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Sunday, 22 December, 2024
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भारत तीन संकटों से जूझ रहा है, इस समय क्यों मोदी को देश में बांटने की राजनीति से पल्ला झाड़ लेना चाहिए

भारत आज कई गंभीर, आपस में जटिलता से उलझे हुए संकटों का सामना कर रह है, उसे राजनीतिक जमीन तथा भरोसे की जरूरत है, और यह मोदी और उनकी सरकार के ऊपर है कि वह इसे बनाने की ज़िम्मेदारी किस तरह निभाती है.

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यह एक विकृत सच्चाई है कि सबसे उम्दा राजनीतिक हास्य तानाशाही वाले दौर में ही उभरता है. यह कानाफूसियों में और खतरों से खेलने के आनंद में बड़े मजे से फलता-फूलता है. यह सबक मैंने पाकिस्तान और ईस्टर्न ब्लॉक के देशों की यात्राओं में सीखा.

भारत में मौजूदा जो हालात हैं वे सोवियत संघ के आखिरी दिनों में चली एक जानी-पहचानी कहानी की याद दिलाते हैं. लेनिन, स्टालिन, ब्रेज़नेव और गोर्बाचेव ट्रेन पर एक आलीशान सैलून में साइबेरिया से गुजर रहे हैं. दूर-दूर तक फैले वीरान के बीच अचानक रेलगाड़ी रुक जाती है. आगे कोई रेल पटरी नहीं है. अब क्या हो?

लेनिन कहते हैं कि आइए हम कुछ गांव वालों को इकट्ठा करके ‘द इंटरनेशनेल’ गान गाते हैं, मजदूर खुशी-खुशी आगे की रेल पटरी बिछा देंगे. स्टालिन इसे बकवास बताते हुए कहते हैं कि उन लोगों को इकट्ठा जरूर कीजिए लेकिन उनमें से कुछ को गोली मार दीजिए, बाकी लोग खुद काम पूरा कर देंगे चाहे खुशी से करें या जैसे भी. गोर्बाचेव ने सुझाव दिया कि हम कहीं एक फोन ढूंढ़ें ताकि वे अपने मित्र रोनाल्ड रीगन से सलाह ले सकें. अब तक चुप रहे ब्रेज़नेव ने आसमान की ओर देखते हुए कहा, अरे छोड़िए यह सब, सैलून में काफी वोदका पड़ी है, हम उसका मजा लेते हुए कल्पना करें कि ट्रेन चल रही है.

अब जरा अपने देश के आज के हालत पर गौर कीजिए. कोरोनावायरस के मरीजों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है, अर्थव्यवस्था के सभी संकेतक गिरावट ही गिरावट दर्शा रहे हैं और चीन अपना ‘चीनत्व’ दिखा रहा है. हमारे प्रधानमंत्री और उनकी सरकार इस उम्मीद में एक के बाद एक नए नारे गढ़ती जा रही है कि ऐसी हवा बनेगी जो सबको उड़ा ले जाएगी. वे तरह-तरह के टोटके कर रहे हैं— मेक-इन-इंडिया की चादर में लिपटे ‘आत्मनिर्भर भारत’ से लेकर उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को 1 ट्रिलियन वाली बनाने के लिए कंसल्टेंट बहाल करने तक, चीनी एप्स पर रोक लगाने से लेकर यह दावे करने तक कि हमारे यहां कोविड-19 से प्रति 10 लाख मामलों में मरने वालों का अनुपात सबसे कम है और अर्थव्यवस्था की जबर्दस्त मजबूती के दावे का तो अंत ही नहीं है, जबकि हकीकत ठीक उलटी है.


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यह सब ब्रेज़नेव की इस सलाह से किस तरह अलग है कि आप यह कल्पना करते रहें की ट्रेन चल रही है जबकि आगे कोई रेल पटरी है ही नहीं?

चूंकि यह स्तम्भ ‘दप्रिंट’ के साथ ही भारत के सबसे अच्छे आर्थिक अखबार ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ में भी प्रकाशित होता है, मैं बड़े संकोच के साथ आर्थिक आंकड़ों का जिक्र कर रहा हूं. संकोच इसलिए भी ज्यादा है कि इसके संपादक टी.एन. नायनन का जो स्तम्भ हमारे यहां प्रकाशित होता है वह आंकड़ों से काफी समृद्ध होता है. लेकिन, हमारे सामने तो जो आंकड़ा है वह बता रहा है कि इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 प्रतिशत की सिकुड़न आ गई है. अर्थशास्त्री अरविंद पानागढ़िया, जिनकी मैं बड़ी इज्ज़त करता हूं, बड़े विश्वास से कहते हैं कि यह मुख्यतः कोविड के कारण है लेकिन, दो सवाल उभरते हैं.

जरा याद कीजिए कि कोरोनावायरस की पहचान से पहले के दो वर्षों में जीडीपी की वृद्धि दर की दशा क्या थी? भारत में लगातार चार तिमाहियों से वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की जा रही थी. यह ऐसा ही है जैसे कोई ट्रेन बिना ब्रेक के नीचे लुढ़कती जा रही हो और अचानक उस ठोकर (कोविड) से टकरा गई हो जहां पटरी खत्म हो गई है. वायरस ‘के बाद’ के बारे में सोचने से पहले हमें यह यह याद करना होगा कि उससे पहले हम किस दिशा में बढ़ रहे थे. वायरस ने हमारी दिशा नहीं उलटी, बल्कि हमारी गिरावट को तेज कर दिया.

महामारी को ‘एक्ट ऑफ गॉड’ (भगवान का काम) कहा गया. जीएसटी से हुई आय में राज्यों को अपेक्षित हिस्सा देने से इनकार उचित हो या नहीं, यह एक तथ्य है और सच भी है कि डोनाल्ड ट्रंप, बोरिस जॉनसन या ज़ायर बोल्सोनारो की तरह मोदी सरकार पर इस मामले को हल्के में लेने का दोष नहीं मढ़ा जा सकता. आप बस इतना कह सकते हैं कि उन्होंने कुछ अति ही की कि लॉकडाउन बहुत पहले ही लागू कर दिया गया कि ‘जान है तो जहान है’ जैसे बयान ने दहशत पैदा किया और लाखों प्रवासी मजदूर पैदल ही अपने घरों की ओर लौट पड़े और वायरस को दूरदराज़ तक पहुंचा दिया.

सरकार ने इस संकट से जिस तरह निपटने की कोशिश की उसमें भी गड़बड़ियां हुईं. बहुत ज्यादा केन्द्रीकरण, राज्यों पर भरोसे की कमी, केंद्र सरकार द्वारा रिमोट कंट्रोल अपने हाथ में रखने से कई विफलताएं हुईं. राज्यों को अधिकार और ज़िम्मेदारी काफी पहले ही सौंप देनी चाहिए थी.

आज भी आपदा प्रबंधन कानून को लागू रखने का कोई वास्तविक कारण नहीं नज़र आता. इस तरह के अज्ञात अधिकारों का असर यह होता है कि इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइएसीएमआर) जैसा शांत और गुमनाम-सा वैज्ञानिक संस्थान भी चंद हफ्तों में वैक्सीन तैयार करने के फरमान जारी करने लगता है. यहां गौर करने वाली बात यह है कि मेडिकल साइंटिस्ट भी नौकरशाहों से कब आगे बढ़ते नज़र आने लगते हैं.

इसके अलावा, आपको यह भी मानना पड़ेगा कि मोदी सरकार ने न तो चीनियों को बुलावा भेजा था और न उन्हें उकसाया था. चीनियों ने देखा कि भारत कोविड के संकट से परेशान है, अर्थव्यवस्था में गिरावट के कारण पूरी दुनिया और खासकर अमेरिका का ध्यान उखड़ा हुआ है तो वे चढ़ बैठे.

इस स्तम्भ में मैं पहले लिख चुका हूं कि भारत ने 5 अगस्त 2019 को कश्मीर में फेरबदल किए उसके जवाब में शी जिनपिंग ने यह कार्रवाई की और वे अक्साइ चीन पर अपने दावे को भी जताना चाहते थे. यह बहुत हद तक संभव है, हालांकि आप कह सकते हैं कि इस तरह का जोखिम लेने लायक नहीं था. लेकिन यह आपका विचार हो सकता है.
मोदी सरकार ने चीनी कार्रवाई का यथार्थपरक जवाब दिया है. सेना को पर्याप्त सामरिक आज़ादी दी गई है, सरकारी और राजनीतिक बयानबाजी नियंत्रित है और 1962 में नेहरू ने दबाव या गुस्से में जो अविवेकपूर्ण जवाब दिया था उससे बचा गया है. तो फिर हम शिकायत किस बात की कर रहे हैं?

अगर भारत तिहरे संकट से घिरा हुआ है तो हमें देखना पड़ेगा कि इसकी शुरुआत कैसे हुई. तब फिर हमें अर्थव्यवस्था की ओर, और महामारी ‘से पहले’ वाले सवाल की ओर मुड़ना पड़ेगा. भारत की आर्थिक वृद्धि 2017 तक शानदार दिख रही थी. 2011 के बाद से ‘रिकवरी’ भी काफी अच्छी थी. फिर क्या हो गया? अर्थव्यवस्था का टायर कैसे पंचर हो गया? ट्रेन जब अच्छी रफ्तार पकड़ रही थी तभी रेल पटरी किसने उखाड़ डाली?

इस सवाल का जवाब आपको इस जटिल हालत में लाने के लिए जिम्मेदार मानव निर्मित सबसे अहम तत्व की ओर ले आएगा. मार्च के बाद से कोविड ने चाहे जो कुछ किया हो, आर्थिक वृद्धि की रफ्तार थमने के लिए न तो हम भगवान को दोष दे सकते हैं और न चीनियों को. यह बिना सोचे-विचारे, युद्ध स्तर पर किए गए गलत फैसलों का नतीजा है, चाहे वह नोटबंदी हो या रिजर्व बैंक की अस्थिरता या सरकारी बैंकों के मामले में ऊहापोह आदि, जिन्होंने हमारी आर्थिक वृद्धि की दर को उस स्तर तक गिरा दिया जिसके बारे में हम यह सोच बैठे थे कि उसे हम 1980 के दशक में ही छोड़ कर आगे बढ़ चुके हैं. यही नहीं, हम आत्मघाती संरक्षणवाद की ओर भी लौटे. इस सरकार की आलोचना से परहेज करने वाले पानागढ़िया तक ने ‘दप्रिंट’ के ‘ऑफ द कफ’ कार्यक्रम के लिए एक बातचीत में मुझसे कहा कि यह संरक्षणवाद हमारी आर्थिक वृद्धि में से दो प्रतिशत-अंक तक की कमी ला देगा.

इस तरह के गंभीर, आपस में उलझे कई जटिल मसलों से त्रस्त इस दौर में इस देश और इस सरकार को अगर किसी एक चीज की जरूरत है तो वह है राजनीतिक जमीन और भरोसा बनाने की. उसे हकीकतों के आंतरिक आकलन की जरूरत है कि क्या उसने इन मसलों से निपटने के लिए यथासंभव सबसे बढ़िया माहौल बनाया है. या वह अभी भी ‘छप्पन इंच छाती’ के मोह में पड़ी है और किसी की परवाह न करने के मूड में ही फंसी है? इस स्तम्भ में पिछले एक दशक में मैं कई बार लिख चुका हूं कि भारत आज आंतरिक और बाहरी रूप से सबसे ज्यादा सुरक्षित स्थिति में है. 1960 के दशक वाले संकटग्रस्त दौर में अपना बचपन बिता चुके मेरे जैसे शख्स के लिए यह एक शानदार एहसास है लेकिन क्या आज भी ऐसा एहसास कायम है?

कई चीजें उलट गई हैं. बाहरी मोर्चे पर भारत को दोहरी चुनौती का सामना कर पड़ रहा है, और हमारे कुछ पड़ोसी देश भी किसी-न-किसी बहाने अधीर हो रहे हैं. चीन बेशक अपनी चाल चलने में लगा है, और वह क्यों न चले? आक्रामक पड़ोस और तनावग्रस्त अंतरराष्ट्रीय माहौल के चलते किसी भी सरकार के लिए विकल्प बेशक सीमित हो जाते हैं लेकिन क्या इसके साथ ही घरेलू राजनीति में भी निरंतर टकराव की स्थिति बनी रहनी चाहिए? बाहरी चुनौती के समय में भारत की एकजुटता एक मिसाल मानी जाती रही है, सिवा आज के. इसके लिए विपक्ष को ज़िम्मेदार नहीं माना जा सकता.

जब सीमा पर खतरा मंडरा रहा हो, ज्यादा मजबूत सेना हमलावर नज़र आ रही हो, तब पहला काम आप घर में अमन का माहौल बनाने का करते हैं. पुराने दिनों में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई जाती थी. हमें मालूम है कि बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव और मध्य प्रदेश में उपचुनाव होने हैं लेकिन इस तरह के संकट के दौर में किसी भी सरकार को अपनी जनता और राजनीति के एकजुट समर्थन की जरूरत होती है. भारत जैसा विशाल और विविधता भरा देश सामाजिक समरसता के बिना ताकतवर दुश्मन का मुक़ाबला नहीं कर सकता. मैं जानता हूं कि यह ऊंचे आदर्श की बात है, लेकिन क्या हम कुछ महीनों के लिए अपनी विभाजनकारी राजनीति को भूलकर इन संकटों से लड़ने पर ध्यान नहीं लगा सकते? इसकी पूरी जिम्मेदारी प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर ही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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