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Saturday, 13 December, 2025
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भारत की सबसे बड़ी एयरलाइन ने सरकार को कमान सौंप दी — यही इंडिगो की असली ‘गलती’ है

बदकिस्मती को दोष मत दीजिए. यह बड़ी नाकामी और लापरवाही है. हालात इतने खराब हैं कि पुराने पीएसयू दौर की इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया में भी इस पर बड़े अफसरों पर कार्रवाई हो जाती.

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भारत में आर्थिक सुधारों के बाद सबसे बड़े ग्लोबल ब्रांड के रूप में उभरे इंडिगो की जो कहानी सामने आ रही है उस पर फौरी रूप से तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हो सकती हैं और इन तीनों के साथ एक ही तरह की हताशा जुड़ी हो सकती है.

पहली प्रतिक्रिया, जो कुछ लोगों ने दी भी है, यह हो सकती है कि इंडिगो के संस्थापक और उसके प्रबंधक ज़रूर बड़े नासमझ, विचारशून्य या अहंकारी होंगे कि उन्होंने इसे इस तरह बिखरने दिया.

दूसरी तरह की प्रतिक्रिया यह हो सकती है कि जो भी भारत सरकार और वह भी मोदी सरकार से खासकर उस समय पंगा लेने की सोच रहा होगा जब ब्लादिमीर पुतिन शहर में पधारे हुए थे, वह ज़रूर कोई गलत काम कर रहा होगा. याद कीजिए, 2020 में जब डोनल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर थे उस समय जिन लोगों ने शाहीन बाग में कथित रूप से विरोध प्रदर्शन आयोजित किए थे वे आज भी जेल में बंद हैं और उन पर कोई मुकदमा भी नहीं शुरू किया गया है और, यह नया प्रकरण तब हुआ है जब नया साल दस्तक देने वाला है.

और तीसरी प्रतिक्रिया उन लोगों की हो सकती है जो दशकों से यह कहते रहे हैं कि सरकार का हमारी ज़िंदगी में और खासकर उन मामलों में कोई दखल नहीं होना चाहिए जिनमें निजी क्षेत्र बेहतर सेवा दे सकता है. ऐसे लोग कह सकते हैं कि आप इतने लापरवाह कैसे हो सकते हैं कि इसका ठीक उलटा कर बैठें? कहा जा सकता है कि सबसे पवित्र, ‘माई-बाप सरकार’ ने निजी क्षेत्र के एक अहंकारी, ग्राहक विरोधी अगुआ के कामकाज को दुरुस्त करने का काम फिर से शुरू कर दिया है. यह एक राष्ट्रीय आपदा है.

आप सोचते रहे होंगे कि इतने वर्षों से निजी विमान सेवा जब विकास करती रही और वह जेट एयरवेज़ और किंगफिशर के बिखराव को झेल गई, एयर इंडिया का निजीकरण हुआ तब पुरानी हुकूमत में कई लोग अपनी सत्ता छिनी जाने से नाराज़ होते रहे. आखिर, कोई विमान नहीं खरीदा जा रहा था, नौकरियां या ठेके देने का काम नहीं हो रहा था, उपभोग की चीज़ों की खरीद नहीं हो रही थी.

भारत सरकार, या जिसे मैं उसकी आत्म-छवि के कारण अपनी हताशा के क्षणों में ‘सरकार-ए-हिंद’ कहता हूं, उसे कम-से-कम एक मामले में अप्रासंगिक बना दिया गया है. इस मामले में निजी क्षेत्र ने ऐसी सफलता हासिल की है जिससे दुनिया ईर्ष्या कर सकती है. टेलिकॉम सेक्टर में पुराने अधिकारों का कम-से-कम कुछ अवशेष तो सरकार के हाथ में मौजूद है, जैसे स्पेक्ट्रम की बिक्री, बीएसएनएल के रूप में एक सक्रिय ‘पीएसयू’ और वोडाफोन-आइडिया में 49 फीसदी की इक्विटी. नागरिक विमानन में उसके हाथ में महत्वहीन हेलिकॉप्टर चार्टर के सिवा कुछ भी नहीं है. लगभग सारे महत्वपूर्ण एयरपोर्ट निजी हाथों में हैं और कई दूसरे एयरपोर्ट भी जल्दी ही उन्हीं हाथों में जाने वाले हैं.

लेकिन अब सरकार फिर से वापस आ गई है और वह भी किस तरह! मंत्री जी एक टीवी चैनल से दूसरे तक अकड़ दिखाते घूम रहे हैं, इंडिगो ने जो घालमेल किया है उसे दुरुस्त करने के वादे कर रहे हैं, उन सूचीबद्ध कंपनियों का प्रबंध परोक्ष रूप से अपने हाथ में लेने की धमकी दे रहे हैं जिन कंपनियों का मूल्य 2 लाख करोड़ (2 ट्रिलियन) रुपये या 24 अरब डॉलर के बराबर है, बावजूद इसके कि करीब 15 फीसदी तो संकट के दौर में ढह जाती हैं. कोई निजी कंपनी घालमेल करे, ऐसा सिर्फ भारत में ही होता है, लेकिन इसके लिए सफाई, या सवालों के जवाब उसका सीईओ नहीं, एक मंत्री दे रहा है.


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मंत्री ने सीईओ की छुट्टी कर देने की धमकी दी और उसे इस सेक्टर के रेगुलेटर के हुजूर में पेश होने का हुक्म दिया और खुले तौर पर अपमानित किया. सीईओ ने पहले तो हड़बड़ी में, पायलटों के काम के घंटों से संबंधित उन नियमों को वापस ले लिया जिन्हें लागू करवाने में उनका अपना मंत्रालय और रेगुलेटर करीब दो साल से ऊपर से नाकाम रहा है. इसके बाद फरवरी 2026 तक उसके उड़ानों की संख्या में कटौती कर दी. अब वे बड़ी बातें कर रहे हैं, कि दोहराव खराब चीज है इसलिए वे चाहेंगे कि पांच एयरलाइन ही हों जिनमें से हर एक के पास 100 विमान हों.

क्या वे इंडिगो और चूंकि यह एयरलाइन भारतीय विमानन का दो तिहाई हिस्सा है, इसलिए भारतीय विमानन को अमेरिका के ‘बेबी बेल्स’ वाले दौर में ले जाना चाहते हैं. एक समय अमेरिका में एटी एंड टी कंपनी के एकाधिकार को ‘रीज़नल बेल ऑपरेटिंग’ कंपनियों में तोड़ा गया था, लेकिन इस प्रसंग के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए मंत्री जी अपने स्टाफ को गूगल सर्च करने को कह सकते थे. भारतीय विमानन विशाल दिखता है लेकिन इसके और विकास की संभावनाएं हैं. इंडिगो को ही लीजिए. उसने 1400 और विमानों की खरीद के ऑर्डर दिए हैं. एयर इंडिया ने करीब 570 विमानों की और आकासा एयर और स्पाइसजेट ने करीब 200 से ज्यादा विमानों के ऑर्डर दिए हैं. जब भारत में 500-500 विमानों वाली पांच एयरलाइनों की गुंजाइश है तब हम केवल 100-100 विमानों वाली पांच एयरलाइनों की बात क्यों करें?

इस अविश्वसनीय सफलता की भारतीय कहानी इसलिए सच साबित हुई क्योंकि सत्ता-तंत्र ने उस बात को एक बार अपना लिया जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अक्सर कहते रहे हैं, कि सरकार को बिजनेस की दुनिया में दखल देने का कोई काम नहीं है. जबकि भारतीय विमानन वैश्विक पैमाने के मुताबिक विकास कर रहा है, इसके प्रभारी मंत्री इसे टुकड़ों में तोड़ने की बात कर रहे हैं. यह तब है जब प्रधानमंत्री और मंत्री जी की पार्टी के सुप्रीमो चंद्रबाबू नायडू पैमाने पर यकीन करते हैं.

लगता है, बेचारे मंत्री जी पर अपनी नाराज़गी जाहिर करके हम दिशा भटक रहे हैं. उन्हे ऐसा ‘ग्लेमरस’ मंत्रालय दिया गया था, जो आसान सा था, जिसमें फीते काटने से ज्यादा बड़ा शायद ही कोई काम था, लेकिन एक संकट ने उन्हें पकड़ लिया.

बहरहाल, हम उन्हें उनके ‘प्राइम टाइम’ पर छोड़ दें और असली मुद्दे पर आएं. असली मुद्दा भारत की नाटकीय सफलता की कहानियों के मूल में सरकार की वापसी का है. इंडिगो के कॉर्पोरेट मुख्यालय में फैसले करने वाले प्रमुख पदों पर सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति का आखिर क्या मतलब हो सकता है. यह जवाबदेही मुक्त ‘माइक्रोमैनेजमेंट’ है. ये उसी रेगुलेटर नागरिक विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) से आते हैं, जिसने विमानों के चालक दल के ‘रेस्ट-एंड-रिकवरी’ के लिए ऐसे नियम बनाए जिनसे रूढ़िवादी यूरोपीय लोग भी परहेज़ करेंगे, लेकिन यह सब उन लोगों की सहमति लिए बिना किया गया जिनके दांव लगे हैं. विचार अगर पुराना न हो तो किसी भी नामुमकिन नियमन के साथ स्व-निर्णय और अपवाद का मामला जुड़ा होता है. इसी प्रकार सरकार पीढ़ियों से अपने लिए ‘एटीएमों’ को खड़ा करती रही है.

निजी विमानन की सफलता ने न्यूनतम सरकार वाले विचार को मजबूत किया. नागरिक विमानन सबसे उपेक्षणीय मंत्रालय बन गया. इसे समेट देने के लिए मशहूर अमेरिकी एकाउंटेंट मिस्टर मेकेंसी जैसी भूमिका निभाने वाले अर्जेंटीना के ज़ेवियर मीले जैसे किसी शख्स की ज़रूरत नहीं थी.


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इंडिगो को कई दोष दिए जा सकते हैं, लेकिन उसका सबसे बड़ा अपराध यह है कि उसने जनआक्रोश का सामना होने पर सरकार को अपना पालनहार बना लिया. जिस सरकार ने एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस को एकाधिकार वाली वाली कंपनी बना दिया था उसने इंडिगो को कगार पर ला दिया और विमान खरीद के कई घोटालों को देखती रही. कुछ घोटाले अभी भी देख रही है. अब यह आपके मुख्यालय में वापस आ गई है. तो आपको शुभकामनाएं!

आखिर इंडिगो ने यह पतन क्यों होने दिया और इस उम्मीद में खंदक में क्यों जा छिपी कि संकट खुद दूर हो जाएगा. वे किस सदी में जी रहे हैं? एक समय था जब आप मीडिया को विज्ञापन, मोटा दान, दिवाली उपहारों, अपने बारे में व्यावसायिक किस्म के परिचय जारी करके उनकी ‘गुडविल’ हासिल कर सकते थे.

लेकिन सोशल मीडिया के इस दौर में, जब हर एक उपेक्षित यात्री की अपनी आवाज़ है और हरेक भटका हुआ सामान अपनी पहचान रखता है, इस दौर में आप अपनी बदकिस्मती को नहीं कोस सकते. यह भारी अक्षमता और असंवेदनशीलता है. इतनी बुरी कि इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के पुराने सार्वजनिक उपक्रमों वाले दौर में भी इसके लिए कुछ की तो छुट्टी की ही जा सकती थी. कुछ नागरिक विमानन मंत्रियों को तो इससे कमज़ोर वजहों के लिए कुर्सी गंवानी पड़ी है.

इंडिगो के कर्णधारों को तो संकट का पहला संकेत मिलते ही पछतावे के साथ सांत्वना देने वाला बयान देना चाहिए था, लेकिन ग्राहक के पास दूसरा कोई विकल्प न हो तो क्या फिक्र की जाए? और मंत्रालय? हां, उसका तो हमने इंतजाम कर लिया है. वे भूल गए कि सरकार से निबटना किसी कैसीनो में खेलने जैसा है. आप कितने भी तेज़तर्रार क्यों न हों, आपकी जेब कितनी भी गहरी क्यों हो, जीत कैसीनो हाउस की ही होती है.

पुनश्च: सार्वजनिक उपक्रमों वाले दौर में पायलटों की जो बहुचर्चित हड़तालें हुईं उनमें से एक हड़ताल के कारण 9 जनवरी 1993 को माधवराव सिंधिया को नागरिक विमानन मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था. कुछ विमान सेवा बनी रहे इसके लिए उन्होंने विमान कर्मचारी समेत पट्टे पर दिए थे. ऐसा एक रूसी/मध्य एशियाई विमान दिल्ली हवाई अड्डे पर जाड़े के घने कोहरे में किसी दूसरे विमान के ऊपर आकर लैंड कर गया. सिंधिया ने नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया. दो दिन बाद मैं सीताराम केसरी के घर गया था, जैसा कि अक्सर मैं भारतीय राजनीति का ट्यूटोरियल लेने के लिए जाया करता था. उन्होंने कहा कि सिंधिया अभी काफी युवा, तेज़तर्रार, लोकप्रिय और महत्वाकांक्षी हैं. प्रधानमंत्री पद के अच्छे उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन कभी बनेंगे नहीं.

मैंने इसका कारण पूछा.

उनका जवाब था कि सिंधिया ने एक हादसे की नैतिक ज़िम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया. इसके बाद उन्हें अपनी इस शहादत को भुनाने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी चाहिए थी, इंटरव्यू देने चाहिए थे. “मैंने पता किया, वे सबसे कट गए, मौन छुट्टी मनाने पहाड़ों पर चले गए.” उन्होंने कहा कि सर्वोच्च पद के लिए जो रुझान चाहिए वह सिंधिया में नहीं है. अब, यह और बात है कि इतिहास ने केसरी की परिकल्पना की परीक्षा का कभी मौका नहीं दिया क्योंकि दुर्भाग्य ने दखल दिया और 30 सितंबर 2001 को एक निजी विमान हादसे में सिंधिया का निधन हो गया.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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