पिछले सप्ताह इस कॉलम में एक उत्तरकथा की शुरुआत की गई थी कि खुद को किसी से जोड़ लेने के क्या खतरे हैं. इसका क्या मतलब होता है.
पिछले तीन दशकों से, पाकिस्तान से खुद को अलग करना हमारी शानदार रणनीति का केंद्रीय तत्व था. लेकिन हम पाकिस्तान से खुद को भौगोलिक या रणनीतिक स्तर पर अलग नहीं कर सकते. जैसा कि अटल बिहारी वाजपेयी की अमर उक्ति कहती है, “आप अपना पड़ोसी नहीं चुन सकते”. इस मामले में भारत को ‘वरदान’ प्राप्त है, उसे परमाणु शक्ति से संपन्न दो पड़ोसी हासिल हैं.
ये दोनों में ऐसा गहरा रणनीतिक गठजोड़ है जो आज अमेरिका-इजरायल गठजोड़ के बाद दूसरा सबसे मजबूत गठजोड़ है. इसके बावजूद ये दोनों देश अलग किस्म के हैं, उनके हित तो साझे हैं लेकिन प्राथमिकताएं अलग-अलग हैं.
उनसे निबटने के लिए आपके पास जरूरी उपाय होने चाहिए. आदर्श स्थिति तो यही होगी कि उनसे एक-एक करके निबटना पड़े, लेकिन दोनों के बीच मिलीभगत का भी सामना करने के लिए भी आपको तैयार रहना होगा. उनकी मिलीभगत अप्रत्यक्ष भी हो सकती है, जैसी ऑपरेशन सिंदूर के दौरान प्रमुख भूमिका में भी थी और छद्म भूमिका में भी; या क्या पता, यह मिलीभगत प्रत्यक्ष भी हो सकती है, किसी युद्ध के दौरान. इसलिए भारत की विराट रणनीति का पहला तत्व उन्हें रोकने का ही हो सकता है.
इन दोनों में से पाकिस्तान से निबटने के लिए भारत सैन्य और आर्थिक दृष्टि से बेहतर स्थिति में है. चीन वास्तव में भीषण चुनौती है जिसकी बराबरी करने या स्थायी शांति की स्थिति में दोनों के पर्याप्त साझा निहित स्वार्थ विकसित करने में कई साल लगेंगे. यहीं पर पाकिस्तान से खुद को अलग करने का विचार उभरता है. यह विवेकपूर्ण विचार है जिसे 1980 में इंदिरा गांधी की दूसरी बार वापसी के बाद से हर प्रधानमंत्री अपनाता रहा है.
भारत-पाकिस्तान संबंधी नीति को लेकर पश्चिमी खेमे (अमेरिका) की ओर से किसी सुझाव को भारत हमेशा जोरदार तरीके से अस्वीकार करता रहा है. इस मामले में प्रगति की रफ्तार बिल क्लिंटन के पहले कार्यकाल तक धीमी रही और इसके बाद तेज हो गई. परमाणु संधि के बाद के दो दशकों से यह रफ्तार और तेज रही है.
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भारत इसे इस हद तक ले गया कि जब कोई पश्चिमी नेता भारत के अपने दौरे में पाकिस्तान को भी शामिल करता था तो भारत इस पर आपत्ति करता था. इसे चलन को एक अपमान के रूप में देखा जाता था और इसे दोनों देशों को बराबर का दर्जा देना माना जाता था, चाहे यह दौरा करने वाले के लिए कितना भी सुविधाजनक क्यों न होता हो.
इस आपत्ति के कारगर होने का पहला संकेत तब मिला जब करगिल युद्ध के बाद पाकिस्तान में उतरे क्लिंटन चंद घंटों के अंदर हवाई अड्डे से ही उंगली उठाकर पाकिस्तान को यह चेतावनी देते हुए विदा हो गए कि “इस उपमहादेश के नक्शे को एक बार फिर खून से नये सिरे से नहीं तैयार किया जा सकता”. यह सिद्धांत अब इतना पक्का हो गया है कि हमारे गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में पधारे इंडोनेशियाई राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियान्तो को अपने इस दौरे में पाकिस्तान को भी शामिल करने से विनम्रतापूर्वक रोक दिया गया था.
अमेरिका यह कहते हुए एक अलग व्याख्या प्रस्तुत करता था कि इस उपमहादेश के बारे में उसका विचार ‘ज़ीरो-सम गेम’ (एक की हानि दूसरे का लाभ वाला खेल) वाला नहीं है. वह भारत और पाकिस्तान के साथ एक-दूसरे से स्वतंत्र अलग-अलग संबंध बना सकता है, जिस पर शीतयुद्ध वाले दौर का कोई साया नहीं पड़ता हो.
शिमला समझौता इसी सिद्धांत पर आधारित है. तय किया गया कि इसके बाद से भारत और पाकिस्तान अपने सभी आपसी मसले खुद ही निबटाएंगे. इसका अर्थ यह था कि इसमें किसी तीसरे पक्ष, किसी मध्यस्थ की कोई भूमिका नहीं होगी, और इस तरह संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद के सारे पुराने प्रस्ताव बेमानी बना दिए गए.
यही वजह है कि भारत डॉनल्ड ट्रंप के बार-बार (अब तक 16 बार) के इस दावे को लेकर उत्तेजित है कि भारत और पाकिस्तान के बीच शांति उन्होंने कायम कारवाई. कांग्रेस पार्टी ने इसे लपक लिया और “नरेंद्र सरेंडर” का जुमला उछालकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ट्रंप के दबाव में आने का आरोप लगाने लगी. उन्होंने इसका जवाब भी दिया. लेकिन यहां पर आकार ऐसा लगता है कि दोनों पक्ष शांत हो गए हैं. उम्मीद की जाती है कि दोनों पक्ष जिसे 21वीं सदी का सबसे प्रभावी रणनीतिक रिश्ता बता रहे हैं वह इस उथलपुथल में भी टिका रहेगा.
अब हम आशावादी होकर यह उम्मीद करें कि ट्रंप इस उपमहादेश के मामले में शांत हो जाएंगे और यह समझ लेंगे कि अगर वे नोबल शांति पुरस्कार का तमगा हासिल करना चाहते हैं तो इसकी खोज करने के लिए यह भू-रणनीतिक क्षेत्र सही स्थान नहीं है.अगर भारत और पाकिस्तान सचमुच में स्थायी शांति कायम करने का फैसला कर लेते हैं तो वे इसका श्रेय किसी और को क्यों देना चाहेंगे? नोबल पुरस्कार के आकांक्षी यहां भी मौजूद हैं. कोई भी आकांक्षी हो सकता है, और इस मामले में तो और भी अच्छी तरह.
ट्रंप जब शांत हो जाएंगे तब तस्वीर कैसी दिखेगी? यह सवाल हमें फिर से खुद को किसी के साथ जोड़कर देखने के सवाल तक ले जाता है. जरा गौर कीजिए कि हमारे, मुख्यतः भाजपा के राजनीतिक विमर्शों में पाकिस्तान का नाम कितनी बार उभरता है, और यह जरूरी नहीं कि ऐसा ऑपरेशन सिंदूर के बाद हो रहा है. यह एक कड़वी सच्चाई है लेकिन इसे जरूर कहा जाना चाहिए कि इस भाजपा सरकार ने इतने वर्षों में अपनी घरेलू राजनीति पाकिस्तान के प्रति स्थायी नफरत की बुनियाद पर खड़ी की है.
मैं नहीं जानता कि आप इन बातों का किस तरह विश्लेषण करते हैं. लेकिन अगर आप प्रधानमंत्री मोदी के सभी भाषणों में इस्तेमाल किए गए शब्दों का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि वे चीन का नाम एक बार लेते हैं तो पाकिस्तान का नाम सौ बार, शायद इससे भी ज्यादा. इसकी क्या व्याख्या की जा सकती है, जबकि हमें यह बताया जाता है कि भारत को असली दीर्घकालिक खतरा चीन से है? पाकिस्तान खास महत्व नहीं रखता, हम उसे बहुत पीछे छोड़ चुके हैं.
यह धारणा पिछले चार दशकों से सभी प्रकार की राजनीतिक और बौद्धिक जमातों में पैठी हुई है. जनरल कृष्णस्वामी सुंदरजी ने 1986 में ‘इंडिया टुडे’ को दिए एक बहुचर्चित इंटरव्यू में कहा था: “चीन असली चुनौती है. पाकिस्तान से तो ‘आन पासांट’ ही निबट लिया जा सकता है.” मजे की बात यह है कि यह मुहावरा मैंने तब पहली बार सुना था. वास्तव में, इसका अर्थ है चलते-चलते, और इसे शतरंज के खेल में इस्तेमाल किया जाता है, जब कोई मोहरा आगे बढ़ते हुए किसी प्यादे को गिरा देता है.
जिससे हम 1986 में चलते-चलते निबट सकते थे वह केंद्रीय मंच पर कैसे लौट आया? इसका छोटा-सा जवाब यह है कि हमने ही उसे वहां पहुंचाया है. मोदी सरकार ने पाकिस्तान को हमारी घरेलू राजनीति का जरूरी हिस्सा बनाकर यह काम किया है. यह राजनीतिक फॉर्मूला इतना पेचीदा नहीं है. यह काफी सीधा-सा है: पाकिस्तान मानी आतंकवाद, जिसका अर्थ है इस्लामी आतंकवाद, और यह कहना काफी है कि यह हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का मूल तत्व है.
पिछले तीन दशकों में भारत की व्यापक रणनीतिक योजना मजबूत और विवेकसम्मत रही है. चीन के साथ स्थिरता का संबंध रखो और जब बहुत ज्यादा उकसावे की कार्रवाई हो तभी जवाब दो. इस बीच भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाओ और इसकी व्यापक राष्ट्रीय शक्ति (सीएनपी) जब बढ़ जाए तो इसे शीतयुद्ध के बाद के दौर में अपने अनुकूल स्वरूप में प्रस्तुत करो. इस बीच दुनिया को यह सलाह देते रहो कि वह आपको पाकिस्तान के साथ न जोड़े क्योंकि आप अलग श्रेणी में पहुंच गए हैं और उससे भी ऊपर छलांग लगा सकते हैं. लेकिन क्या हम खुद इस सलाह पर अमल कर रहे हैं?
पिछले दशक में जो कुछ हुआ वह भरोसा नहीं जगाता, खासकर 2019 के बाद से जब पुलवामा ने मोदी सरकार को सबसे बड़ी चुनावी जीत दिला दी. इसके बाद से पाकिस्तान मोदी-भाजपा की राजनीति का केंद्रीय मुद्दा बन गया. इस तरह हमने ही खुद को उससे जोड़ लिया.
अब यह इस स्थिति में पहुंच गया है कि पाकिस्तान भी यह सोचने लगा है कि वह हमारी प्रतिक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है.
अंततः, उसे ज्यादा नुकसान होगा, जैसा कि उसके नष्ट हुए हवाई अड्डों से फिर जाहिर हुआ. लेकिन अगर उसने बुद्धिमानी की होती तो वह भारत के साथ स्थायी दुश्मनी के चक्कर में नहीं पड़ता. यह पाकिस्तान में उसकी फौज की प्रमुखता की गारंटी बन जाता है. जरा देखिए कि ऑपरेशन सिंदूर ने आसिम मुनीर को जनता के कोप का भागी बनने की जगह किस तरह राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बना दिया.
यह खुद को किसी से जोड़ने के खतरों को रेखांकित करता है. पाकिस्तान को अपनी राजनीतिक का केंद्रीय मुद्दा बनाकर भाजपा ने अपने लिए और भारत के लिए भी एक अप्रत्याशित दुविधा खड़ी कर ली है, जिसमें इसके घरेलू राजनीतिक हित भारत की भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं से टकरा रहे हैं.
भारत के रणनीतिकार चतुर हैं, उन्हें ट्रंप की एक साथ कई युद्ध वाली इस दुनिया से निबटने के लिए थोड़ा समय चाहिए. हमारी घरेलू राजनीति बदलेगी तो उन्हें ताकत मिलेगी. पाकिस्तान के मामले में, हमारे राजनयिकों को खतरे को कम करने के लिए अपने कौशल का प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि सेना पर खर्च से प्रतिरोधक क्षमता मजबूत होती है. इस बीच, भाजपा की राजनीति खुद को पाकिस्तान से जोड़ने की चाल से मुक्त करे. पाकिस्तान नामक समस्या का तीन सूत्री इलाज है : कमजोर करो, खौफ पैदा करो, और उससे खुद को जोड़ो मत.
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