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Saturday, 23 August, 2025
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ट्रंप के साथ वार्ता की मेज पर पहुंचा यूरोप, इसमें भारत के लिए है एक सबक

पुतिन इसे अपनी जीत मान रहे हैं. यूरोपीय देशों ने बड़े पश्चिमी गठबंधन को बचाने के लिए ट्रंप की शर्तों पर उनसे समझौता करने का फैसला किया है. अब देखते हैं कि भारत के लिए इसमें क्या सबक छिपा है.

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एक पल के लिए उस तस्वीर पर गौर कीजिए, जिसे आगे कई पीढ़ियों तक याद किया जाता रहेगा: वोलोदिमीर जेलेंस्की समेत सबसे बड़े यूरोपीय संघ के नेता ‘शाही हेडमास्टर’ डॉनल्ड ट्रंप के सामने माफी मांगते हुए स्कूली बच्चों की तरह बैठे हैं.

इस तस्वीर को देखकर सबसे पहले आपके अंदर कौन-सी भावना उभरती है? सहानुभूति की या मनोरंजन की या दया की या पर पीड़ासुख की, या नई उभरती विश्व व्यवस्था के एहसास की? वैसे, पूरी संभावना यह है कि सहानुभूति को छोड़ इस सबका मिलाजुला एहसास ही मन में उभरेगा और ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं होगा क्योंकि आज हम ट्रंप के सबसे ज्यादा सताए हुए हैं. आगे हम एक मौके पर यही सलाह देंगे कि हम आवेश में उभरने वाली भावना से उबर जाएं.

हम देख सकते हैं कि कम-से-कम एक नेता तो ऐसा है जिसके मन में इस तरह का कोई भावनात्मक घालमेल नहीं है. व्लादिमीर पुतिन इस सबको खालिस हिकारत की नज़र से देखते हैं. दुनिया के सबसे अमीर, सबसे ताकतवर देश; सबसे बड़ी तीसरी और छठी अर्थव्यवस्थाएं, दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक खेमा (ईयू); परमाणु हथियारों से लैस दो P5 देश, सबके सब घुटने टेके नज़र आए.

वे सब उस एकमात्र नेता के दरबारी चापलूस बने नज़र आए, जो आज पश्चिमी खेमे में अहमियत रखता है, जबकि पुतिन इस खेमे को कमज़ोर करने में लगे हैं. इसे ओवेन मैथ्यूज ने ‘द स्पेक्टेटर’ में अपने एक लंबे लेख ‘पुतिन्स ट्रैप : हाउ रशिया प्लान्स टु स्प्लिट द वेस्टर्न अलायंस’ में विस्तार से स्पष्ट किया है.

पुतिन इसे इस बात की स्वीकृति के रूप में देखते हैं कि युद्ध उन्होंने जीता है. इस जीत को परिभाषित करना पूरी तरह उन पर निर्भर है. यूरोपीय लोग इसे उलटे रूप में देखते हैं, जिन्हें अब इसे एक बहुत बुरी हार के रूप में देखने की ज़रूरत नहीं है.


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पुतिन को अब पता चल गया है कि उन्होंने 2022 में जो आक्रमण शुरू किया था, सिर्फ उसमें कब्जाए गए इलाके ही नहीं बल्कि क्रीमिया और डॉनबास भी उनके अपने हैं. यह यूक्रेन के विशाल भूभाग के करीब 20 फीसदी के बराबर है. इसके अलावा, पूरब की ओर ‘नाटो’ का विस्तार अब इतिहास की बात हो गई है. ट्रंप यह अक्सर कह चुके हैं. हमें यह तो मालूम है कि वे फिल्मों में दिखने वाले रंगीनमिजाज शाही तानाशाह की तरह अपना दिमाग अक्सर बदलते रहते हैं, लेकिन इस बात की संभावना कम ही है कि वे अचानक यूक्रेन और यूरोप की सपनीली मांगों का समर्थन करने लगेंगे, जिन मांगों में पुतिन की हार शामिल है. इसके लिए अमेरिका की पूर्ण भागीदारी ज़रूरी है. उन्होंने साफ कर दिया है कि वे क्या रियायत कर सकते हैं. पुतिन उसे कबूल करके और ज्यादा के लिए वार्ता कर सकते हैं.

रूस को भारी नुकसान हुआ है, लेकिन उसने हमला जारी रखा है, चाहे प्रगति कितनी ही धीमी और खर्चीली क्यों न हो. अगर इस मुकाम पर शांति कायम होती है तो पुतिन अपनी जीत का ऐलान कर सकते हैं. वे अपनी विजय घोषणा क्रीमिया या मारीउपोल से कर सकते हैं. शांति बहाल होने के बाद आर्थिक प्रतिबंध भी हट जाएंगे. तब वे अपनी अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत बनाने में लग जाएंगे. उनका वजन इस बात से बढ़ा है कि उन्होंने ट्रंप को यह विश्वास दिला दिया है कि वे लड़ना जारी रख सकते हैं, चाहे उसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े.

यूक्रेन को अर्ध-संप्रभु देश में बदलने की पुतिन की बड़ी मांग, जिसमें सरकार उनकी पसंद की हो, अगर खारिज कर दी गई है तो इसकी वजह यह है कि यूक्रेन ने अविश्वसनीय बहादुरी और चुस्ती से लड़ाई लड़ी. पश्चिमी मित्र देशों और अमेरिका ने संसाधनों से बेशक उसकी मदद की, लेकिन यूक्रेनियों ने एक संप्रभु देश के रूप में अपना जैविक वजूद इतनी लंबी लड़ाई लड़ कर और पुतिन के रूस जैसे कठोर देश से उतनी कीमत वसूल करके बचाया है जिसे वही बर्दाश्त कर सकता था.

उन्होंने दुनिया को ड्रोन के बूते दूर जाकर ऐसे पैमाने पर युद्ध लड़ना सिखाया है जिससे मोसाद जैसे ताकतवर संगठन और इज़रायल की सेना को भी ईर्ष्या हो सकती है. मात्र 3.5 करोड़ की छोटी-सी आबादी के (जिसका करीब 20 फीसदी हिस्सा दूसरे देशों में शरणार्थी बनकर रह रहा है) अनुपात से हताहतों की भारी संख्या को उसने बड़ी बहादुरी से बर्दाश्त किया है. उन्होंने रूसियों को कहीं बड़ी संख्या में अपने सैनिक गंवाने पर मजबूर किया है और उनकी अर्थव्यवस्था तथा सैन्य तंत्र को भी जबरदस्त नुकसान पहुंचाया है. यूक्रेन को दो वजहों से बेहतर नतीजे नहीं हासिल हुए. पहली वजह यह कि उसके यूरोपीय सहयोगी सैन्य या आर्थिक मोर्चे पर कोई नुकसान सहने को राजी नहीं हुए और दूसरी वजह यह कि ट्रंप सत्ता में वापस आ गए.

इतना स्पष्ट करने के बाद हम ट्रंप के ओवल ऑफिस की उस ऐतिहासिक तस्वीर की ओर लौटते हैं. यूरोप ने खुद को एक विशाल गुलाम क्षेत्र में कैसे तब्दील कर लिया, इस पर कई किताबें लिखी जाएंगी, कई शोधग्रंथ लिखे जाएंगे. यूरोप अपनी राजी-खुशी से ट्रंप के नव-साम्राज्यवाद का पहला शिकार बना तो उसकी सबसे बड़ी वजह क्या है और वह किस तरह आगे बढ़ रहा है, तथा भारत के लिए इस सबमें क्या सबक हैं, इन सबकी मैं यहां व्याख्या करने की कोशिश कर रहा हूं.

यूरोप ने अपनी सुरक्षा का जिम्मा अमेरिका के हवाले करके भारी भूल की. दरअसल इसकी शुरुआत दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उभरे शांतिवाद के तहत स्व-आरोपित सीमाओं के कारण हुई. इसके बाद, शीतयुद्ध की समाप्ति के साथ सोवियत संघ के विलय के बाद का आलसी दौर शुरू हो गया. ‘नाटो’ न केवल बचा रहा बल्कि उसने अपना विस्तार भी किया, इसके बावजूद यह धारणा बनी रही कि उसे कोई असली खतरा नहीं है और अमेरिका यूरोप को सुरक्षा प्रदान करता रहेगा, लेकिन एक ऐसा दिन भी आने वाला था जब वह यह काम नहीं करेगा और अब तो वह सैन्य साजो-सामान के लिए भुगतान भी चाहता है.

रूस से डर ने यूरोप को ट्रंप के साथ पूरी तरह से एकतरफा व्यापार समझौता करने को बाध्य कर दिया है. वे कह रहे हैं कि यूरोप ने अमेरिका में जो 600 अरब डॉलर निवेश करने का वादा किया है उसका एक-एक डॉलर इस्तेमाल करने की ताकत उनमें है. उनके एक प्रमुख सहायक (स्कॉट बेस्सेंट) ने कहा है कि यह उनके अपने संप्रभु फंड के समान है, लेकिन यह तो ‘सुरक्षा शुल्क’ है, साम्राज्यवाद है. अब यूरोप अगर अपनी सुरक्षा पर ज्यादा खर्च करता है तब भी उसे नया सैन्य विस्तार करने के लिए रंगरूट ढूंढने में मुश्किल होगी. यूरोप में फौजी संस्कृति बहुत पहले खत्म हो गई, सिवाए फ्रांस और कुछ हद तक ब्रिटेन के. पोलैंड ने वारसॉ संधि के दौर से इसे कायम रखा है और ‘नाटो’ में उसके सैनिक सबसे ज्यादा हैं. तुर्की को छोड़ बाकी सब अमेरिका के रहमोकरम पर हैं.

इसके अलावा सस्ते चीनी माल, रूसी गैस और बाहर की मैन्युफैक्चरिंग पर आर्थिक निर्भरता इस आलस के दूसरे अपराध सरीखे हैं. हाल में चीन ने सुरंग की बोरिंग करने वाली जो मशीनें भारत को देने से मना कर दिया था वे जर्मनी की हैं. जर्मनी ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए उनका उत्पादन चीन में करवा रहा है. इस मामले में फ्रांस फिर एक अपवाद है.

यूरोप को अब एक झटका लगा है. महत्वपूर्ण बात, जिस पर भारत को भी ध्यान देने की ज़रूरत है, यह है कि वे भावना में बहकर नहीं बल्कि हकीकत के आधार पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं. यूक्रेन और व्यापक यूरोपीय सुरक्षा के मामले में वे उस सौदे को कबूल करेंगे जो कम से कम बुरा होगा. वे ट्रंप को झटका नहीं देंगे और न उन्हें शर्मिंदा करेंगे. राष्ट्रहित का तकाजा प्रायः यह होता है कि आप ऐसी प्रतिक्रिया दें जो संशयात्मक तो हों मगर भावनात्मक न हों. किसी ठुकराए गए प्रेमी की तरह हरकत करने से उपहास के सिवा कुछ हासिल नहीं होता.

ओवल ऑफिस वाली तस्वीर इस बुद्धिमानी की ही कहानी कहती है. यूरोप ने ट्रंप से उनकी शर्तों पर ही निबटने का फैसला किया है क्योंकि वह अपने व्यापक पश्चिमी गठबंधन को एकजुट रखना चाहता है. ट्रंप के बाद भी अमेरिका कायम रहेगा. यूरोप ट्रंप को अभी जो रियायतें दे रहा है उन सबको उनके कार्यकाल में पूरा नहीं किया जाने वाला है. कल भी आएगा और सामान्य स्थिति लौटेगी. इसलिए भारत के लिए सबक ये हैं:

  •  अपनी सेना को मजबूत बनाइए और इसके लिए उपयुक्त उपमा यही होगी कि यह युद्धस्तर पर कीजिए. कोई नारेबाजी नहीं, कोई लफ्फाज़ी नहीं, कोई बड़े दावे नहीं, और न यह दावा कि अगले एक दशक में जो होगा उसे देख लेंगे. अभी, इसी वक्त से शुरुआत की जानी चाहिए. सबसे पहले पाकिस्तान में खौफ पैदा करने पर ज़ोर दीजिए. अगर आपने कोई नया मानक तय किया है तो उसे पूरा करने के लिए सारे इंतजाम कीजिए.
  • रूस के साथ रिश्ता और मजबूत कीजिए, लेकिन किसी खेमेबंदी में पड़ने से बचिए. लोकतांत्रिक भारत का भविष्य पश्चिम-विरोध में निहित नहीं है. चीन के मामले में जो सकारात्मक बदलाव आ रहा है उसमें स्थिरता बनाए रखिए और दोनों पक्ष को उस दिशा में बढ़ने दीजिए जिससे उनके साझा हित पूरे होते हों. याद रहे, चीन को अभी हमसे लड़ने की ज़रूरत नहीं है. वह पाकिस्तान के कंधे पर बंदूक रखकर यह काम कर सकता है. इसलिए अपना ध्यान पाकिस्तान पर केंद्रित कीजिए.
  • अपने पड़ोस को शांत रखिए. भारत को सभी मोर्चों पर दुश्मनी में नहीं उलझना चाहिए. पाकिस्तान का मामला अलग है, लेकिन हर एक पड़ोसी के साथ रिश्ते में घरेलू राजनीति की घालमेल करने से बचिए. इससे आपके विकल्प सीमित होते हैं.
  • अपना वक्त चुनिए और अमेरिका के साथ अपने रिश्ते में कुछ समझदारी लाने की कोशिश कीजिए. भरोसा पैदा करना मुश्किल हो सकता है. याद रहे, शीतयुद्ध वापस नहीं आने वाला और अमेरिका/पश्चिम विरोधी खेमा उभरने वाला नहीं है. यूक्रेन में अमन कायम होते ही पुतिन और ट्रंप फिर दोस्त बन जाएंगे. अमेरिका और चीन तो सौदे करने में व्यस्त हो ही गए हैं.

यूरोप से सीखिए. ट्रंप के कारण जो अफरा-तफरी मची है वह चापलूसी के बूते नहीं बल्कि व्यवहार कुशलता के बूते ही दूर की जा सकेगी. इससे आपके राष्ट्रहित को जो नुकसान हो सकता है उसे न्यूनतम बनाने के लिए हर संभव कोशिश कीजिए. ट्रंप के बाद के अमेरिका का इंतज़ार कीजिए. भारत के लिए ये ही सबक हैं, जो ओवल ऑफिस की उस तस्वीर पर भू-राजनीति के चश्मे से गहरी नज़र डालने पर उभरते हैं.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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