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Saturday, 13 September, 2025
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Gen Z ने नेपाल में तख़्तापलट तो दिया, लेकिन भारत में ऐसा कभी क्यों नहीं हो सकेगा

किसी सरकार को सच में चलने और लंबे समय तक टिके रहने के लिए सिर्फ नेता, पार्टी या विचारधारा ही नहीं, बल्कि मजबूत और सक्रिय संस्थाएं भी चाहिए.

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सख्त सत्ता या नरम सत्ता जैसे कोई चीज होती है क्या? अगर हम यह कहें कि सत्ता तो बस एक सत्ता है, तो क्या होगा? उसमें इतनी ताकत होनी चाहिए कि वह एकजुट, स्थिर और सुव्यवस्थित बनी रहे. यह अंतिम वाक्य मेरा नहीं, किसका है यह मैं आपको आगे बताऊंगा.

नेपाल को ही ले लीजिए. इसकी राजधानी में Gen Z के एक दिन के ही विरोध प्रदर्शनों में संवैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार जिस तरह गिर गई उसका पिछले तीन वर्षों में इस उपमहादेश में यह तीसरा उदाहरण है. इससे पहले श्रीलंका (कोलंबो, जुलाई 2022), और बांग्लादेश (ढाका, अगस्त 2024) में ऐसा हो चुका है. जैसा कि हम अक्सर कहते हैं, पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांत का हवाला देते हुए, यह तीन-उदाहरण नियम के अनुरूप है. हम सोशल मीडिया पर भी काफी कोलाहल देख रहे हैं, जो ज़्यादातर भाजपा के खेमे से उठ रहा है जिसमें कई जाने-माने तथा प्रतिष्ठित नाम भी शामिल हैं. कहा जा रहा है कि ‘सत्ता के आकांक्षी’ तत्व चाहते हैं कि भारत में मोदी सरकार के साथ भी ऐसा होना चाहिए, कि इसे ये तत्व सत्ता परिवर्तन के ‘टूल-किट’ (औज़ार) के रूप में देखते हैं.

आइए, हम अपवादों पर नजर डालें. हर सरकार जनता के विरोध के दबाव में गिर नहीं जाती. मुझे मालूम है, या सुपर उकसाऊ उदाहरण है. लेकिन क्या आपको याद है कि 9 मई 2003 को पाकिस्तान में क्या हुआ था?

इमरान खान के समर्थकों ने एक नहीं बल्कि कई शहरों में बलवा खड़ा कर दिया था, उन्होंने लाहौर के जिन्ना हाउस में कोर कमांडर के घर पर भी हमला कर दिया था. कोलंबो, ढाका, या काठमांडो के मुक़ाबले वहां की स्थिति में ‘हुकूमत’ को उखाड़ फेंकने की संभावनाएं कहीं ज्यादा थीं. उस समय बदनामी झेल रही  फौज की कठपुतली मानी गई असैनिक हुकूमत सबसे लोकप्रिय जन नेता को जेल में बंद करने के कारण व्यापक नफरत झेल रही थी.

लेकिन वह ‘इंकलाब’ 48 घंटे में खत्म हो गया था. उसके नेता इमरान अभी भी जेल में बंद हैं और अब उन्हें 14 साल की जेल की सजा सुना दी गई है. वह गठजोड़ अभी भी सत्ता में कायम है, जिसे एक और चुनावी धांधली से नयी ज़िंदगी दे दी गई है. और तमाम सामाजिक-आर्थिक तथा लोकतांत्रिक मांगें जस की तस बनी हुई हैं. 250 से ज्यादा विरोधी नेताओं के खिलाफ फौजी अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं. और सरकार कहीं ज्यादा ताकतवर नजर आ रही है.

क्या पाकिस्तानी हुकूमत इसलिए सलामत रही क्योंकि वह एक सख्त हुकूमत थी जबकि श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल की सरकारें सख्त नहीं थीं? निश्चित ही, भले ही आसिम मुनीर ऐसा न सोचते हों. वरना 16 अप्रैल के अपने कुख्यात भाषण में उन्होंने पाकिस्तान का यह आह्वान न करते कि “हमें एक सख्त देश बनना होगा”.

हकीकत यह है कि पाकिस्तानी हुकूमत इसलिए सलामत रही क्योंकि वह अभी भी क्रियाशील है. कानून-व्यवस्था किसी भी क्रियाशील देश की जान होती है. यहां असली चीज सख्त या नरम होना नहीं बल्कि क्रियाशील होना है. कोई भी सत्ता तब तक क्रियाशील नहीं हो सकती जब तक वह कानून-व्यवस्था बनाए रखने में सक्षम न हो. कानून-व्यवस्था बनी हो तो हुकूमत वैसे विनाशकारी रूप से विफल नहीं हो सकती जैसी कोलंबो, ढाका और अब काठमांडो में हुई.

सत्ता परिवर्तन हमेशा एक लोकतांत्रिक आकांक्षा हो सकती है. लेकिन इसके लिए चंद दिनों के विरोध प्रदर्शन, दंगे और आगजनी से ज्यादा कुछ चाहिए. राजनीतिक विकल्प खड़ा करने के लिए वर्षों नहीं तो महीनों की मेहनत और संघर्ष की जरूरत होती है, और जो क्रांति आप चाहते हैं उसके लिए जनता के बीच जाना पड़ता है, उसे चुनाव या जनांदोलन के बूते लाना पड़ता है.

काठमांडो में एक धक्के से ही जो पतन हुआ वह हमें यही बताता है कि वहां की हुकूमत अक्रियाशील थी. वह निर्वाचित सरकार तो थी मगर उसके नेताओं में वह नहीं था, जो शासन चलाने की पहली शर्त होती है: लोकतांत्रिक धैर्य.

जवानी से लेकर मध्यवय तक गुरिल्ला लड़ाकों वाली ट्रेनिंग पाए उसके नेता दलबदल और बदलते गठजोड़ों के जरिए कुर्सी बदलने के संदिग्ध खेल में लगे रहे, निर्वाचित नेताओं के रूप में ‘दूसरे’ नाराज लोगों से निबटने का उन्हें कोई अनुभव नहीं था. एक समय था जब माओवादी नेता बदलाव के नायकों के रूप में उभरे थे. लेकिन सत्ता में आने के बाद वे भूल गए कि यही लोग उनसे नाराज हो सकते हैं. और जब वे नाराज हुए तब उनका भरोसा जीतने और अपनी साख बनाने के लिए उनसे बात करने की जरूरत थी, उन पर बुलेट चलाने की नहीं.

बंदूक को लोकप्रियता और सत्ता हासिल करने का हथियार बनाया गया. 2008 में राजशाही के खात्मे के बाद के 17 वर्षों में कभी उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं को बनाने और उन्हें मजबूत करने का काम नहीं किया. अगर उन्होंने ऐसा किया होता तो इन संस्थाओं ने ही उनकी रक्षा की होती. विरोध प्रदर्शन कर रही जनता ने अंत में जिस संस्था पर भरोसा किया वह अगर सेना है, तो यह नेपाल के क्रांतिकारी राजनीतिक तबके की भारी विफलता को ही उजागर करता है. उसने कभी एक क्रियाशील हुकूमत का निर्माण नहीं किया.

एक सख्त हुकूमत काफी कमजोर भी हो सकती है. इस मामले में सबसे अहम उदाहरण मैं सोवियत संघ के एक गणराज्य रहे जॉर्जिया का दे सकता हूं. इतिहास में समाजवादी सोवियत संघ (यूएसएसआर) से ज्यादा सख्त हुकूमत का दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, लेकिन पहली बार जब 1988-89 में इसके खिलाफ विरोध इसके गणराज्य जॉर्जिया में फूटा तो वह घबरा गई. उसने अपनी लाल सेना के साथ स्पेशल फोर्सेस और हथियारबंद केजीबी को वहां भेज दिया, जिन्होंने वहां बुलेटों और जहरीले गैस की बारिश कर दी. उसने एक ठेठ सांडनुमा सख्त हुकूमत का रूप दिखा दिया. वह विफल रही.

उसकी बदनाम पार्टी हुकूमत की अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी, वह असहमति से निबटना नहीं जानती थी. असहमत व्यक्तियों की तो वह हत्या करवा सकती थी या किसी दूर के गुलग में भेज सकती थी. लेकिन सामूहिक विरोध उसके लिए वोदका के जाम के समान नहीं था.

इसकी बेहतर समझ हमें तब हासिल हुई जब राजीव गांधी सरकार में गृह मंत्री रहे बूटा सिंह ने मुझे और मेरे तब के संपादक अरुण पुरी को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया. उन्होंने बताया कि हाल में उन्होंने रूसी विदेश मंत्री एडुआर्ड शेवर्नदेज़ (जॉर्जिया मूल के) को आमंत्रित किया था, तब शेवर्नदेज़ ने “मुझसे पूछा कि हम लोग लाखों लोगों के प्रदर्शनों से कैसे निबटते हैं, जबकि उनकी सेना ने तिबिलिसी में एक छोटी भीड़ पर जहरीली गैस छोड़ दी”.

बूटा सिंह ने हमें बताया: “मैंने कहा, मान्यवर मैं आपको अपनी सीआरपीएफ की कुछ कंपनियां उधार दे सकता हूं.” सबक यह था कि हुकूमत को कानून-व्यवस्था बनाकर रखना ही होगा. इसकी तीन शर्तें हैं: सही प्रशिक्षण प्राप्त वर्दीधारी पुलिसबल हो, वार्ता चलाने का कौशल और लोकतांत्रिक धैर्य हो, या जिम्मेदारियां बदलने की तैयारी हो.

आज जो विमर्श चल रहा है वह विपक्ष की नामौजूदगी को सख्त हुकूमत के लिए जरूरी मानने की गलती कर रहा है, जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है. विपक्ष तनाव को बाहर निकालने के वॉल्व के रूप में काम करता है. आपके राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, या कोर कमांडर के घरों को निशाना बनाने की जगह लोग विपक्ष के माध्यम से अपना गुस्सा निकाल सकते हैं. हमारे चारों पड़ोसी देशों ने विपक्ष को अलग-अलग पैमाने पर बहिष्कृत कर रखा है.

यहां पर हम अपने इस पुराने सवाल पर आते हैं कि क्या यह भारत में हो सकता है? किसी ‘टूल-किट’ के जरिए सत्ता परिवर्तन? यह यहां क्यों नहीं हो सकता इसे फौरन हम यह याद करके समझ सकते हैं कि संवैधानिक लोकतंत्रों में ‘हुकूमतें’ नहीं होतीं.

भारत में एक समय पर दर्जनों विद्रोह तो चल सकते हैं, पिछले 50 वर्षों में हमने देखा कि सत्ता को ‘सड़क’ से किस तरह दो गंभीर चुनौतियां मिलीं. पहली चुनौती जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नवनिर्माण आंदोलन से मिली, जो 1974 में शुरू हुआ था जिसे जॉर्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में चली रेल हड़ताल से मजबूती मिली. इसने भारत को ठप कर दिया था. लेकिन यह इंदिरा गांधी का तख़्ता नहीं पलट सका, इसके लिए एक चुनाव की जरूरत पड़ी.

दूसरी चुनौती अण्णा हज़ारे के तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से मिली, जिसे नये उभरे टीवी और विपक्ष के ताकतवर तत्वों, खासकर आरएसएस का समर्थन मिला, जो जेपी आंदोलन में भी जुड़ा था. लेकिन यूपीए-2 जैसी कमजोर सरकार में इतनी ताकत थी कि वह इस चुनौती से निबट सकी.

जन लोकपाल बिल पर आधी रात के बाद तक चली बहस ने मसले को निबटा दिया. स्वघोषित गांधी, अण्णा हज़ारे द्वारा संसद और निर्वाचित नेताओं पर कसे गए तंज़ के जवाब में दिवंगत शरद यादव ने जो जवाब दिया उसने निबटारा कर दिया. उन्होंने फॉर्बिसगंज से चुने गए समाजवादी पार्टी के अपने साथी सांसद पकौड़ी लाल की ओर इशारा करते हुए कहा कि जरा इनके बारे में सोचिए! इस सिस्टम के कारण ही इनके जैसा साधारण आदमी यहां तक पहुँच सकता है. क्या आप इसी सिस्टम को नष्ट करने के लिए आए हैं? अण्णा आंदोलन उसी घड़ी समाप्त हो गया. संसद सत्ता की रक्षा के लिए उठ खड़ी हुई.

अंत में, मैं आपको बताना चाहूंगा कि यह टिप्पणी किसने की थी कि “सत्ता-तंत्र में वह ताकत होनी चाहिए कि वह एकजुट रह सके”. 210 में जब कश्मीर घाटी में सामूहिक पत्थरबाजी और आतंक अपने चरम पर था तब मुख्यधारा से कई तरह की आवाजें उभर रही थीं. कहा जा रहा था कि कश्मीर के लोग जब इतनी असंतुष्ट हैं तब उन्हें अलग क्यों न होने दिया जाए? तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने उपरोक्त वाक्य एक बातचीत के दौरान अपनी मुट्ठी अपनी हिम्मत की तरफ तानते हुए कहा था. मुझे उम्मीद है, करीब 15 साल पहले कही गई उनकी बात को याद करने के लिए वे मुझे माफ कर देंगे. लेकिन आज देखिए कि घाटी किस हाल में है. वैसे, उस समय वही यूपीए-2 सरकार थी जिसके बारे में यह धारणा व्यापक है कि वह एक नरम सरकार थी.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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