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शनिवार, 5 जुलाई, 2025
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कच्छ से सीख, सिंदूर से संकेत: आसिम मुनीर के लिए भारत को 6 महीने, 2 और 5 साल की ठोस रणनीति की ज़रूरत

कच्छ पाकिस्तान के साथ हमारी सबसे भुला दी गई जंग है. उससे सीखने और अगले छह महीने, दो साल और पांच साल की योजना बनाने की ज़रूरत है.

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भारत औपचारिक रूप से कहता रहा है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ अभी पूरा नहीं हुआ है और दोनों देश इसे एक तरह के ट्रेलर के रूप में ही देख रहे है या इसे अगली लड़ाई की पूर्व तैयारी मानते हैं, कि मसले को अभी किसी अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंचाया गया है.

इस उपमहादेश का रिकॉर्ड तो यही कहता है कि यह सबसे अच्छी स्थिति नहीं है. 9 अप्रैल 1965 को कच्छ में हुई लड़ाई इसके एक उदाहरण के रूप में पहले से मौजूद है. उसमें दोनों पक्ष ने युद्धविराम कर दिया था, लेकिन इसके पांच महीने बाद ही पूर्ण युद्ध छिड़ गया था.

पाकिस्तान ने कच्छ से गलत सबक लेते हुए युद्ध शुरू कर दिया था. उम्मीद करें कि इसके बाद बीते छह दशकों में उसे सद्बुद्धि आ गई होगी, लेकिन उम्मीद कोई योजना या रणनीति नहीं बनती.

पाकिस्तान हार कबूल कर ले, यह बड़ी मुश्किल से होता है. 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति या कारगिल में आत्मसमर्पण इसके उदाहरण हैं. निर्विवाद रूप से निर्णायक पराजय से कम जैसी कोई स्थिति बनी तो आप शर्त लगा लीजिए, वो इसे अपनी जीत ही घोषित कर देंगे और एक बार जब वह इस मूड में आ जाते हैं कि ‘देखो, हमने यह जंग जीत ली’, तब आप उम्मीद कर सकते हैं कि वह जल्दी ही फिर वापस आएंगे.

अब दोनों पक्ष यह विचार कर रहा है कि उसे क्या सबक मिले. जब मैं यह कॉलम लिखने बैठा, उससे कुछ घंटे पहले सेना के तीन में से एक डिप्टी चीफ, ले.जनरल राहुल सिंह ने इस संघर्ष से मिले सबक और भविष्य के लिए संकेतों के बारे में चर्चा की. यह अच्छा चिंतन है. कम-से-कम एक पक्ष (भारत) तो जीत का नासमझी भरा जश्न नहीं मना रहा, बल्कि आगे के बारे में सोच रहा है. कच्छ वाली जंग के बाद भी यही हुआ था.

कच्छ से मिले सबक पर भारत ने काफी समझदारी और यथार्थपरक नज़रिए से गौर किया था और इसका नतीजा यह निकला कि उस लड़ाई के बाद हुए युद्ध में रणनीतिक जीत हासिल हुई. भारत के लिए वह रणनीतिक जीत इसलिए थी कि पाकिस्तान ने ही एक लक्ष्य (कश्मीर पर कब्ज़े) के लिए युद्ध शुरू किया था. वह लक्ष्य उसे नहीं हासिल करने दिया गया और उसे अपना बचाव करने के लिए पूरी सीमा पर पीछे लौटने के लिए मजबूर कर दिया गया था. आक्रमणकारी और युद्ध की पहल करने वाले पाकिस्तान के लिए गतिरोध भारत की जीत थी, लेकिन अंत में फर्क कच्छ की लड़ाई से दोनों पक्षों द्वारा सीखे गए सबक के कारण पड़ा.


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भारत तब यह तैयारी कर रहा था कि पाकिस्तान ने अगर कश्मीर पर दबाव बढ़ाया तो उसके लाहौर और सियालकोट पर जवाबी कार्रवाई कैसे की जाएगी. यह रिकॉर्ड में दर्ज है कि कच्छ में युद्धविराम के बाद गर्मियों के आखिरी दिनों में तत्कालीन रक्षा मंत्री वाई.बी. चह्वाण, गृह मंत्री गुलज़ारीलाल नंदा ने जालंधर में XI कोर के मुख्यालय में सेना के वरिष्ठ कमांडरों के साथ बैठक की थी और ज़रूरत पड़ने पर पाकिस्तान के पंजाब इलाके में नए मोर्चे खोलने की योजना पर विचार किया था. ‘ऑपरेशन रिडल’ नामक इस योजना पर महीनों से विचार चल रहा था.

कच्छ से मिले सबक के बाद भारत ने यह तैयारी की थी. इस प्रकरण के बारे में सबसे सटीक जानकारी हासिल करने के लिए मैं उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांडर रहे ले.जनरल हरबख्श सिंह की किताब ‘वार डिस्पैचेज़’ पढ़ने की सलाह दूंगा. उस समय वेस्टर्न आर्मी कमांड में जम्मू-कश्मीर भी शामिल था. कच्छ की लड़ाई को हम प्रायः भूल ही जाते हैं. हालांकि, यह 87 घंटे के ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से ज्यादा लंबी (9 अप्रैल से 1 जुलाई तक) चली थी. दोनों लड़ाइयों से मिले सबकों में कुछ समानताएं देखी जा सकती हैं.

पाकिस्तान ने जो ‘सबक’ सीखा वह उसके सत्ता-तंत्र की सबसे बड़ी गलतफहमी साबित हुई. उसने नतीजा निकाला कि लाल बहादुर शास्त्री ने युद्धविराम और अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के लिए सहमति देकर अपनी हार कबूल कर ली है और इसी सोच ने उसे पहले ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ (कश्मीर में हथियारबंद गिरोहों की भारी घुसपैठ) और इसके बाद ‘ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम’ (अखनूर पर कब्ज़ा करके कश्मीर को बाकी हिस्सों से काट देने के लिए भारी दबाव) शुरू करने को उकसाया.

अमन-चैन की उम्मीद करते हुए हमें इतिहास को भी ध्यान में रखना चाहिए. मैं कई बार कह चुका हूं कि पाकिस्तानी फौज का दिमाग उसके शरीर के किसी निचले हिस्से में फंसा है. कहां फंसा है, मैं यह खुलासा करने से परहेज ही करूंगा. शांति और प्रगति पर ऊंचा दांव लगाने वाले देश को हमेशा सामरिक नज़रिए से सोचने वाले अपने प्रतिद्वंद्वी द्वारा गलतफहमियों में की गई कार्रवाई के लिए तैयार रहना चाहिए.

इस कॉलम में 31 मई 2025 को हमने लिखा था कि आसिम मुनीर के पास वक्त थोड़ा है. उनके मुल्क पर पाकिस्तानी फौज का शिकंजा तो कसा रहेगा मगर अपनी फौज पर मुनीर की पकड़ हमेशा कायम नहीं रहने वाली है. कुछ समय बाद ही, शायद चंद महीनों के अंदर ही उनके वर्दीधारी साथियों और सियासी नेताओं की ओर से उनकी असंवैधानिक और अ-संस्थासम्मत सत्ता को चुनौती मिलने लगेगी.

अ-संस्थासम्मत सत्ता का क्या अर्थ है? अतीत में, पाकिस्तान के फौजी तानाशाह एक संस्था के तौर पर फौज के औपचारिक कुर्सी-हड़प के साथ सत्ता हथियाते रहे, लेकिन मुनीर ने पिछले दरवाजे से सत्ता हथिया करके न केवल अपनी वर्दी पर एक अतिरिक्त ‘स्टार’ धारण कर लिया बल्कि एक व्यक्ति के तौर पर राजनीतिक सत्ता पर भी कब्ज़ा कर लिया है. यह सब इतना सुखद है कि बहुत टिकाऊ नहीं साबित हो सकता. यह सबसे पहले तो मुनीर को ही मालूम हो गया होगा.

इसलिए आप निश्चित मानिए कि अपनी बेसब्री में वे कोई नया दुस्साहस कर सकते हैं. वे सोच-विचार करेंगे, ‘सिंदूर’ के मामले से उसी तरह गलत सबक लेंगे जिस तरह उनके फौजी पूर्ववर्तियों ने कच्छ से यह गलत सबक लिया था कि एक और टक्कर लेना बेहतर रहेगा. भारत स्थिरता पर दांव लगाता है, उसकी आर्थिक वृद्धि इतनी ऊंची है कि वह किसी लंबी जंग का जोखिम नहीं उठा सकता. बड़ी ताकतें इसमें दखल देंगी. मुनीर सोच सकते हैं कि इस तरह की छोटी-छोटी लड़ाइयां भारत का संतुलन बिगाड़ देंगी, कश्मीर घाटी में अस्थिरता पैदा करेंगी, लेकिन खुद मुनीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि उन्हें अपनी जनता का समर्थन मिलता रहेगा.

वे सोच सकते हैं कि उन्होंने भारत को उलझा दिया है. कश्मीर में आतंकी हमला, भारत की ओर से जवाबी फौजी कार्रवाई और इसके बाद इस सबको लेकर कुछ दिनों तक कोलाहल! यह सब इस क्षेत्र का ‘अंतर्राष्ट्रीयकरण’ भी कर देगा. वे यह भी सोच सकते हैं कि पहलगाम में उन्होंने जो पहल की वह इस उपमहादेश के मसले के बारे में दुनिया की समझ को इस दिशा में मोड़ने में सफल रहा कि यहां मसला आतंकवाद का नहीं बल्कि परमाणु युद्ध का है. इसलिए उन्हें कुछ करने का बहाना मिल जाता है. हम आपको पहले ही बता चुके हैं कि उन लोगों का दिमाग उनके शरीर के किस हिस्से में होता है.

हम यह नहीं बता सकते कि अपनी गलतफहमी में वे कार्रवाई कब करेंगे, लेकिन यह लगभग निश्चित है. इसलिए भारत को समयबद्ध योजना बनाने की ज़रूरत है. छह महीने के हिसाब से या दो साल के हिसाब से, जब हमारे आम चुनाव नज़दीक आएंगे और पांच साल के हिसाब से भी. हमें पांच साल की समय सीमा तय करके चलना चाहिए, जब हम अपना इतना खौफ पैदा करने की ताकत हासिल कर लें कि ये मुनीर या अगला कोई मुनीर इस तरह की गलती करने के बारे में सोच भी न सके.

छह महीने में भारत को मिसाइलों, गोला-बारूद, सेंसरों, आदि की कमियों को यथाशीघ्र दूर करने और ऐसे अहम उपकरणों का भंडार बनाने की कोशिश करनी चाहिए जो इस बार कारगर रहे. ‘ब्रह्मो’ और ‘स्केल्प’ मिसाइलें, लंबी दूरी वाले ‘स्मार्ट’ गोले (एक्सकैलिबर श्रेणी के) बहुस्तरीय एयर डिफेंस को और गहराई प्रदान करते हैं. नौसेना की भी निशाना लगाने की क्षमता में वृद्धि की जाए और युद्ध के कचरों का रिजर्व तैयार किया जाए. ऐसे अधिकतर काम देश में ही युद्धस्तर पर किए जा सकते हैं. ‘जरूरत को मंजूरी’ (एओएन) आज और परीक्षण छह महीने बाद वाली व्यवस्था बंद हो. याद रहे, आपने ही कहा है कि ऑपरेशन सिंदूर अभी पूरा नहीं हुआ है.

अगले दो साल में भारत के पास कम-से-कम दो (ज्यादा भी नामुमकिन नहीं है) ‘बियोंड विजुअल रेंज (बीवीआर)’ क्षमता वाले लड़ाकू विमान तो होने ही चाहिए. लंबी दूरी वाली तोपों को सुधारा जाए और उस स्तर का बनाया जाए कि वे खुद ही एक विनाशक खौफ बन जाएं. इनमें से अधिकतर का उत्पादन यहीं हो सकता है और स्मार्ट गोला-बारूद विदेश से खरीदे जा सकते हैं. यह ‘क्वालिटी’ के साथ ‘क्वांटिटी’ की पूर्ति करेगा.

अगले पांच साल में से तीन साल के बीच रक्षा बजट को जीडीपी के 1.9 प्रतिशत के बराबर से शुरू करके 2.5 प्रतिशत तक पहुंचाया जा सकता है और इसके बाद दो साल तक इस स्तर पर रखा जा सकता है. इससे दबाव बढ़ेगा, लेकिन भारत यह करने में सक्षम है. हमारा राष्ट्रीय संकल्प यह हो कि हमें पांच साल मिलें तो भारत इतना मजबूत हो जाए कि पाकिस्तान से जंग के दौरान चंद घंटों के लिए भी वह उससे दबे नहीं, गोला-बारूद में कमजोर न पड़े और खुफिया निगरानी में पीछे न हो — चीनियों के बावजूद.

कहने की ज़रूरत नहीं कि आर्थिक वृद्धि, कूटनीति, और मैत्री संधि भी साथ-साथ चलती रहे, लेकिन अपनी सुरक्षा पुख्ता किए बिना आप इनमें से एक भी काम नहीं कर सकते. यहां मैं भारत को इज़रायल के राजदूत रिउवेन अज़ार की उस सलाह को दोहराना चाहूंगा, जो उन्होंने पिछले सोमवार को ‘दिप्रिंट ओटीसी’ से बातचीत के दौरान दी थी. उन्होंने कहा था कि अपनी सुरक्षा को मजबूत बनाइए और अपनी अर्थव्यवस्था को मुक्त कीजिए क्योंकि निवेशक आपके यहां तब आएंगे जब उन्हें भरोसा होगा कि आपका डिफेंस मजबूत है.

यह मान लेना एक भारी अक्षम्य ऐतिहासिक भूल होगी कि यह रणनीतिक मोर्चे पर सुस्ताने का वक्त है. दरअसल, यह दौड़ पड़ने का वक्त है. ऑपरेशन सिंदूर की सफलता का मजा तो लीजिए मगर इससे भी अहम यह है कि इससे भविष्य के लिए प्रोत्साहन हासिल कीजिए.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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