इन दिनों शंघाई को-ऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (एससीओ) की मंत्रिस्तरीय बैठक अगर ऐसी बैठकों के रिवाज के विपरीत असाधारण रूप से तनावपूर्ण है, तो इसकी वजह यह है कि इसके दो प्रमुख सदस्यों के संबंध तीसरे सदस्य के साथ अच्छे नहीं हैं. या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि बैठक की मेज़बानी कर रहे प्रमुख सदस्य देश के संबंध दूसरे दो सदस्य देशों के साथ अच्छे नहीं हैं.
अब यह कहने के लोभ से बचिए कि चीज़ें जितनी बदलती हैं उतनी ही वे जस की तस बनी रहती हैं. वैसे, कुछ चीज़ें वाकई जस की तस ही बनी रहती हैं, जैसे चीन-पाकिस्तान के दोहरे दबाव के बीच भारत की सुस्त, घुटती रणनीति. डॉ. मनमोहन सिंह ने इसे भारत को बेदम करने के ‘दम घोंटने वाले’ दांव में पाकिस्तान का इस्तेमाल करने का स्पष्ट मामला बताया था और जब उन्होंने कमान नरेंद्र मोदी को सौंप दी उसके बाद से बहुत कुछ बदला नहीं है.
‘एससीओ’ का यह शिखर सम्मेलन यह हिसाब लगाने का अच्छा मौका है कि क्या बदला है और क्या नहीं बदला है. फिलहाल हम अपने इस त्रिकोण की तीन भुजाओं पर ध्यान दें. इसके बाद हम इससे आगे की भी बात करेंगे.
एक अच्छी शुरुआत इस आकलन से की जा सकती है कि 2014 के बाद से इन तीन पड़ोसियों की अपनी-अपनी ‘कम्प्रिहेंसिव नेशनल पावर (सीएनपी)’ (व्यापक राष्ट्रीय ताकत) कितनी बढ़ी है. वैसे, सीएनपी की अवधारणा का श्रेय हम चीनी विमर्श को दे सकते हैं. इसका चीनी नाम (झोंघे गुओली) करीब तीन दशक पहले चीन से आने वाले प्रकाशनों में उभरने लगा था.
आप कल्पना कर सकते हैं कि यह कई चीज़ों के मेल के बारे में बताता है. इन चीज़ों में देश की अर्थव्यवस्था का आकार और वृद्धि दर, उसके समाज की ताकत और एकजुटता, सेना और आक्रमण की ताकत, व्यापार और ‘सॉफ्ट पावर’ शामिल हैं और सभी चीज़ें ऐसी नहीं हैं जिन्हें अनुभवसिद्ध या मापने योग्य कहा जा सके, लेकिन इन चीज़ों की मापने और उन्हें आंकड़ों या रैंकिंग में बदलना आसान नहीं है.
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इन ज़्यादातर पैमानों पर, उदाहरण के लिए पाकिस्तान आज लगभग किसी गिनती में नहीं है. उसके 200 से ज्यादा परमाणु हथियार और विशाल फौज उसे आखिर क्या दर्जा दिलाएंगे? इसके बाद, इसे भारत के नजरिए से देखें. भला हो पाकिस्तान के परमाणु हथियारों और उत्पात मचाने की उसकी ताकत का, पाकिस्तान उतना सिफर नहीं है जितना भारत में कई लोग उसे देखना चाहते हैं. इसलिए, किसी देश की ‘सीएनपी’ इस बात से भी परिभाषित होगी कि वो अपने मित्रों, विरोधियों और पड़ोसियों को किस तरह प्रभावित करता है.
सोवियत संघ ने 1979 में जब अफगानिस्तान पर हमला किया था तब पाकिस्तान जितना कमज़ोर था उसके मुकाबले आज वह सबसे कमज़ोर स्थिति में है. उसकी बागडोर एक गठबंधन सरकार के हाथों में है, जो एक लोकप्रिय निर्वाचित सरकार होने का दम तो भरती है मगर उसकी साख 1979 के फौजी तानाशाह ज़िया उल-हक की सरकार की साख से भी कम है. मैं यह सावधानी बरतते हुए कह रहा हूं क्योंकि ज़िया जो कहते थे वह कानून होता था, लेकिन प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ या उनके मंत्रिमंडल के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता.
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिवालिया है — अगर आप आईएमएफ के आंकड़ों पर विश्वास करते हों (जिन्हें कुछ लोग आशावादी मानते हैं) तो इस साल उसकी आर्थिक वृद्धि दर 0.5 फीसदी है. अगले साल यह 2 फीसदी के करीब पहुंच सकती है. इसलिए पाकिस्तान और भारत ही नहीं बल्कि इस पूरे उप-महादेश (Sub-) के बीच आय का अंतर इस तेज़ी से बढ़ रहा है कि इस्लामाबाद को अब सावधान हो जाना चाहिए.
अफगानिस्तान में उसने 65 साल पुराने अपने मित्र देश को हरा कर एक आत्मघाती, अहंकार व विचारधारा केंद्रित जीत हासिल की लेकिन अब रणनीतिक वार्ता की मेज पर उसके लिए लगभग कुछ भी नहीं बचा है. पाकिस्तान की भू-रणनीतिक स्थिति उसकी ऐसी संपत्ति रही है जिसे पैसे से खूब भुनाया जा सकता था, लेकिन रणनीतिक मजबूती हासिल करने की विचित्र तलाश में तालिबान का समर्थन करके उसने इसे गंवा दिया. खाड़ी के अरब देश सुन्नी इस्लाम के प्रति अपनी उस प्रतिबद्धता से आगे बढ़ गए हैं जो इस क्षेत्र के लिए उनकी नीतियों का निर्धारण करती थी. उन देशों में पाकिस्तान और उसकी मांगों के लिए अब धैर्य नहीं रह गया है.
इसने पाकिस्तान को आज चीन का एक जागीर-मुल्क बना दिया है, लेकिन वहां भी उसे समस्या का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उसे यहां इस स्पेस के लिए भी एक बेहद ताकतवर जागीर-मुल्क से मुकाबला करना पड़ रहा है. वह मुल्क है रूस, जो चीन के लिए कहीं ज्यादा मूल्यवान है. आज पाकिस्तान के लिए लगभग कुछ भी ठीक नहीं हो रहा है. उसके पास केवल एक ही पत्ता या कार्ड रह गया है, वह है भारत का. चीन के लिए भी उसकी अहमियत इतनी रह गई है कि वह भारत की सेना को अगर असंतुलित न करे तो उस पर दबाव तो बनाए ही रखे. यह चीन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. इसके सिवा बाकी दुनिया उसकी शिकायतों, मांगों और बार-बार के मॉरल आउटरेज से तंग आ चुकी है. इस सबका भारत के लिए क्या अर्थ है, इस पर हम आगे विचार करेंगे.
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चीन इसका बिलकुल उल्टा है. इस दशक में देखा गया कि शी जिनपिंग ने चीन के 4 दशकों की जबरदस्त आर्थिक वृद्धि का लाभ उठाते हुए चीन की ताकत को अपने नाम और अपने तानाशाही विचार के नाम से परिभाषित कर दिया. टेक्नोलॉजी, व्यापार, सैन्य शक्ति, सामाजिक एकता और बढ़ते वैश्विक कद ने उसे अमेरिका और बड़ी पश्चिमी शक्ति के मुकाबले अपने अंतर को खत्म करने और बाकी देशों (खासकर भारत) के मुकाबले अपने अंतर को बढ़ाने में सक्षम बनाया. यही सब हमारे लिए महत्व रखता है.
रणनीतिक दृष्टि से यूक्रेन युद्ध चीन के लिए अच्छा भी रहा है और बुरा भी, लेकिन कुल मिलाकर बुरा ही ज्यादा रहा है. उसने उसकी ‘बीआरआई’ योजना को फिलहाल नाकाम कर दिया है, उसने उसके सबसे अहम सहयोगी को कमज़ोर किया है और पश्चिम को एकजुट किया है. अच्छी बात यह है कि रूस किस तरह चीन पर निर्भर हो गया है.
अफसोस की बात यह है कि 2014-24 के किसी अनुमान में, ‘सीएनपी’ के किसी पैमाने पर भारत के बारे में यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता कि उसने चीन के मुकाबले अपने अंतर को कम किया है. भारत ने कई क्षेत्रों में भारी प्रगति की है और काफी कुछ अच्छा हो रहा है. उदाहरण के लिए, बड़े पैमाने पर नया, भारी भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्मित किया जा रहा है— सड़कें, बंदरगाह, हवाई अड्डे, बिजली आदि-आदि.
महामारी के बावजूद वित्तीय और घाटे का प्रबंधन कर पाना बड़ी बातें रही हैं और किसी भी बड़ी अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से उसकी आर्थिक वृद्धि दर दुनिया में सबसे ऊंची बनी हुई है, लेकिन विरासत में मिला अंतर बहुत बड़ा था, चीन सुस्त नहीं पड़ रहा है और भारत अब अगर तेज़ी से भी वृद्धि करता है तो भी दोनों के बीच अंतर बढ़ेगा ही. इस तथ्य को कोई नहीं बदल सकता कि चीन की अर्थव्यवस्था भारत की अर्थव्यवस्था से पांच गुना बड़ी है. कड़वी सच्चाई यह है कि चीन की वृद्धि दर भारत की इस दर से आधी से भी कम हो जाए तो भी यह अंतर बढ़ेगा.
सैन्य मामलों में बजट और ‘फायर पावर’ में बड़े अंतर के अलावा चीन ने जानबूझकर हमें अपनी पूरी ताकत सीमा पर लगाने को मजबूर किया है. इस प्रक्रिया में भारत को दोनों सीमाओं पर अपनी सेना को पूरी तरह लगाना पड़ा है. मैं यह तलाशने में विफल रहा हूं कि हमारे इतिहास में ऐसी कोई समानांतर स्थिति कभी बनी थी या नहीं जब हमें दोनों सीमाओं पर ऑपरेशन के लिए पूरी तरह तैयार रहना पड़ा हो. समस्या यह है कि इस समीकरण में भारत को सैन्य पहल करने की कोई गुंजाइश नहीं है, सिवाए यह इंतज़ार करने के कि दूसरा पक्ष कोई पहल करे. इस बीच, ऐसी पहल हमारे महत्वपूर्ण पड़ोस, मसलन भूटान में हो रही है.
यह हमें जाने-पहचाने मुकाम पर ला खड़ा करता है. आखिर हम छह से ज्यादा दशकों से इस मुकाम पर लौटते रहे हैं. नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री के रूप में अपने 10वें साल में और अपने दूसरे कार्यकाल के आखिरी साल में हैं, तब भारत की ‘सीएनपी’ और रणनीतिक तैयारी के बारे में वे अपनी आत्म-मूल्यांकन रिपोर्ट में क्या लिखेंगे? ‘सीएनपी’ के मामले में तस्वीर तो काफी अच्छी है. अमीर या निम्न मध्यम वर्गीय भी बनने से काफी पहले इतना शक्तिशाली देश बनने की भारत की कहानी उसकी मार्के की कामयाबी की कहानी कहती है. इसमें से कुछ भी ईश्वरीय वरदान नहीं है. व्यापक राष्ट्रीय हित को मोदी और उनकी सरकार ने जिस तरह आगे बढ़ाया है उसके लिए कुछ श्रेय की हकदार तो वह है ही.
वैसे, आत्म-मूल्यांकन में मोदी भारत के सामने उपस्थित सबसे बड़ी रणनीतिक चुनौती के बारे में खुद से कुछ सवाल पूछ सकते हैं. यह चुनौती है चीन और पाकिस्तान रूपी चिमटे (Pincer) के बीच भारत का गले के जकड़े जाने की जो धीरे-धीरे इसका दम घोंट रहा है, यह उसे यूपीए से विरासत में मिला है. इस जकड़न को तोड़ने या उसे ढीला तक करने में नाकाम रहना ऐसी चीज़ है जो ज़ाहिर होनी चाहिए. आप यकीन नहीं कर सकते कि मोदी जब अपनी सत्ता का एक दशक पूरा कर रहे हैं, तब भारत को 2014 वाली रणनीतिक यथास्थिति में ही बनाए रखना उनकी ‘केआरए’ (प्रमुख उपलब्धियों) की सूची में शामिल रहा होगा.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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