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Thursday, 21 November, 2024
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इंदिरा, राजीव, वाजपेयी-आडवाणी की वह तीन भूलें जिसने बदली भारतीय राजनीति की दिशा

इंदिरा ने इमरजेंसी में आरएसएस को निशाना बनाकर उसे राजनीतिक वैधता प्रदान करने; राजीव ने 1989 में जनादेश का सम्मान नहीं करने; वाजपेयी-आडवाणी ने समय से पहले चुनाव करवाने की जो गलतियां की उन्होंने भारतीय राजनीति की दिशा बदली.

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संसद के दोनों सदनों को संबोधित राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने नजरिए से, आज़ादी के बाद भारत के सात दशकों के इतिहास में नेहरू-गांधी परिवार की गलतियां गिना दी. इसने हमें एक और सवाल थमा दिया कि आज़ाद भारत में किसी पार्टी या किसी राजनेता ने सबसे बड़ी और सबसे अहम राजनीतिक भूल क्या की? किसी एक गलती का नाम लेना कठिन है, इसलिए हम तीन भयंकर भूलों को गिना रहे हैं, और हम अपनी यह खोज पिछले 50 साल के कालखंड तक ही सीमित रख रहे हैं.

मैं इन भूलों को उसी क्रम से प्रस्तुत करूंगा जिस क्रम से मैं उन्हें सबसे महत्वपूर्ण या प्रभावकारी मानता हूं. पहले हमें यह तय करना ज़रूरी लगता है कि हम भयंकर भूल किसे मानते हैं.

सबसे पहले यह स्पष्ट कर दें कि यह शुद्ध रूप से राजनीतिक भूल हो. आर्थिक, सामाजिक, विदेशी मामलों से संबंधित नीतियों में की गई गलती को शामिल नहीं किया गया है. यह शुद्ध राजनीति से जुड़ी हो.

दूसरे, कौन-सी गलती बुरी थी या सबसे बुरी थी, यह फैसला नैतिकता या सही-गलत की कसौटी पर नहीं किया गया है.
और तीसरे, इन तीन गलतियों की सूची में किन गलतियों को शामिल किया जाएगा और किसे इसे सूची में सबसे ऊपर रखा जाएगा, इसकी सबसे बड़ी कसौटी यह होगी कि किस गलती के परिणामस्वरूप अगले कई दशकों के लिए राजनीति की दिशा बदल गई. जिस गलती का असर सबसे लंबे समय तक महसूस किया गया उसे सबसे भारी भूल माना गया.

अब मैं सबसे भारी तीन भूलों की अपनी सूची कालक्रम के मुताबिक प्रस्तुत कर रहा हूं—

इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी में आरएसएस को निशाना बनाया जाना और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को जेल में डालना, जिनमें अधिकतर गुमनाम किस्म के लोग थे. ये जनसंघ के उन नेताओं से अलग लोग थे जिन्हें उन्होंने जेल में बंद किया था.
1989 में, राजीव गांधी द्वारा अपनी सरकार न बनाने का फ़ैसला, जबकि उन्हें लोकसभा में 197 सीटें मिली थीं. उनका कहना था कि जनादेश उनके खिलाफ है और वे उसका सम्मान करेंगे. याद रहे, उनकी पार्टी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी थी.

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी द्वारा मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भारी बहुमत से चुनाव जीतने से उत्साहित होकर आम चुनाव समय से छह महीने पहले करवाना.

आपका सबसे पहला सवाल यह हो सकता है : इमरजेंसी थोपे जाने को आपने सबसे बड़ी राजनीतिक भूल क्यों नहीं माना? आरएसएस के काडर को निशाना बनाने और जेल में डालने को इतना अहम कैसे मान लिया? इन सवालों का जवाब सीधा-सा है. इंदिरा गांधी इमरजेंसी लगाने की तोहमत से जल्द ही बरी हो गईं, 1977 में उनकी हार मामूली झटका बनकर रह गई. तीन साल के अंदर ही वे भारी बहुमत के साथ सत्ता में लौट आईं. इमरजेंसी के बाद के 46 वर्षों में से 25 साल अगर उनकी पार्टी सत्ता में रही, तो साफ है कि जनता ने इमरजेंसी वाली उनकी भूल माफ कर दी.


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लेकिन उन्होंने आरएसएस को जो निशाना बनाया उसका असर लंबे समय तक दिखा. सबसे पहले तो इसने एक राजनीतिक ताकत के तौर पर आरएसएस को वैधता प्रदान कर दी, और उसे उनकी पार्टी के मुख्य वैचारिक प्रतिद्वंद्वी का दर्जा दे दिया. तब तक, उनकी पार्टी की मजबूती यह थी कि उसे किसी विचारधारा से लड़ने की जरूरत नहीं पड़ी थी.
उनकी अपनी ही पार्टी में कुछ रूढ़िपंथी, दक्षिणपंथी झुकाव वाले, स्वतंत्र पार्टी के उदारवादी पूंजीवाद के समर्थक, वामपंथी धारा के कुछ तत्व मौजूद थे. लेकिन कांग्रेस की विचारधारा बनाम दूसरी विचारधारा वाली स्थिति कभी नहीं रही थी. इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को इस मुक़ाबले में उलझा दिया. आरएसएस के अधिकतर गुमनाम और साधारण लोगों को भारी संख्या में गिरफ्तार करवा के उन्होंने आरएसएस को व्यापक सम्मान और कुछ हद तक ताकत भी दिला दी. समाजवादी जयप्रकाश नारायण ने भी उसके काडर को अपना हरावल दस्ता बना लिया. कुछ समय बाद जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में अपना नया अवतार ले लिया, जो बाद के दशकों में कमजोर पड़ती कांग्रेस की एकमात्र वैचारिक प्रतिद्वंद्वी बन गई. अगर इंदिरा गांधी ने आरएसएस को निशाना न बनाया होता तो आज मोदी दूसरी बार बहुमत से सत्ता में न बैठे होते और तीसरी बार गद्दी पर नजर न टिकाए होते.

1989 के चुनाव ने राजीव गांधी की कांग्रेस को 1984-85 की 414 सीटों से 197 सीटों पर सिमटा दिया था. दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी जनता दल, जिसे केवल 143 सीटें मिली थीं, और जिसके सबसे बड़े नेता वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे. कांग्रेस ने सरकार बनाने का दावा न करने का फ़ैसला करके एक ऐसे अस्वाभाविक गठबंधन का रास्ता बना दिया जिसमें एक-दूसरे के घोर वैचारिक दुश्मन, भाजपा और वामदलों ने बाहर से समर्थन देकर वी.पी. सिंह की सरकार बनवा दी.

जाहिर है, राजीव गांधी ने सोचा होगा कि इस तरह का बेमेल गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चलेगा और फिर वे अगले चुनाव में वापस सत्ता में आ जाएंगे. लेकिन वे आकलन में कई गलतियां कर बैठे.

सबसे बड़ी गलती यह थी कि वे यह नहीं समझ पाए कि भाजपा को कांग्रेस के राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़ा करने का मौका लालकृष्ण आडवाणी को देने के क्या खतरे हो सकते हैं. उधर कांग्रेस कमजोर पड़ती गई, इधर आडवाणी की भाजपा की सीटों की संख्या जल्दी ही सैकड़े के अंक में पहुंच गई और उसने अछूत वाले अपने ठप्पे से इस हद तक मुक्ति पा ली कि 1998 में पर्याप्त संख्या में क्षेत्रीय दलों ने उसके साथ गठजोड़ कर लिया. अछूत वाले इस पुराने ठप्पे से मुक्ति की मुख्य बात यह थी कि विचारधारा के आधार पर इसका विरोध करने वाले मंडलवादी और वामपंथी दलों ने भी भाजपा के साथ गठबंधन स्वीकार कर लिया. यह 1989 में राजीव गांधी की ओर से मिला उपहार था.

उनकी पार्टी बाद में 15 साल तक सत्ता में जरूर रही लेकिन कमजोर पड़ती गई. इस एक गलत आकलन ने भारतीय राजनीति में कांग्रेस युग का पटाक्षेप कर दिया और 2014 में भाजपा युग शुरू हो गया.

जरा सोचिए. कांग्रेस ने 197 सांसदों के बावजूद अपनी सरकार बनाने से मना कर दिया, जबकि इसके बाद 20 वर्षों (1996, 1998, 1999, 2004) तक बने सभी गठबंधनों का नेतृत्व उस पार्टी ने किया जिसे इससे कम सीटें मिली थीं. इस आंकड़े में मामूली सुधार बेशक कांग्रेस ने ही 2009 में 206 सीटें जीतकर किया. हम केवल गठबंधनों की बात कर रहे हैं, 1991-96 में नरसिंहराव की अल्पमत वाली कांग्रेस सरकार की नहीं. गठबंधन की अपरिहार्यता को राजीव भांप नहीं पाए और उन्होंने अपने सबसे शातिर प्रतिद्वंद्वियों को सत्ता सौंपने का जो आलसी फैसला किया उसने भारतीय राजनीति की दिशा बदल डाली.

जनवरी 2004 तक, तीन अहम हिंदी प्रदेशों में भारी चुनावी जीत हासिल करके भाजपा नेतृत्व उड़ान भरने लगा. उसने मान लिया कि वहां जो हुआ वह उसके प्रभाव वाले दूसरे राज्यों में भी हो सकता है. प्रमोद महाजन के नेतृत्व में उसके ‘विचारकों’ और आडवाणी के साथ जुड़े तत्वों ने फैसला कर लिया कि चुनाव समय से पहले करवा लेना चाहिए और लहर का लाभ उठा लेना चाहिए. संदेह जाहिर करने वाले एकमात्र नेता थे वाजपेयी, जो अल्पमत में थे.

आडवाणी गुट एक और मंशा से भी काम कर रहा था, जो उतना छिपा हुआ भी नहीं था कि वाजपेयी की सेहत उन्हें पांच साल से ज्यादा नहीं सक्रिय रहने देगी, इसके बाद आडवाणी आसानी से उत्तराधिकार संभाल लेंगे. उस समय भारत ने तीन तिमाहियों तक औसत 8 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर्ज की थी. इसने ‘इंडिया शाइनिंग’ मुहिम शुरू करने का पर्याप्त कारण उपलब्ध करा दिया.

उस जोश में भाजपा वह काम करना भूल गई जिसने उसे सत्ता में पहुंचाया था. वह काम था, अपने गठबंधन के साथियों को जोड़े रखना. इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा को भारी हार का सामना करना पड़ा और उसे कांग्रेस से सात कम, 138 सीटें ही मिलीं. गुजरात दंगों के बाद उसके प्रति पुरानी अछूत वाली भावना कुछ प्रमुख क्षेत्रीय दलों और उसके संभावित सहयोगियों में फिर से उभर आई.

इस वजह से न केवल कांग्रेस एक दशक बाद सत्ता में वापस आ गई, आडवाणी और उनके सभी साथियों के राजनीतिक करियर पर विराम लग गया. इस बीच नरेंद्र मोदी को अपनी तैयारी करने और उभरने का समय मिल गया.

अब सवाल है कि किसकी भूल को किस नंबर पर रखा जाए. मैं राजीव गांधी की भूल को सबसे ऊपर रखूंगा, क्योंकि उसने भारत की भावी राजनीति पर सबसे बड़ा असर डाला. उनकी मां ने आरएसएस को राजनीतिक वैधता प्रदान करने की जो भूल की थी उसके मुक़ाबले राजीव की भूल को मैं मात्र इसलिए बड़ा मानूंगा क्योंकि इंदिरा गांधी फिर भी 1984 तक और अपनी मृत्यु के बाद भी उसे हाशिये पर रखने में सफल रही थीं. राजीव ने दिसंबर 1984 में भाजपा को मात्र दो सीटों पर समेट दिया था.

अगर उन्होंने 1989 में इतनी आसानी से सत्ता नहीं छोड़ी होती तो बाद के दशकों में राजनीति कुछ अलग ही दिशा में चल सकती थी. वैसे, अपनी मां की भारी भूल का इस हद तक तो उन्होंने सुधार किया ही. इंदिरा गांधी ने आरएसएस को राष्ट्रीय राजनीति में जगह और इज्जत दिलाई. आडवाणी की भूल यह थी कि उन्होंने खुद अपनी महत्वाकांक्षाओं को नष्ट कर दिया. बेशक इसने मोदी के लिए रास्ता बनाया, और मोदी ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करके अपना आभार जता दिया.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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