इस सप्ताह के लिए एक पेचीदा सवाल पेश है— क्या भारत में पुलिस राज कायम हो गया है? इसके तीन फौरी जवाब मिल सकते हैं— ऐसा बिलकुल नहीं है; अफसोस की यह सच है; अभी तो यह कायम नहीं हुआ है. आप चाहें तो इसके साथ ‘क्यों’, ‘कैसे’ और ‘कब’ जैसे प्रश्नवाचक शब्द जोड़ सकते हैं.
ऑक्सफोर्ड शब्दकोश ने पुलिस राज की सीधी परिभाषा यह दी है— यह एक ऐसा निरंकुश सत्तातंत्र है जिसकी लगाम सियासी पुलिस के हाथ में होती है और वह नागरिकों की गतिविधियों पर खुफिया नज़र रखती है. अभी हम उस स्थिति में नहीं पहुंचे हैं. लेकिन ऐसे मसले जरूर उभर रहे हैं जिन्हें नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.
भारत में अभी पुलिस राज भले कायम नहीं हुआ हो, लेकिन वह ऐसा मुल्क बनता जा रहा है जहां पुलिस अपने आप में कानून बन गई है. पुलिस-राजनीति का साठगांठ अब कार्यपालिका (आईएएस) और न्यायपालिका पर भी हावी हो रही है. इस ओर संकेत करते कुछ उदाहरण ये हैं-
– तबरेज अंसारी मामला : झारखंड में इस 24 वर्षीय युवक को एक भीड़ ने साइकिल चोरी के शक में पीट-पीट कर मार डाला. पुलिस ने इसे मारपीट का मामला बना दिया और कह दिया कि वह पिटाई के कारण नहीं मरा (या उसकी हत्या नहीं की गई) बल्कि वह दिल का दौरा पड़ने से मरा. इस घोटाले को कुछ सजग डॉक्टरों ने पकड़ा.
– राजस्थान में गोहत्या के शक में भीड़ द्वारा पीट कर मारे गए पहलू खान के मामले के सभी आरोपी बरी कर दिए गए जबकि वे सब वीडियो में अपराध करते नजर आते हैं. पुलिस ने न तो कभी पूरे सबूतों को और न कभी उस कैमरे को गवाही में पेश किया जिससे वीडियो बनाया गया था. राज्य सरकार ने पूरे मामले की दोबारा जांच के आदेश दिए हैं. जब पुलिस ने जांच की थी और वादी पक्ष का मामला तय किया था तब भाजपा सत्ता में थी.
– उन्नाव के भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने अपने खिलाफ एक नाबालिग लड़की के बलात्कार के आरोप को बेशर्मी से इनकार कर दिया. उसे न्याय दिलाने की जगह पुलिस ने उसके पिता को ही पकड़ लिया, जो उसकी गिरफ्त में किसी तरह ‘मर’ गया. पुलिस ने उलटे उस पर अवैध हथियार रखने का आरोप मढ़ दिया. अब, लड़की और उसके वकील को जान से मारने की संदिग्ध कोशिश के बाद मचे शोर-शराबे के कारण सीबीआई ने तीन पुलिस वालों पर इस मामले में शामिल होने का आरोप लगाया है.
– दिल्ली पुलिस ने महज एक आदमी की शिकायत पर कश्मीर की सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता शेहला रशीद के खिलाफ देशद्रोह का मामला दायर कर दिया है, जबकि किसी पर देशद्रोह का मामला सरकार ही दायर कर सकती है. निजी शिकायत पर पुलिस अगर देशद्रोह का मामला दायर करती है तो यह कानून का मज़ाक बनाना ही है और नागरिक को भारी परेशानी और खर्चे में डालना है. यह नागरिक को बिना सुनवाई के महीनों जेल में बंद रखना भी हो सकता है, जैसा कि कन्हैया कुमार के साथ हुआ. संयोग से यह उस सप्ताह में हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के जज दीपक गुप्ता ने एक भाषण में कहा था कि सरकार, नौकरशाही या सेना की आलोचना देशद्रोह नहीं है.
ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं.
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यह सच है कि जब कोई गड़बड़ी होती है तब हर कोई पुलिस की ही लानत-मलामत करता है. प्रशासन के हमारे संगठनों में उसके काम को ही सबसे कृतघ्न काम माना जाता है. दशकों से राजनीतिक तबके ने वर्दी वाले माफिया के तौर पर इसका उपयोग— या दुरुपयोग— करने में महारत हासिल कर ली है. लेकिन क्या बात इतनी ही है? इसके लिए क्या पुलिस, उसका नेतृत्व, या प्रतिष्ठित आईपीएस भी दोषी नहीं हैं?
अगर किसी वरिष्ठ अफसर ने थोड़ी ईमानदारी बरतते हुए अपना दिमाग लगाया होता तो हम कल्पना नहीं कर सकते कि ये सारे मामले इस हश्र तक पहुंचते जिस तक आज पहुंचे हैं. यह सोचना एक अपराध ही है कि न्याय देना सिर्फ अदालत का काम है. कोई भी नागरिक, चाहे वह ऊंची पहुंच वाला ही क्यों न हो, वर्षों तक इसलिए तकलीफ झेलता है क्योंकि प्रक्रिया ही सज़ा बन जाती है. कई मामले ऐसे भी होते हैं जिनमें जज सबूत के अभाव में निराश होकर हाथ खड़े कर देते हैं.
हमारी जेलों में सजायाफ़्ता से ज्यादा विचाराधीन कैदी भरे हैं. कई कैदी बरी या रिहा होने से पहले कई साल की जेल काट चुके होते हैं. इसके लिए हम आदतन अदालतों और जजों को दोष देते हैं लेकिन हम कमरे में घुसकर बैठे हाथी यानी पुलिस की अनदेखी कर देते हैं, जो कि कायर, संवेदनशून्य, उग्र, अपने राजनीतिक आकाओं से मिलीभगत में लिप्त, अक्षम है और जिसे कानून एवं न्याय की हमारी व्यवस्था की साख को चोट पहुंचाने के लिए शायद ही कभी जवाबदेह ठहराया जाता है. बेशक कभी-कभार कुछ अपवाद जरूर सामने आया करते हैं.
भ्रष्टाचार से लेकर मॉब लिंचिंग के अहम या हाई-प्रोफाइल मामलों को इतने वर्षों से देखते हुए हमने शायद ही किसी आईपीएस अफसर को यह कहते सुना है कि नहीं बॉस यहां कोई ऐसा मामला नहीं बनता है कि एक बेकसूर आदमी को सिर्फ इसलिए तंग किया जाए क्योंकि आप उसे जबरन अपनी पार्टी में दाखिल करना चाहते हैं. न ही हमने किसी को यह कहते सुना है कि नहीं बॉस मेरे लिए यह कोई सम्मानजनक बात नहीं होगी कि मैं किसी जांच या मुकदमे को इस तरह मोड़ दूं जिससे आपके किसी चहेते का बचाव हो जाए.
दूसरी ओर, पिछले कई वर्षों से आईपीएस राजनीतिक आकाओं के प्रति सबसे ‘वफादार’ सेवा में तब्दील हो गई है. हिन्दी पट्टी में यह जुमला खूब चलता है कि पुलिस के हाथ में जाकर रस्सी भी सांप बन जाती है. हाल के कई मामलों, खासकर भाजपा-शासित राज्यों में मॉब लिंचिंग के मामलों में तो उसने उल्टे सांप को रस्सी में बदलने का करिश्मा कर दिखाया है. या भ्रष्टाचार के किसी मामले (टूजी घोटाला) में लाखों को अरबों में, अरबों को शून्य में (बेल्लारी बंधु), लिंचिंग को हार्ट अटैक में, एक बलात्कार पीड़ित के गरीब पिता को खूंखार अपराधी में, और किसी निजी शिकायत को देशद्रोह के एफआईआर में बदल डाला है. आका जिससे खुश हो जाएं!
पुलिस-नेता मिलीभगत कोई आज की बात नहीं है. पिछले एक दशक में इसका रूप नाटकीय तौर पर विकृत हुआ है. इसकी शुरुआत शायद अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और उसके कारण उभरे जनाक्रोश से हुई. हर कोई सत्ता में बैठे हर किसी को जेल में भेजना चाहने लगा. और अचानक लगने लगा कि इसका हल केवल पुलिस कर सकती है. जनलोकपाल बिल अपने मूल उद्दात्त रूप में एक संदेहास्पद पुलिस राज का एक चार्टर ही था. ऐक्टिविस्टों, मीडिया, और तो और सुप्रीम कोर्ट को भी यह पसंद आ गया.
सीबीआई इस देश में भ्रष्टाचार से लड़ने वाली वह सबसे बड़ा योद्धा बनने वाली थी, जिसका इंतज़ार पूरा देश कर रहा था. सुप्रीम कोर्ट ने इसे पिंजरे में कैद पंछी कहा और उसने इसे आज़ाद करने का फैसला किया, लेकिन केवल अपनी पसंद वाले मामलों के लिए. इसका सबसे दुखद और प्रतिकूल नतीजा यह था कि विशेष जांच दलों ने ‘कोर्ट की निगरानी वाली जांच का तिरस्कार’ शुरू कर दिया. हमने ‘तिरस्कार’ जैसे कड़े शब्द का प्रयोग जान बूझकर किया है क्योंकि इसी के साथ एक नई खोज यह की गई कि सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्टों को आम निर्देश देने शुरू कर दिए, यहां तक कि आरोपियों को जमानत देना भी बंद करा दिया.
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इसका भयानक परिणाम हुआ. इसने भ्रष्ट और कमजोर पुलिस को ज्यादा ताकत देकर और भ्रष्ट बना दिया. इसके बाद सीबीआई के आखिरी चार में से तीन निदेशक या तो रिटायर हो गए या भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की छाया में हटा दिए गए. भ्रष्टाचार के जिन दो मेगा मामलों के कारण अदालतों और जनमत ने पुलिस को इतनी ज्यादा ताकत दे दी, वे मामले ट्रायल कोर्ट में ही फिसड्डी साबित हुए. कई बेकसूर लोगों का, जिनमें ईमानदार अफसर भी थे, जीवन बर्बाद हो गया. उन्हें विचाराधीन कैदियों की तरह तिहाड़ जेल मे महीनों रहना पड़ा.
इस तरह पुलिस पावर का ‘स्वर्ण युग’ शुरू हो गया. यूपीए भी फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में अमित शाह (जो तब गुजरात के जूनियर गृह मंत्री थे) और उनके वफादार आईपीएस अफसरों को निशाना बनाने के लिए इसी सीबीआई का इस्तेमाल कर रहा था. हड़बड़ी इतनी थी कि इशरत जहां मुठभेड़ मामले में सीबीआई टीम ने यूपीए के निर्देश पर गुजरात में केंद्र के खुफिया ब्यूरो के प्रमुख तक को लपेटने की कोशिश की. याद रहे कि इस जांच में जुटा अफसर जबकि यूपीए सरकार के अंतिम साल में रिटायर होने वाला था तब उसे उसकी ‘सेवाओं’ के लिए एक केंद्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति बनाने की तैयारी थी. जब मीडिया में से किसी ने इसका भांडा फोड़ दिया तो मनमोहन सिंह सरकार ने कदम खींच लिये थे. तब तक सियासी हवा का रुख बदलने लगा था, जिसे उन्हीं कड़क सीबीआई अफसरों ने भांप लिया और तब उन मामलों को बिखरने में ज्यादा समय नहीं लगा. हमारी पुलिस रस्सी को सांप में बदल सकती है, तो उसी सांप को रस्सी भी बना सकती है, बशर्ते सियासी ‘हालात’ बदल जाएं.
हम पीछे मुड़कर देख सकते हैं कि पुलिस की पेशेगत नाकामी के पहले संकेत उस जैन हवाला मामले में उभरे थे जिसे पी.वी. नरसिंहराव ने अपने विरोधियों को नाकाम करने के लिए दायर किया था. तभी सीबीआई ने ‘लीक करके और चरित्र हनन करके मुकदमा’ चलाने का पाठ पढ़ा था. लालकृष्ण आडवाणी समेत कई उभरते राजनीतिक नेताओं के करिअर पर विराम लगा दिया गया था या बर्बाद कर दिया गया था. तब तक सीबीआई और राज्यों की पुलिस ने ‘लीक करने और चरित्र हनन करने’ की कला में महारत हासिल कर ली थी.
हम जानते हैं कि कई युवा और तेज-तर्रार आईपीएस अफसर आदर्शवाद से लबालब भरकर इस सेवा में आते हैं. लेकिन समय के साथ वे रास्ता भटक जाते हैं. सिंघम बनने की चाहत लेकर आने के बाद वे स्पेशल-26 के क्रूर नमूने जैसे बनकर रह जाते हैं.
नहीं, भारत में अभी पुलिस राज नहीं आया है. लेकिन भारतीय पुलिस, खासकर आईपीएस हमारी सबसे सियासी असर वाली सेवा बन गई है. आईपीएस की पूर्ववर्ती, आज़ादी के पहले की आईआईपी (इंडियन इंपीरियल पुलिस) के कई दिग्गजों से शुरू करके इस सेवा ने के.एफ. रुस्तमजी, अश्वनी कुमार, जूलियो रिबेरो, एम.के. नारायणन, के.पी.एस. गिल, प्रकाश सिंह, अजित डोवाल, एम.एन. सिंह सरीखे कई आइकन दिए हैं, जिन्होंने अपनी सेवा को एक नैतिक और प्रोफेशनल वजन प्रदान किया.
आज ऐसा कोई भी नज़र नहीं आता और अफसोस की बात है कि आईपीएस को आज ‘इंडियन पॉलिटिकल सर्विस’ कहा जाने लगा है.
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