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Saturday, 22 March, 2025
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टएक प्रधानमंत्री की 19 महीनों की विरासत, दूसरे की इमरजेंसी से ज्यादा प्रभावशाली साबित हो रही है

एक प्रधानमंत्री की 19 महीनों की विरासत, दूसरे की इमरजेंसी से ज्यादा प्रभावशाली साबित हो रही है

शास्त्री की विरासत पर ताशकंत में हुए शांति समझौते, और उनके उस जानलेवा दौरे का साया अनुचित रूप से हावी हो जाता है, जबकि ‘हरित क्रांति’ और प्रतिभाशाली वैज्ञानिक डॉ. स्वामीनाथन की खोज उनकी यादगार विरासतों में शामिल हैं.

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उन्नीस महीनों के दो उथलपुथल भरे कालखंड ऐसे रहे हैं जिन्होंने तीन पीढ़ियों के हमारे अतीत को परिभाषित किया, हमारे वर्तमान को आकार दिया, और वे हमारे भविष्य को अपने परस्पर विरोधी तरीकों से प्रभावित करते रहेंगे. इनमें से एक कालखंड कौन-सा था यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है: 25 जून 1975 से 18 जनवरी 1977 का इमरजेंसी का कालखंड. संयोग से यह कॉलम 21 मार्च को लिखा जा रहा है, जिस तारीख को 48 साल पहले इमरजेंसी को आधिकारिक तौर पर खत्म किया गया था.

ऐतिहासिक 19 महीने के एक कालखंड का जिक्र करने के बाद जरा अनुमान लगाएं कि ऐसा दूसरा दौर कौन-सा था. इसमें मैं आपकी थोड़ी मदद कर देता हूं. हमारे प्रधानमंत्रियों के कार्यकालों पर नजर डालिए— नहीं, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी, वी.पी. सिंह, एच.डी. देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल, चरण सिंह में से किसी के दौर पर नहीं.

अब चूंकि मैंने पहेली को आसान कर दिया है, तो मैं सुझाव दूंगा कि आईएएस से लेखक बने संजीव चोपड़ा ने लाल बहादुर शास्त्री की जो जीवनी लिखी है उसे पढ़ डालिए. ‘दि ग्रेट कंसीलिएटर: लाल बहादुर शास्त्री एंड दि ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ इंडिया’ नाम की यह जीवनी हाल में ही प्रकाशित हुई है. पिछले मंगलवार को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इसके विमोचन समारोह में वक्ताओं के साथ बैठने का मुझे भी गौरव प्राप्त हुआ.

नेहरू की मृत्यु के बाद 9 जून 1964 से लेकर 11 जनवरी 1966 तक ताशकंत में अपनी दुखद मृत्यु तक शास्त्री पूरे 19 महीने तक प्रधानमंत्री रहे. आप सवाल कर सकते हैं कि मैं उनके इन 19 महीनों को भारत के राजनीतिक विकास के लिए इमरजेंसी के 19 महीनों जैसा ही मगर उलटे रूप में निर्णायक क्यों मानता हूं.

उन 19 महीनों को याद कीजिए जब भारत को एक युद्ध (सितंबर 1965) लड़ना पड़ा, स्थानीय स्तर पर टैंकों से टक्कर (कच्छ, अप्रैल-जुलाई 1965) लेनी पड़ी, खाद्य सामग्री का घोर संकट झेलना पड़ा, कठिन राजनीतिक परिवर्तन से गुजरना पड़ा, और हमारे इतिहास के इतने छोटे किसी और दौर में इतने ज्यादा संस्थानों का निर्माण कभी नहीं हुआ जितना इन 19 महीनों में हुआ.

शास्त्री के 19 महीने के कार्यकाल की सबसे प्रमुख बात बेशक 22 दिनों का युद्ध था जिसे उन्होंने भारी प्रतिकूलताओं के बीच लड़ा और जिसमें सैद्धांतिक जीत हासिल की, हालांकि सैन्य इतिहास लिखने वाले इसे अक्सर गतिरोध कहते हैं. लेकिन हर मोर्चे पर बेहतर हथियारों और तीन गुना ज्यादा हौसले से लैस ज्यादा ताकतवर दुश्मन से लड़कर गतिरोध हासिल करना जीत से कम नहीं होता.

इसके अलावा, उस युद्ध में एक ही पक्ष, पाकिस्तान ही एक मकसद से लड़ रहा था. उसे कश्मीर पर कब्जा करने का बड़ा मौका नजर आ रहा था लेकिन वह परास्त हुआ. वह अंतिम मौका था जब वह कश्मीर को जीतने के लिए सैन्य और कूटनीतिक दृष्टियों से हमारे मुक़ाबले ज्यादा मजबूत स्थिति में था. शास्त्री के संकल्प ने उसके उस सपने को हमेशा के लिए दफन कर दिया.

लेकिन शास्त्री की विरासत पर ताशकंत में हुए शांति समझौते, और उनके उस जानलेवा दौरे का साया अनुचित रूप से हावी हो जाता है. उन्होंने जो युद्ध लड़ा वही उनका सच्चा योगदान है. फील्ड मार्शल अय्यूब खान और उनके छुटभैये ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को 1962 की लड़ाई में शिकस्त से हताश और उथल-पुथल से गुजर रही भारतीय सेना काफी कमजोर नजर आई. 1963 में श्रीनगर में हुए हजरतबल कांड से भी उनका हौसला बढ़ा. नेहरू के बाद शास्त्री को सत्ता सौंपे जाने के बीच के दौर को उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता का दौर मान लिया, और भारत की सैन्य तैयारी तथा हौसले का जायजा लेने के लिए उन्होंने कच्छ के रण में हमले किए.

चोपड़ा ने दस्तावेजों के हवाले से लिखा है कि पाकिस्तान ने कच्छ के रण में पैटन टैंकों का इस्तेमाल करके अपने अमेरिकी आकाओं को टटोला. उन दोनों के बीच यही समझौता हुआ था कि इन टैंकों का भारत के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जाएगा. लेकिन अमेरिका ने जब महज कुछ उपदेश झाड़ने के सिवा कुछ नहीं किया तो पाकिस्तान को लगा कि वह कश्मीर में कोई बड़ी चाल चल सकता है.

नतीजतन, दो महीने बाद ही ‘ऑपरेशान जिब्राल्टर’ किया गया और 10,000 से ज्यादा हथियारबंद घुसपैठिए कश्मीर में भेज दिए गए. जिब्राल्टर नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इस्लामी हमलावरों ने यूरोप में सबसे पहले इसी जगह पर अपना अड्डा बनाया था. घुसपैठियों के हरेक गिरोह को किसी इस्लामी योद्धा का नाम दिया गया— तारीक़, कासिम, खालिद, सलाहुद्दीन, और बेशक गजनवी भी. योजना यह थी कि ये  गिरोह भारतीय सेना को घाटी में जब ध्वस्त कर देंगे तब ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ के तहत निर्णायक हमला करने के लिए जम्मू के अखनूर सेक्टर में टैंकों से भारी हमला किया जाएगा और, अय्यूब के अनुसार, तब वे दुश्मन का गला दबा देते. अय्यूब ने यह भी बड़बोला दावा किया था कि “सबको मालूम है कि हिंदुओं का हौसला एक-दो तगड़े हमले के बाद पस्त हो जाता है”.

लेकिन उन्होंने मुक़ाबले में खड़े नेता के हौसले का अंदाजा लगाने में भूल कर दी. प्रायः फौजी जनरल, खासकर पाकिस्तानी जनरल आम जनता को तुच्छ मानते हैं. अय्यूब और उनके साथियों का दिमाग जिस तरह काम करता था, उसके कारण शास्त्री के कद-काठी और उनकी शालीनता के कारण उन सबका यह मुगालता और मजबूत ही हुआ. लेकिन पांच फुट दो इंच वाली उस काया में अविश्वसनीय रूप से मजबूत संकल्प वाला देशभक्त मौजूद था.

घुसपैठियों से कामयाबी के साथ मुक़ाबला जारी था, और ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ के तहत पाकिस्तानी टैंक अखनूर सेक्टर में हमला करने को तैयार थे, तभी शास्त्री ने 3 सितंबर को अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और पाकिस्तान को जवाब देने की व्यापक योजना बना ली गई. तय किया गया कि पाकिस्तान की आक्रमण शक्ति को ध्वस्त किया जाए और सिर्फ जरूरी इलाके पर कब्जा किया जाए जिसे युद्ध जीत लेने के बाद उसे लौटा दिया जाए.

उस युद्ध के नतीजे को लेकर भारत में काफी आम सहमति है. लेकिन उरी सेक्टर में हाजी पीर दर्रे को वापस लौटाने को लेकर नाराजगी भी है.

वैसे, संयुक्त राष्ट्र युद्धविराम प्रस्ताव में मांग की गई थी कि दोनों पक्ष 5 अगस्त वाली युद्धविराम रेखा से पीछे चले जाएं. इसका अर्थ यह था कि पाकिस्तान छंब से भी हट जाए. उसने कश्मीर पर कब्जा करने का अंतिम मौका तो गंवा दिया लेकिन सामरिक तथा जमीनी तस्वीर उतनी एकतरफा नहीं थी जितनी भारतीय लोकधारणा में मानी जाती है. इसी के कारण हाजी पीर समझौता हुआ, और शायद उतनी कम उम्र में शास्त्री की मृत्यु हुई.

1966 में हुई कानाफूसियों से लेकर आज के व्हाट्सएप संदेशों तक, शास्त्री की मौत अनसुलझी पहेलियों में शामिल है और उसको लेकर तमाम तरह की साज़िशों के किस्से प्रचलित हैं. चोपड़ा की किताब दो बातें स्पष्ट करती है.

एक तो यह कि शास्त्री को दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था. एक बार 1959 में और फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से कुछ दिन पहले, 5 जून 1964 को. वह स्टेटिन, स्टेंट, बाइपास सर्जरी से पहले का दौर था. तब दिल के तीसरे दौरे के बाद बच पाना मुश्किल था.

दूसरी बात यह कि जिस दिन ताशकंत समझौते पर दस्तखत हुए थे उस दिन शास्त्री शुरू में काफी खुश थे. लेकिन जब उन्हें देश में हो रही प्रतिक्रियाओं, अखबारों में हाजी पीर के ‘सरेंडर’ को उछाले जाने का पता चला और आखिरकार उन्होंने जब अपनी पत्नी और बेटी से बात की तथा उन्हें नाखुश पाया तो उनका मन टूट गया. और चंद घंटों में ही वे चल बसे.

यह एक विडंबना है, और दुखद तथा अनुचित भी है कि जब भी हम शास्त्री की विरासत पर बात करते हैं तब हम उसी युद्ध तथा शांति में उलझकर रह जाते हैं. या हमें ‘जय जवान’ की कहानी याद आने लगती है, जबकि ‘जय किसान’ के मोर्चे पर भी उनका योगदान कहीं ज्यादा स्थायी महत्व का है. उन्होंने ‘हरित क्रांति’ का सूत्रपात किया, खाद्य मंत्री के रूप में सी. सुब्रह्मण्यम को खोजा, प्रतिभाशाली वैज्ञानिक डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन को आगे बढ़ाया, और भारत में पहले केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालयों की स्थापना की.

इससे भी जरूरी बात यह है कि उन्होंने अमेरिका के साथ सहयोग के लिए हाथ बढ़ाया. शास्त्री की राजनीति के जिन पहलुओं की कम चर्चा हुई है उनमें एक यह भी है कि वे नेहरूवादी वामपंथी झुकाव वाले नेता नहीं थे. जैसा कि चोपड़ा ने लिखा है, आप उन्हें थोड़े दक्षिणपंथी झुकाव वाले मध्यमार्गी नेता कह सकते हैं. प्रमाण के लिए आप इन बातों को याद कर सकते हैं कि जब नेहरू ने पुरुषोत्तम दास टंडन को काँग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने से रोक दिया था तब वे कितने निराश हुए थे, या यह कि उन्होंने ‘सर्वेंट्स ऑफ द पीपुल सोसाइटी’ और लाला लाजपत राय की शागिर्दी में राजनीतिक दीक्षा पाई थी. इसके अलावा, उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर, पश्चिम की ओर झुकाव रखने वाली दक्षिणपंथी स्वतंत्र पार्टी ने उनका समर्थन किया था. आप उनके उस जोरदार भाषण को भी याद कर सकते हैं जो उन्होंने कम्युनिस्ट नेता हिरेन मुखर्जी के इस आरोप के जवाब में दिया था कि वे नेहरू के रास्ते से अलग जा रहे हैं. उन्होंने कहा था कि रास्ते से अलग होने की शिकायत कम्युनिस्ट सिस्टम में की जाती है, लोकतंत्र में तो परिवर्तन की बात की जाती है.

मैं अक्सर जिस मजबूत अमेरिकी सोच का जिक्र करता हूं वह यही है कि आप जो एकमात्र विरासत छोड़ जाते हैं वह और कुछ नहीं बल्कि आवाम है. शास्त्री के मामले में मैं इसे इस तरह कहना चाहूंगा: कोई महान सार्वजनिक हस्ती अपने पीछे अगर कोई बड़ी विरासत छोड़ जाना चाहती है तो वह वे संस्थाएं ही हो सकती हैं जिनका उसने निर्माण किया. आगे जब कभी आपको पीएमओ, सीबीआई, सीवीसी, कृषि कीमत आयोग (एपीसी), या बीएसएफ जैसे शब्द सुनाई दें तब शास्त्री को याद कीजिएगा. ये सब और वह युद्ध तथा शांति ही उनके 19 महीनों को हमारे वर्तमान तथा भविष्य के लिए इमरजेंसी के मुक़ाबले कहीं ज्यादा परिणामकारी बनाते हैं.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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