंबेसडर कार की तरह कांग्रेस नामक ब्रांड और माल का नया अवतार नहीं गढ़ा जा सकता. अब सवाल यह है कि क्या इसकी जरूरत है भी? क्या इसे इतिहास में विलीन नहीं हो जाना चाहिए, जिस दिशा में वह हाल में बढ़ती रही है. और क्या भाजपा विरोधी राजनीतिक ‘स्पेस’ को ज्यादा सक्षम उत्तराधिकारियों के लिए नहीं छोड़ देना चाहिए?

पार्टी के ज़हीन लोग जब उदयपुर में चिंतन में लगे हैं तब ऐसे तर्क कड़वे लग सकते हैं. लेकिन जब तक आप चुनौती की गंभीरता को कबूल नहीं करेंगे तब तक आप गंभीर आत्म विश्लेषण कैसे करेंगे? आप ट्वीटर पर अपनी जीत के, अपराजेयता और अपरिहार्यता के दावे हमेशा नहीं करते रह सकते.

यह हमें तीसरे और चौथे सवालों के सामने ला खड़ा करता है. इसमें शक नहीं कि जरूरत हो या न हो, कारों में अखिल भारतीय दबदबे वाला एक ब्रांड होगा ही. यह संयोग है कि आज यह ब्रांड मारुति है, लेकिन कल यह हुंडई, परसों टोयोटा, महिंद्रा या टाटा इत्यादि हो सकते हैं. हर तरह की कार में एक प्रमुख मॉडल होगा, लेकिन उस स्थान के लिए होड़ जारी रहेगी. जो निरंतर बदलता रहेगा और नयापन लाता रहेगा वह मॉडल बचा रहेगा. लेकिन एंबेसडर की तरह जिसका नाम ही पुराना पड़ जाने का एहसास दिलाता हो उसे नया अवतार देने की कोई संभावना ही नहीं बनती.

कांग्रेस के लिए आगे का रास्ता वही है जो एंबेसडर के निर्माताओं के सामने रहा होगा. बाज़ार को ‘नया, बेहतर, और परिवर्तित’ मॉडल देकर नहीं बल्कि एकदम नया ब्रांड उतारकर चकित कर दीजिए. जो ब्रांड इतना टूट चुका हो उसे नया स्वरूप नहीं दिया जा सकता. आपको नया ब्रांड ही बनाना पड़ेगा. अगर आप ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा चौथा सवाल आपको परेशान करेगा. भारतीय लोकतंत्र में आज भाजपा को चुनौती देने के लिए एक मजबूत अखिल भारतीय ताकत की जरूरत है, ताकि उसे तुरंत न भी हटाया जा सके तो हमारी राजनीति में कुछ संतुलन तो बना रहे. लेकिन 1990 के दशक वाली एंबेसडर की तरह वह ताकत अब कांग्रेस नहीं हो सकती.

यह प्रक्रिया तीन दशक से चल रही है. हिंदी पट्टी में एक के बाद एक राज्य में जाति आधारित दलों ने जिस तरह से ‘सेकुलर’ और वंचित तबकों के वोटों पर कब्जा किया है उसके कारण कांग्रेस अपने वोट दृढ़ संकल्प वाले नये नेताओं के हाथों गंवा चुकी है. इन नये नेताओं में अधिकतर तो उसके ही बागी रहे हैं. चाहे वह ममता हों या जगन, या हिमंत. और अब उसके बाकी बचे वोटों पर ‘आप’ तेजी से कब्जा कर रही है.


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पार्टी जिस तरह अपने शीर्ष नेतृत्व को नहीं बदल सकती उसी तरह अपना ब्रांड नाम नहीं बदल सकती. पार्टी ने ठोक-पीट करने से लेकर अदल-बदल, पद परिवर्तन, गठबंधन, सामाजिक या आर्थिक मसलों पर सैद्धांतिक जड़ों की ओर लौटने तक तमाम उपाय आजमाए मगर वे विफल रहे और गिरावट जारी रही.

तब आखिर भविष्य क्या है? पार्टी उदयपुर में चिंतन करने पर समय क्यों जाया करे? तो क्या भारत की सबसे पुरानी पार्टी खुद को विघटित कर दे? जाहिर है, ऐसी सलाह कोई नहीं देगा, और न ऐसी ख़्वाहिश करेगा. मैं तो निश्चित ही ऐसा नहीं करूंगा. विपक्ष-मुक्त भारत एक आपदा होगी. और कांग्रेस-मुक्त भारत उस दिशा में तीन चौथाई रास्ता तय करवा देगा.
तभी ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक और राजनीतिक अखाड़े के भगवा खेमे के एक प्रमुख चिंतक शेषाद्रि चारी तक चाहते हैं कि कांग्रेस बनी रहे और मजबूत हो. उसके लिए उनका नुस्खा यह है कि उसमें विभाजन हो.

विभाजन कांग्रेस के लिए कोई नयी बात नहीं है, खासकर 1960 के दशक के मध्य से. समय-समय पर इसमें से कई गुट अलग होते रहे हैं— कांग्रेस-ओ, जे, एस, आर, एनसीपी, सीएफडी… और यह सुनकर हम सोच में पड़ गए होंगे कि अंग्रेजी वर्णमाला में अक्षर की कमी न पड़ जाए. अब सवाल यह है कि अगर कांग्रेस आज टूटती है तो किसके पल्ले क्या पड़ेगा और कौन क्या छोड़ जाएगा?

पिछले एक दशक में गांधी परिवार कई स्थापित नेताओं को गंवा चुका है. इसे धीमी गति वाला विभाजन कहा जा सकता है. उसका वजूद बचा रहना, उसका नया अवतार बनना, या उसका पुनरुत्थान संभावना से परे है. केवल एक ही रास्ता है— कुछ नया बनाया जाए. वह शानदार अतीत की छाया न हो, बल्कि भविष्य की ओर देखती एकदम ब्रांड न्यू प्रोडक्ट हो. नेहरू, इंदिरा, और राजीव को लेकर आग्रहों को कम कीजिए. अभी भी आपका समर्थन करने वाले करीब 20 प्रतिशत मतदाताओं से बाहर का कोई मतदाता आपको आपके अतीत के नाम पर वोट नहीं देने वाला है.

एंबेसडर कार को आप चाहे जितना संवार दीजिए, उसे वापस नहीं ला सकते. पूरी तरह से नयी चीज बनाना ही आपको एक बार फिर मौका दे सकता है. लेकिन यह काम तेजी से कीजिए क्योंकि आप जिस द्वीप पर बैठे हैं उसे चारों तरफ से उठती लहरें तेजी से सिमटा रही हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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