‘कोई कौवा अगर मंदिर के शिखर पर बैठ जाए तो क्या वह गरुड़ बन जाएगा?’ यह सवाल उठाया है आरएसएस के सरसंघचालक (चीफ़) मोहन भागवत ने. वे गुरुवार को पुणे में संजीवनी व्याख्यानमाला में व्याख्यान दे रहे थे. उन्होंने भारत को ‘विश्वगुरु’ के रूप में देखने की संघ की ख़्वाहिश भी दोहराई, जिसकी चर्चा मोदी सरकार और भाजपा ने इन दिनों बंद कर दी है. इसकी जगह विदेश मंत्री एस. जयशंकर अब ‘विश्वमित्र’ बनने की बात कर रहे हैं.
ऐसे बयान हालांकि जुमले लग सकते हैं लेकिन ये ऐसे हैं नहीं. ऐसा लगता है कि ये देश में सांप्रदायिक संबंधों को बदलने के संकल्पबद्ध प्रयासों के तहत उभरने वाले महत्वपूर्ण उदगार हैं. ये भाजपा के लिए भी और खासकर हिंदी प्रदेशों में उसके जनाधार के लिए भी उपदेश सरीखे हैं, जो इन दिनों हर मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष होने के दावे कर रहा है. संभल और अजमेर शरीफ इसके ताजा उदाहरण हैं.
चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे सभी दावों पर रोक लगा दी है और वह 1991 के ‘उपासना स्थल अधिनियम’ को चुनौती देने वाली अर्जियों पर विचार कर रहा है इसलिए भागवत के बयान को इस संदर्भ में भी देखा जा सकता है.
अब, सरसंघचालक ही जब ऐसी गतिविधियों और आंदोलनों को रोकने की बात कर रहे हैं तो आपको उस पर ध्यान देना ही पड़ेगा, चाहे आप भाजपा के समर्थक हों या आलोचक. भागवत ने स्वयंभु हिंदू नेताओं की ओर इशारा करते हुए साफ-साफ शब्दों में कहा कि कुछ लोग सोचते हैं कि वे इस तरह के मंदिर-मस्जिद विवादों को उठाकर हिंदू नेता बन सकते हैं. यह मंदिर के शिखर पर बैठे कौवे के गरुड़ बनने की ख़्वाहिश वाले उनके बयान को स्पष्ट करता है.
उनके इसी उपदेश में ‘विश्वगुरु’ बनने की महत्वाकांक्षा को जगाने की बात भी शामिल है. उन्होंने कहा, “भारत किसी युद्ध में विजय के कारण या भाषा, संस्कृति अथवा आस्था या साझा रणनीतिक हितों की वजह से एक राष्ट्र नहीं बना. भारत अपनी अनूठी प्राचीन विचारधारा और समावेशी संस्कृति के कारण एक राष्ट्र बना. हमने सबको अपना माना. एकता का अर्थ इस विविधता को नष्ट करना या एकरूपता कायम करना नहीं है.” इसके बाद वे अपना बड़ा विचार रखते हैं : “हम विविधता में एकता की बात करते रहे हैं, अब हमें विविधता को ही एकता मानना होगा.”
उन्होंने कहा कि भारत को “शत्रुता पैदा करने वाले या पुराने संदेहों को जगाने वाले तमाम मसलों से परहेज करने का एक छोटा सा प्रयोग करना चाहिए. यह प्रयोग दुनिया को यह दिखाएगा कि हम सब शांतिपूर्वक साथ रह सकते हैं.” विश्वगुरु के बारे में उनका विचार इन शब्दों से स्पष्ट होता है, “जब हम दुनिया को ऐसा करके दिखा देंगे तभी हम स्वतः विश्वगुरु बन जाएंगे.”
धर्मनिरपेक्षता के समर्थक, और राजनीतिक दल जबकि भागवत के व्याख्यान का विश्लेषण कर रहे हैं, हैरानी की बात है या इसे आश्चर्य नहीं भी मान सकते हैं कि उनके व्याख्यान की आलोचना धुर दक्षिणपंथी खेमे की ओर से की गई है. खासकर सोशल मीडिया पर कई लोग कह रहे हैं कि भागवत का दिमाग खराब हो गया है, कि सभी हिंदुओं की ओर से बोलने का उनका दावा बड़बोलापन है, कि वे मंदिर-मस्जिद के इन तमाम मसलों पर रोक लगाने की बात तो कर रहे हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि लोग रुक जाएंगे, क्योंकि यह “कई सदियों तक मुसलमानों के विभिन्न वंशों के राज में हिंदुओं के साथ तमाम तरह के जो अत्याचार किए गए” उनका इंसाफ पाने के लंबे इंतजार का नतीजा है.
इसकी परीक्षा जल्दी ही हो जाएगी जब मोदी सरकार ‘उपासना स्थल अधिनियम’ के बारे में सुप्रीम कोर्ट में अपना जवाब दायर करेगी. देखना यह है कि वह इस अधिनियम का बचाव करती है या इसके खिलाफ वैसा ही रुख अपनाती है जैसा कि उसके समर्थकों का है, या गोलमोल रवैया अपनाती है. उसके जवाब से यह भी साफ हो जाएगा कि सरसंघचालक की बातों को अब कितनी गंभीरता से लिया जाता है.
भागवत ने काफी महत्वपूर्ण और काफी विस्तार से बयान दिया है. वे आपको अतीत में ले जाकर महत्वपूर्ण बयान देते हैं कि समावेशन की प्रक्रिया चल रही थी लेकिन औरंगजेब ने आकर इसे नष्ट कर दिया. इसके बाद भागवत बताते हैं कि 1857 में एक मौलवी और संत ने राम मंदिर हिंदुओं को सौंपने का फैसला किया था. गोवध पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी गई थी. इस एकता को देख अंग्रेजों के कान खड़े हो गए और उन्होंने हमें फिर से बांट दिया. “इसका अंत पाकिस्तान के निर्माण में हुआ. हम किसी को फिर ऐसी गड़बड़ी नहीं करने दे सकते.”
दरअसल, यह 2 जून 2022 को नागपुर में आरएसएस के पदाधिकारियों के प्रशिक्षण शिविर में दिए गए उनके संबोधन का अंश है. उन्होंने कहा था कि हमें हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग खोजने से बाज आना चाहिए. लेकिन संभल या अजमेर में जो लोग दावे कर रहे हैं उनसे साफ है कि वे सरसंघचालक की बातों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. शायद इसीलिए उन्होंने ऐसे लोगों को याद दिलाने के लिए यह व्याख्यान दिया.
हिंदुत्ववादी राजनीति की कुछ विकृतियों को ठीक करने के लिए भागवत ने यह कोई पहली कोशिश नहीं की है. उदाहरण के लिए, 15 नवंबर 2022 को अंबिकापुर में आरएसएस के स्वयंसेवकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि भारत में हिंदुओं और मुसलमानों के डीएनए समान हैं इसलिए वे समान हैं. कट्टर हिंदुत्ववादियों ने उनके इस बयान को भी बहुत पसंद नहीं किया था.
लेकिन सवाल यह है कि वे इन मुद्दों पर अक्सर, और आज इतना ज़ोर देकर क्यों बोल रहे हैं? आइए, इस सवाल के कुछ संभावित जवाबों पर विचार करें. आरएसएस के मुखिया देशभर में फैले अपने कार्यकर्ताओं के व्यापक नेटवर्क से मिलने वाली जानकारियों के आधार पर अक्सर चलते हैं. और ऐसा लगता है कि उन्हें अपनी भाजपा की राजनीति को भटकाने वाले विवादों को लेकर चिंता होती है. आखिर, इससे आरएसएस भी बदनाम होता है.
दूसरे, दुनिया के कई हिस्सों में जिसे बुरी, उग्रवादी विचारधारा के रूप में देखा जाता रहा है उसकी बुरी छवि इन विवादों के कारण बनती है, और यह धारणा मजबूत होती है कि हिंदू उग्रवाद सिर उठा रहा है. जो भी हो, बड़ी चिंता इस बात की है कि हिंदुओं का नेतृत्व भाजपा और आरएसएस के हाथों में ही रहे, वह प्रोटोजोआ की तरह जन्म लेते और फैलते फ्रेंचाइजी में के हाथों में न चला जाए.
यह एहसास बढ़ रहा है कि जगह-जगह उभरता मंदिर-मस्जिद वाला यह विवाद इसी तरह फैलता रहा तो उसकी अपनी सरकार के लिए अमन-चैन और कानून-व्यवस्था को बनाए रखना मुश्किल हो जाएगा. इससे उन सबकी बदनामी होगी और अंततः वे आलोकप्रिय हो जाएंगे. इसलिए, ‘हमें इसे जारी नहीं रहने देना चाहिए’.
अगर आप आरएसएस के आलोचक हैं, तो आप इन बातों पर संदेह जाहिर करते हुए इसे खारिज कर सकते हैं लेकिन जरा गहराई से विचार कीजिए. यह ‘स्मार्ट’ राजनीति भी हो सकती है, क्योंकि भाजपा की सरकार लंबे समय तक बनी रहे, इसमें आरएसएस से ज्यादा बड़ा किसका दांव हो सकता है. इस लिहाज से भागवत का बयान काफी तार्किक हस्तक्षेप दिखता है.
अब एक नये तरह का हिंदुत्ववाद उभर रहा है, जो इतिहास को ‘दुरुस्त’ करने के लिए पारंपरिक अर्थों में उग्रपंथी और हथियारबंद तरीकों की जगह कानूनी तरीकों का इस्तेमाल कर रहा है. वे पार्टी दफ्तरों की चारदीवारी से बाहर निकलकर सड़कों पर, और उसके बाद छोटे शहरों की गलियों में उतर रहे हैं. स्थानीय अदालतों में याचिकाएं दायर करने के बाद वे लोकल मीडिया, यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया को हथियार बना रहे हैं. इसके बाद मुख्यधारा के टीवी चैनल भी उनके साथ चल पड़ते हैं. विपक्षी दल के प्रवक्ता अपने बने-बनाए विचारों के साथ कूद पड़ते हैं, और इस तरह एक और संकट उभर आता है.
सवाल यह है कि देश या भाजपा सरकार भी कितने संभल संभाल सकती है? अगर यह सब इसी तरह बेलगाम जारी रहा तब इस तरह की राजनीति करके मजबूत बनने वाली इसी भाजपा की राज्य सरकारों को अपना राज्य संभालना मुश्किल हो जाएगा. यह भाजपा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश कहना इसलिए पसंद करती है क्योंकि इसका हिंदू बहुमत यह चाहता है. वास्तव में, यह एक ठोस तर्क है. इसलिए, हिंदुओं का भी और उनका प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली पार्टी का भी सबसे बड़ा हित इसी में है कि सबको साथ लेकर चले.
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