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शनिवार, 3 मई, 2025
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जाति जनगणना ऐसा बुरा विचार है जिसका वक्त आ गया है, अभी और भी बुरा होने वाला है

जातिगत जनगणना को हम इसलिए भी एक बुरा विचार कह रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी को छोड़ किसी ने नहीं सोचा कि इसके आंकड़े का किस तरह उपयोग किया जा सकता है.

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जातीय जनगणना को हम इसलिए भी एक बुरा विचार कह रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी को छोड़ किसी ने नहीं सोचा कि इसके आंकड़े का किस तरह उपयोग किया जा सकता है.

नरेंद्र मोदी की सरकार ने जाति जनगणना करवाने के फैसले की जो घोषणा की है उसके बारे में एक अच्छी बात यह कही जा सकती है कि हर एक दशक पर करवाई जाने वाली जनगणना अंततः पांच साल की देरी के बाद करवाई जाएगी. सनद रहे कि 1881 में करवाई गई पहली जनगणना के बाद से दशकीय जनगणना न तो कभी देर से करवाई गई और न कभी रद्द की गई, 1941 में भी नहीं जब दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था.

वैसे, अब जो जनगणना करवाने की घोषणा की गई है वह एक क्लेशकारी और चुनावी गणित वाली चाल नज़र आती है. यह घोषणा बिहार में होने वाले चुनाव के मद्देनज़र की गई तैयारी का हिस्सा लगती है. यह जनगणना पूरी होते ही उत्तर प्रदेश में चुनाव का भी वक्त आ जाएगा.

और इस बात की पूरी संभावना है कि जनगणना से जो जातीय आंकड़े उभरेंगे वह 2029 के आम चुनाव में प्रचार का मुद्दा बन जाएंगे.

यही परेशानी का कारण होगा. यह उस बात को भी रेखांकित करता है, जिसे हम महान लेखक विक्टर ह्यूगो से माफी मांगते हुए कह सकते हैं कि ‘जिस बुरे विचार का वक्त आ जाता है उसे उभरने से कोई रोक नहीं सकता’.

वैसे, हम इसे बुरा विचार क्यों कह रहे हैं? तमाम संपादकीयों में इसका स्वागत किया गया है. ‘दिप्रिंट’ भी, जिसका मैं संपादक हूं, इसका स्वागत करता है — बशर्ते यह केवल जनगणना के आंकड़े प्रस्तुत करे. सत्ताधारी पार्टी जातीय जनगणना को विभाजनकारी, विध्वंसकारी और खतरनाक बताते हुए मोदी के विचार को कुछ फीके रूप में प्रतिध्वनित कर चुकी है, जिन्होंने इसे ‘अर्बन नक्सलवादी विचार’ कहा था, लेकिन आज यही पार्टी, लड़ाकू विमान के पायलट जिसे ‘9जी टर्न’ कहते हैं वैसी पलटी खाते हुए इसे जोरदार चाल बता रही है. विपक्ष, खासकर कांग्रेस ने भी यह कहते हुए इसका स्वागत किया है कि मोदी ने उसका विचार चुरा लिया है. तो इसमें मुश्किल क्या है?

अमर लेखक विक्टर ह्यूगो के एक वाक्य की हत्या करने के बाद मुझे ऐसी एक और गलती करने की छूट दीजिए — शैतान दरअसल आंकड़े में छिपा है, या उस आंकड़े के इस्तेमाल में छिपा है. यूपीए सरकार ने भारतीय आबादी में जातियों के आंकड़े इकट्ठा किए, लेकिन उनका कुछ नहीं किया. उन्हें सार्वजनिक रूप से जारी भी नहीं किया.

भाजपा के पास ये आंकड़े 11 साल से थे और उनके बारे में ऐसी चुप्पी साधे रखी जैसी अपराधी लोग साध लेते हैं. उन आंकड़ों का क्या करना है और उन्हें ओबीसी तबके को लाभ पहुंचाने के लिए कैसे इस्तेमाल करना है यह सिफारिश करने के लिए जस्टिस रोहिणी आयोग का गठन किया. उस आयोग की रिपोर्ट को किसी गंभीर राष्ट्रीय रहस्य की तरह दफना दिया गया. अब नई जनगणना के साथ जस्टिस जी. रोहिणी की मेहनत बेकार हो जाएगी. तथ्य यह है कि 2011 की जनगणना के बाद 14 साल तक जातीय आंकड़ों को किसी रेडियोएक्टिव, परमाण्विक वस्तु की तरह घातक माना जाता रहा, लेकिन नई जनगणना से कोई सुखद चीज़ नहीं हासिल होने वाली है.

लेकिन इस वजह से हम इसे वैसा बुरा विचार नहीं कह रहे हैं जिसका वक्त आ गया है. हम अपना तर्क बुरे विचार से संबंधित तीन नियमों के आधार पर आगे बढ़ा रहे हैं. पहला नियम यह है कि एक बुरे विचार को कोई-न-कोई और भी बुरे विचारों के साथ आगे बढ़ाता है. दूसरे, हर कोई उसे और बुरा बनाता जाता है और तीसरे, जिस व्यक्ति ने सबसे पहले वह बुरा विचार दिया था उसमें उस विचार को पलटने का न तो साहस होता है और न राजनीतिक ताकत होती है.

इसके दर्जन भर उदाहरण मैं आपको तुरंत दे सकता हूं. मसलन, हम केवल 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के इंदिरा गांधी के फैसले पर विचार करें.


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जाति जनगणना को हम इसलिए भी एक बुरा विचार कह रहे हैं क्योंकि राहुल गांधी को छोड़ किसी ने नहीं सोचा कि इसके आंकड़े का किस तरह उपयोग किया जा सकता है. और राहुल का विचार सीधे राम मनोहर लोहिया से लिया हुआ है. आप पक्का मान लीजिए कि राहुल अब मोदी से आगे बढ़कर संविधान में संशोधन की दिशा में दौड़ पड़ेंगे ताकि आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ऊपर की जा सके. निश्चित मानिए, यह होकर रहेगा.

इसके बाद क्या होगा? आरक्षण का कोटा बढ़ाकर आप क्या करेंगे जब सरकार के पास देने के लिए कोई नौकरी ही नहीं होगी? सबसे ताज़ा इस खबर पर गौर कीजिए : ‘रेलवे में 36,000 नौकरियों के लिए दी गईं डेढ़ करोड़ अर्जियां’. भारत के युवाओं के लिए समस्या यह नहीं है कि आरक्षण का कोटा कम है, बल्कि यह है कि सरकारी नौकरियां महज़ गिनती की हैं.

इस सिलसिले में अगला सबसे बुरा विचार क्या उभरेगा, इसका अंदाज़ा लगाने के लिए मेरा इंतज़ार मत कीजिए. पुरानी लोहियावादी समाजवादी और यूपीए व्यवस्था में इसे काफी लोग प्रस्तुत कर चुके हैं. राहुल और कांग्रेस पार्टी इसे ज़ाहिर कर चुकी है. ‘एआईसीसी’ के प्रस्ताव को पढ़ लीजिए. उसमें कहा गया है कि निजी शिक्षण संस्थाओं में भी आरक्षण लागू किया जाए. इसके बाद निजी क्षेत्र की नौकरियों में भी आरक्षण की मांग की जाएगी. यह सब आपके सोचने से पहले किया जा चुका होगा.

यह वह सामाजिक-आर्थिक राजनीति नहीं है जिसके लिए मोदी को वोट दिया गया था. इसी राजनीति के कारण जातीय जनगणना के सबसे मुखर और अक्सर सबसे आक्रामक आलोचक भाजपा के सबसे प्रतिबद्ध मतदाताओं में पाए जाते हैं, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. उन्हें पांच दशक पुरानी ‘मैं तुलसी तेरे आंगन की’ या ‘मेरा पति सिर्फ मेरा है’ जैसी फिल्मों की आत्मत्यागी पत्नियों जैसी मान लिया जाएगा.

वह अपनी विचारधारा के मंगलसूत्र को चूमते हुए मोदी को वोट देते रहेंगी क्योंकि मोदी ‘आखिर मुसलमानों को उनकी औकात में रख रहे हैं’. और ‘भगवान न करे, उस पप्पू या किसी लल्लू को वोट कौन देगा?’ मोदी को पता है कि उन्हें उस जातीय आधार का समर्थन हासिल है.

मोदी के अगले कदम का अंदाज़ा लगाने में मजे की बात यह है कि आपको बस यह देखते रहना है कि ‘उस’ पप्पू के होठों से क्या निकलता है. राहुल ने जितने भी चुनावों में अपनी पार्टी का नेतृत्व किया है उनमें उन्हें हार का ही मुंह देखना पड़ा है और अपनी पार्टी को भी न तो वह पुनर्गठित कर पाए और न उसमें जान फूंक पाए, फिर भी वह सर्वविजेता मोदी के लिए सामाजिक-आर्थिक एजेंडा तय कर रहे हैं.


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पराजित से सबक लेने के मामले में मोदी एक दिलचस्प उदाहरण हैं. मैं आपको तुरंत ऐसे 10 विचार गिना सकता हूं जिन्हें राहुल ने प्रस्तुत किया और मोदी ने अपना लिया. ईमानदारी की बात यह है कि इनमें से अधिकतर विचार अच्छे नहीं हैं.

हम जाति सर्वे से शुरू करते हुए ‘NYAY’ की बात कर सकते हैं जो ‘पीएम-किसान’ में तब्दील हुआ, फिर हमेशा के लिए मुफ्त अनाज, राहुल की ‘पहली नौकरी पक्की’ का वादा, जिसे मोदी ने 2024 के बजट शामिल किया.

मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में ‘सूट-बूट वाली सरकार’ वाले कटाक्ष ने मोदी को ज़मीन अधिग्रहण बिल को दफन करने को मजबूर कर दिया. अमीरों पर टैक्स (लाभांश और कैपिटल गेन पर टैक्स) को शायद ‘अडाणी-अंबानी की सरकार’ वाले जुमले का जवाब देने के लिए उस स्तर पर पहुंचा दिया गया जिस स्तर पर यह यूरोपीय देशों में है. मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में कृषि कानूनों का वही हश्र किया गया, कांग्रेस ने कर्नाटक में मुफ्त बस यात्रा की जो सुविधा (केजरीवाल की कॉपीराइट) दी वह मोदी-भाजपा की सामान्य पेशकश बन गई है. कर्नाटक की तरह, महिलाओं को मुफ्त सुविधाएं देने का भी इसी तरह कदम उठाया गया.

राहुल ने सार्वजनिक उपक्रमों (पीएसयू) को लेकर तंज़ कसा, तो मोदी सरकार ने निजीकरण के विचार को ही रद्द कर दिया और अपने पीएसयू पर गर्व करने लगी. पीएसयू में निवेश के लिए इस साल के बजट में 5 ट्रिलियन रुपये का आवंटन किया गया. मैं तो यहां तक कहूंगा कि मोदी ने 36 राफेल विमानों के लिए दिए गए पहले ऑर्डर के सूत्र को एक दशक बाद फिर से अगर पकड़ा है तो इसके लिए राहुल को ही धन्यवाद दीजिए या दोष दीजिए.

सिविल सेवाओं में बाहरी लोगों की नियुक्ति के सुधारवादी कदम को विपक्ष की आपत्ति के बाद टाल दिया गया.

कई बार पराजित कोई शख्स किसी ताकतवर शासक के लिए एजेंडा तय करे, यह एक अविश्वसनीय मिसाल है.

तथ्य यह है कि निरंतर विघ्न डालने वाले की भूमिका करके राहुल को कुछ खोना नहीं है. 2034 में भी वह 64 साल के चुस्त-दुरुस्त शख्स होंगे. इस बीच, मोदी की सामाजिक-आर्थिक राजनीति में सफाई से कटौती करके वे उन्हें नागपुर से लोहिया की तरफ खींचे लिए जा रहे हैं.

इस अविश्वसनीय प्रक्रिया का रहस्य क्या है? क्या इसके पीछे यह तथ्य काम कर रहा है कि राहुल ‘मैं ही आम आदमी’ वाली भूमिका अदा कर रहे हैं और यह मोदी को अस्थिर कर रहा है. राहुल जिस विशिष्ट पृष्ठभूमि से आते हैं उसके कारण यह सहज बुद्धि से परे नज़र आता है, लेकिन राहुल की टीम ने यूट्यूब और इंस्टाग्राम का जोरदार इस्तेमाल किया है और उन्हें कार मेकेनिक से लेकर जरदोजी कारीगर, बुनकर, मोची, किसान, ट्रक ड्राइवर, हलवाई, कुली, दर्जी, बधाई, पॉटर, रंगाई-पुताई और भवन निर्माण मजदूर, रेलवे ट्रैकमैन तक तमाम तबकों के साथ मेलजोल करते दिखा दिया है. इनमें से अधिकतर लोग ओबीसी वर्ग से हैं. इसमें महत्वाकांक्षाओं वाला तड़का लगाने के लिए वे राजधानी के मुखर्जीनगर में यूपीएससी के उम्मीदवारों के साथ भी कैमरे पर समय बिताते दिखे हैं.

क्या इस सबसे मोदी को फर्क पड़ता है? राहुल सरीखे लगातार पराजित, ‘हमारी राजनीति के पप्पू’ की वजह से? मोदी की जीत को मंडल पर 1989 के ‘कमंडल’ की निर्णायक जीत माना गया और अब मोदी मंडल को अपनाने पर मजबूर कर दिए गए हैं. कौन किसकी राजनीति को बदल रहा है? विचारधारा की यह लड़ाई कौन जीत रहा है?

30 साल पहले जब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के कॉर्पोरेट मुख्यालय में उसके संपादक के रूप में पहली बार गया था तब मुझे विज्ञापन की दुनिया के सम्मानित जादूगर अलिक पदमसी के कमरे में ले जाया गया था. चंद दिनों पहले ही उन्हें ब्रांड सलाहकार नियुक्त किया गया. शोमैन पदमसी ने मुझे बैठने का इशारा किया और वे अपनी रोइंग मशीन पर आगे-पीछे करते हुए अपनी उत्साही युवा असिस्टेंट को यह ‘स्ट्रेटेजी नोट’ लिखवाने लगे: “मैं अपने ब्रांड को कभी रीपोजीशन नहीं करता. हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वी को अपने ब्रांड को रीपोजीशन करने के लिए मजबूर करता हूं”. यह कॉलम लिखते हुए मेरे दिमाग में यह बात कौंध गई.

(नेशनल इंट्रेस्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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