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Saturday, 21 December, 2024
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इमरान की वापसी लोकतंत्र की जीत और पाकिस्तान के लिए आपदा क्यों साबित हो सकती है

इमरान खान प्रकरण पाकिस्तान जैसे बड़े देश में लोकतंत्र से जुड़ी आशंकाओं के दुर्भाग्यपूर्ण विचारों को रेखांकित करता है.

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आप इमरान के समर्थक हैं या विरोधी? यह सवाल हम दो अलग-अलग तरीके से पूछ सकते हैं. एक तरह से यह सवाल  हो सकता है कि अगर आज पाकिस्तान में साफ-सुथरे ढंग से चुनाव हो तो इमरान जीतेंगे या नहीं? और दूसरी तरह से सवाल यह हो सकता है कि उनकी जीत पाकिस्तान के लिए शुभ होगी या आपदा?

पहले सवाल का जवाब तो बेशक यही है कि चुनाव में उनकी जीत होगी. पूरी जनता का आज उन्हें जिस तरह समर्थन हासिल है वैसा लंबे समय से किसी पाकिस्तानी नेता को नहीं हासिल हुआ. नवाज़ शरीफ को भी नहीं हासिल हुआ था जब वे अपने शिखर पर थे और बड़ी जीत हासिल कर सकते थे. या उन्हें उस तरह फटाफट और गलत तरीके से गद्दी से न हटाया गया होता. उनके समर्थक भी इतने ही मुखर और उग्र थे, लेकिन उन्होंने कभी फौज की ताकत को चुनौती नहीं दी थी.

इमरान की लोकप्रियता ने उस ऊंचाई को छू लिया है जैसा पाकिस्तान में पहले नहीं देखा गया. उनके प्रतिद्वंद्वियों, दुश्मनों और फौजी हुक्मरान समेत तमाम आलोचकों को पूरा यकीन है कि वे चुनाव आसानी से जीत जाएंगे, इसलिए फिलहाल तो वे चुनाव नहीं कराने जा रहे हैं. या मौका मिले तो अक्टूबर में तय समय तक भी तब तक चुनाव नहीं कराएंगे जब तक कि वे इमरान को चुनाव लड़ने के लिए संवैधानिक रूप से अयोग्य नहीं ठहरा देंगे.

दूसरे सवाल का जवाब और आसान है, कि अगर वे बड़े जनादेश के साथ चुनाव जीत गए तो यह पाकिस्तान के लिए एक आपदा साबित होगी.

इसकी वजह यह है कि वे जिन चीजों— अति लोकलुभावनवाद, उग्र व प्रतिशोधी राजनीति, इस्लामवाद, पश्चिम का विरोध (जो पाकिस्तानी नजरिए से महत्वपूर्ण है), भारत के प्रति अतिवादी नजरिया और आधुनिक अर्थनीति के प्रति असहिष्णुता— के पक्ष में हैं, वे पाकिस्तान को और गर्त में धकेल देंगी.

यह हमें दो और सवालों के सामने ला खड़ा करता है. एक, क्या आप पाकिस्तान में लोकतंत्र को नकारे बिना आप इमरान को रोक सकते हैं? दो, क्या पाकिस्तान इमरान की जीत को संभाल पाएगा?


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‘अरब स्प्रिंग’ (मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के देशों में लोकतंत्र समर्थक आंदोलनों) की विफलता के बाद भी जो लोग यह नहीं मानते कि बिना तैयारी के लोकतंत्र को स्थापित करना खतरनाक हो सकता है, उन्हें आज पाकिस्तान पर गहराई से विचार करना चाहिए.

इन तमाम सदियों में मानव जाति ने जिस लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास किया है वह उसकी सबसे महान उपलब्धियों में शामिल है, बेशक इसके साथ कई कमजोरियां भी जुड़ी हैं, लेकिन यह व्यवस्था विचारों, संस्थाओं, और विचार के व्यापक लोकप्रिय समर्थन के बिना कारगर नहीं हो सकती कि एक लोकतांत्रिक मगर संवैधानिक व्यवस्था के दायरे में शासन किस तरह चलाया जा सकता है.

लोकतंत्र की सफलता के लिए उसकी कमजोरियों के प्रति गहरा धैर्य रखना जरूरी है— ठीक वैसे ही जैसे संवैधानिक लोकतंत्र की विशिष्टता के मामले में भी धैर्य रखना जरूरी है, उदाहरण के लिए बहुमत की सीमाएं जैसी खासियत. नवाज़ शरीफ इसलिए सत्ता गंवाते रहे क्योंकि वे इसके महत्व को समझने में विफल रहे. और इमरान तो इसकी कोशिश तक नहीं करते.

यही वजह है कि जब पाकिस्तान की तमाम संस्थाएं बेदम हो रही हैं, तब निर्वाचित इमरान एक बदकिस्मत मगर ताकतवर मुल्क के लिए एक घातक साबित हो सकते हैं. इस मुद्दे पर पाकिस्तान की तथाकथित लोकतांत्रिक और उदारवादी ताक़तें और फौजी नेतृत्व एकमत है. यही वह मूल मुद्दा है, जिस पर विचार-विमर्श की जरूरत है.

आज जो हालात हैं उनसे साफ जाहिर है कि हुकूमत संभाल रहे गठबंधन को न तो वह साख हासिल है और न वह ताकत हासिल है कि बिखरी हुई राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के साथ 23 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले मुल्क का शासन संभाल सके.

अभी तक, ऐसे संकटों से बचने के लिए पाकिस्तान को एक पैराशूट हासिल था. मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि वह पैराशूट उसकी फौजी व्यवस्था थी. दिल से लोकतंत्र के समर्थक हम जैसे लोगों के लिए यह कतई एक मुकम्मल सोच नहीं है.

लेकिन सभी देशों, खासकर लोकतांत्रिक देशों को एक ठोस संस्थागत आधार की जरूरत होती है. पाकिस्तान के लिए हमेशा से यह आधार उसकी सेना रही है. उसकी न्यायपालिका, उसका चुनाव आयोग, भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाला उसका तथाकथित महकमा, और हमेशा से संदिग्ध नेशनल अकाउंटेबिलिटी ब्यूरो (एनएबी), सब के सब उसके लोकतंत्र या राष्ट्रहित की रक्षा करने में विफल रहे हैं.

उसकी सेना अब तक एक ऐसी संस्था रही है जो उसकी स्थिरता की गारंटी देती रही. लेकिन इमरान की इस लहर के सामने वह पाकिस्तान में अपने उस सर्वशक्तिशाली अतीत की छाया तक नहीं नज़र आ रही है. विडंबना यह है कि फिलहाल इस मुल्क की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसकी सेना ही सबसे कमजोर नज़र आ रही है.

आप सवाल कर सकते हैं कि हम उसकी फिक्र क्यों करें, पाकिस्तान को अपने किए का फल भुगतने दीजिए. उन्होंने ही इस तूफान को खड़ा किया, इस भयानक सेना को सिर पर चढ़ाया, जिसने हमें भी परेशान किया, आदि-आदि. ये सब जायज तर्क हैं. दूसरों को परेशानी में देखकर खुश होने का अलग ही मजा है. आज यह अच्छी बात है या नहीं इस पर बाद में विचार कर सकते हैं. इस सप्ताह हम इस बात पर विचार कर रहे हैं कि पाकिस्तान जैसे बड़े देश में लोकतंत्र अगर खतरे में है तो इसके क्या दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे हो सकते हैं.

‘अरब स्प्रिंग’ क्यों और कैसे विफल हुआ? एक के बाद एक अरब मुल्क में, तमाम तहरीर चौराहों का जोश जब उतर गया तब चुनाव हुए, जिसे लोकतंत्र के पक्ष में उभार समझा जा रहा था वह मूलतः दशकों के फौजी, लोकलुभावन और लगभग सेक्युलर तानाशाहों के खिलाफ जन विद्रोह था. इसकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया लोकतांत्रिक नहीं, मगर इस्लामिक रूप में आई, उदारवादी रूप में तो बिलकुल नहीं. मजहब इन आंदोलनों का ईंधन था.

इसलिए आश्चर्य नहीं कि मुल्क में एक के बाद एक इस्लामवादियों की जीत होती गई. यह कुल मिलाकर ‘मुस्लिम भाईचारे’ का ही एक रूप था, जिसमें एक ट्यूनीशिया ही कुछ हद तक अपवाद था. सबका असली चेहरा सामने आ गया. इसकी शुरुआत मिस्र से हुई, जहां सेना फिर लौट आई और उसने वापस यथास्थिति ला दी. और उसने जब यह किया तब उसे व्यापक जनसमर्थन हासिल हुआ. इसकी वजह यह थी कि मिस्र वालों ने उस तरह के इस्लामीकरण की उम्मीद नहीं की थी जैसी निर्वाचित सरकारों ने शुरू की थी.

‘अरब स्प्रिंग’ की सफलता का एक उदाहरण माने जा रहे ट्यूनीशिया ने भी वही रास्ता पकड़ा. उसका बेहद लोकप्रिय ‘जन नेता’ भी, जिसे पूरा पश्चिम जगत सच्चा लोकतांत्रिक नेता मान रहा था, अब एक स्वार्थी तानाशाह में बदल गया है. यह बदलाव कितना नाटकीय और बुरा रहा, इसका अंदाजा आप मेरे शो ‘कट द क्लटर’ की इस कड़ी से लगा सकते हैं.

अरब दुनिया में, लोकतांत्रीकरण का मतलब इस्लामीकरण रहा है. फौजी किस्म की तानाशाही ने अब तक मजहब और मुल्लाओं को नियंत्रण में रखा, चाहे यह क्रूर दमन के बूते न भी हुआ हो. चुनावों के जरिए मिली वैधता की मुहर के बूते इस्लामवादियों ने अपना विस्तार शुरू किया. इसने ‘मुस्लिम भाईचारे’ के नये समर्थकों का हौंसला बढ़ाया, जैसे तुर्की के रेसेप तय्यिप एर्दोगन का जिसने उसके मुख्य रूप से सेक्युलर और आधुनिक लोकतंत्र का तेजी से इस्लामीकरण कर दिया और निर्वाचित तानाशाही ला दी. अनुशासित की जाने के बाद पाकिस्तानी फौज नहीं चाहेगी कि नये निर्वाचित नेता इमरान उसके लिए मोहम्मद मोरसी साबित हों.

आप हड़बड़ी में लोकतंत्र नहीं ला सकते. इसके लिए आपको दशकों तक जमीन पर कड़ी मेहनत करने, जन आंदोलन चलाने, विचारों और सिद्धांतों का विकास करने, संस्थाओं के बारे में समझ बनाकर उनका निर्माण करने, और अंततः एक निर्वाचित बहुमत की सीमाओं को कबूलने की परिपक्वता दिखाने का धैर्य पैदा करना होता है.

कोई भी लोकतंत्र मुकम्मल नहीं होता, भारत का भी नहीं है. यहां इसकी काफी तैयारी आज़ादी के आंदोलन के दौरान की कर ली गई थी. आज़ादी के बाद भी देश के कुछ हिस्सों में किसी-न-किसी तरह का जन आंदोलन चलता रहा. या इमरजेंसी और उसके खिलाफ हुए संघर्ष जैसी ऐतिहासिक घटनाएं भी हुईं.

लेकिन इनमें से किसी भी अरब मुल्क ने इस तरह की तैयारी नहीं की थी. इसलिए उनके पास ऐसा नेता नहीं था, जो यह जानता हो कि लोकतंत्र का क्या करना है.

इस मामले में पाकिस्तान उतना बुरा या पिछड़ा नहीं है. वहां भी जन आंदोलन हुए, और कई नेता उभरे लेकिन उसे अभी भी लंबी दूरी तय करनी है. सबसे बड़ी बात यह कि उसे अभी भी अपने अंदर वह धैर्य विकसित करना है जो लोकतंत्र के लिए चाहिए. अपनी सरकार को न पसंद करते हुए भी कबूल करने, उसे बदलने के लिए अगले चुनाव तक इंतजार करने का धैर्य.

आपमें वह धैर्य पैदा हो और बना रहे इसके लिए आपको भरोसेमंद और मजबूत संस्थाओं की जरूरत होती है, वैसी हास्यास्पद नकल की नहीं जैसी पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट बन गई है. इस कोर्ट ने एक निर्वाचित, और मजबूत बहुमत पाए एक प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को इसलिए नहीं बर्खास्त कर दिया था कि वे भ्रष्टाचार करने के दोषी पाए गए थे, बल्कि इसलिए कि वे ‘सादिक़’ (कभी झूठ न बोलने वाले) और ‘अमीन’ (कभी किसी को धोखा न देने वाले) नहीं पाए गए थे इसलिए वे शासन करने के काबिल नहीं पाए गए थे. ऐसी बातों को भला गंभीरता से कौन लेगा? खासकर तब जबकि पाकिस्तानी ‘सिस्टम’ इतना टूट-बिखर चुका है.

मैं नहीं जानता कि लुटिएन्स (मूल) की टीम में किसे यह सूझा था कि नॉर्थ ब्लॉक के प्रवेश द्वार पर ये शब्द खुदवाए कि ‘स्वाधीनता जनता की गोद में नहीं उतरेगी, जनता को उसे ऊपर उठकर हासिल करना होगा. यह वह वरदान है, जिसका लाभ उठाने के लिए उसे हासिल करना जरूरी है.’ दशकों पहले जब मैंने इन शब्दों को वहां पढ़ा था तब मैंने यह निजी मंशा पाली कि इसके ऊपर रेत की परत चढ़ा दूं. वैसे, ऐसे मौके भी आए जब मुझे यह एहसास हुआ कि विदा लेते अंग्रेज़, चाहे वे कितने भी रूखे क्यों न रहे हों, हमसे कुछ महत्वपूर्ण बात कह रहे थे. पाकिस्तान के समझदार लोगों और संस्थाओं के लिए भी इन शब्दों को आज पढ़ना काम का साबित हो सकता है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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