पश्चिमी दुनिया ने अपने दमनकारी अतीत का अनदेखा नहीं किया-चाहे गुलामी हो, या जबरन करारशुदा आप्रवास या विश्वयुद्ध. उसने उस पर सोचा-विचारा, बहस की और गलतियों को सुधारने की कोशिश की-प्रतीकों या दुरुस्त करने की ठोस पहल के जरिए. हालांकि इस प्रक्रिया में पश्चिमी देशों ने अतीत को अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर नए सिरे से गढ़ा और उसे नई शक्ल दी. भारत में हमने अपने अतीत को ऐसे पेश किया, जिसमें इतिहास की कुछ खास घटनाओं को अनदेखा कर दिया, जो हमें असहज, असुविधाजनक स्थिति में डालतीं या टकराव पैदा कर सकती हैं. इसी वजह से आजादी के 75 साल बाद भी हम इतिहास में सुधार या पुनर्पाठ की जद्दोजहद देखते हैं-चाहे वह ज्ञानवापी मस्जिद हो, सोमनाथ मंदिर या अयोध्या. हमारे इतिहास की किताबों की भी पुनर्समीक्षा की मांग उठी है, ताकि हम भारत को दिल्ली सल्तनत या मुगल शासकों से इतर भी देख सकें.
आज के भारत में इतिहास के इस नई पड़ताल को पूर्वग्रह ग्रस्त कह कर खारिज करने के बदले अब वक्त आ गया है कि हम अपने अतीत का उसी रूप में सामाना करें, जैसा वह था. यह विवादों का फिर से उभरना सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहा है, बल्कि दुनिया भर में सुधार, धरोहर, सकारात्मक कार्रवाई और धार्मिक न्याय के दावे हम देख पा रहे हैं-अमेरिका से लेकर इस्तांबुल और बांग्लादेश तक.
जहां भी आधुनिकता ने अतीत से नाता तोडऩे की कोशिश की, नाकाम हुआ और ऐसे दोहरा चेहरा उग आया, जो एक साथ आगे और पीछे दोनों तरफ देखता है. यही आज भारत में हो रहा है. हमने अपने अतीत को इतने लंबे समय तक अनदेखा किया कि वह बार-बार उभरकर हमें दुख दे रहा है.
भारत अतीत से पीछा नहीं छुड़ा सकता
दशकों से भारत में इस्लामी प्रभुत्व को याद चुनींदा तरीके से किया जाता रहा है, ताकि देश में समाज के कुछ खास धर्म आधारित टकरावों को नजरअंदाज करने या टालने में मदद मिले. लेकिन अतीत से निपटने का यह तरीका भारत के कुछ खास तबकों को आहत करता है. कालक्रम में यह आहत भावना अतीत के प्रति एक आक्रामक रुख अख्तियार कर लेती है. उससे एक अनदेखा किए गए, हाशिए पर डाले गए, आक्रामक इतिहास उभर कर आया है.
कई हिंदू गुटों ने धार्मिक अन्याय का मुद्दा उठाया है और जब उन्हें अनुकूल राजनैतिक माहौल मिला तो उन्होंने धार्मिक स्थलों और स्मारकों पर दावा ठोंक दिया. उन्होंने शहरों, नगरों, कस्बों और रेलवे स्टेशनों के नाम बदलने की भी मांग की.
अब यह लगभग आम जानकारी में आ गया है कि इस्लामी विजेताओं ने हिंदू धार्मिक स्थलों पर हमले किए, उन्हें जीता, तोड़ा और वहां नए ढांचे बनाए.
ये कहानियां अब न्यूज मीडिया और सोशल मीडिया पर भी प्रचारित हैं. यही धारणा अब हिंदुत्व की सबसे खास जमीन बन गई है. यानी हिंदुओं के खिलाफ इतिहास में हुए अत्याचारों का सुधार करना-चाहे वे मध्ययुग, आधुनिक युग या आजादी के पहले हुए हों. अतीत की ऐसी ही धारणा मुसलमानों को भी प्रेरित कर रही है.उनका दावा है कि अयोध्या में 1855 के आसपास हनुमान गढ़ी मंदिर में हुई झड़प, खून-खराबे से हुई बाबरी मस्जिद टकराव पैदा हुआ.
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हम अब क्या कर सकते हैं
आज हम अपने अतीत को लेकर ऐसे असुविधाजनक और असहज सवालों से कैसे निबटें? हमें एक समरस समाज बनाने की दरकार है, जो धार्मिक और सांस्कृति शांति की दिशा में काम करे.
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हमें अपने अतीत की ओर संवेदनशील और संतुलित रवैया अपनाने की जरूरत है. इसके लिए हमें अतीत पर शोध करने और उसके संपूर्ण पाठ की जरूरत है. भारत के धरोहर स्थलों और महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों के बारे में गहरे शोध की जरूरत है. यह अध्ययन अकादमिक होना चाहिए, भावनात्मक नहीं. ऐसी परियोजना से हमें यह अंदाजा लगेगा कि कैसे कुछ स्थलों का निर्माण हुआ.
दूसरे, हमें ऐतिहासक अन्यायों को समझने और उसके निराकरण के लिए विभिन्न आयोगों का गठन करना पड़ेगा, जैसे मंडल आयोग. अब, विभिन्न यूरोपीय देशों और अमेरिका की तरह, भारत को एक सत्य और सुलह आयोग का गठन करना चाहिए, जो भारत में ऐतिहासकि धरोहरों से जुड़े अन्यायों की पड़ताल करे.
तीसरे, सिर्फ सरकार नहीं, बल्कि भारतीय समाज को अपने अतीत पर बहस और वाद-विवाद शुरू करने की पहल करनी चाहिए और विभाजनकारी मसलों पर एक सर्वानुमति बनानी चाहिए. अब वक्त आ गया है कि ऐसे संवेदनशील मुद्दों को प्राइमटाइम टीवी पर चीख-चिल्लाहट से दूर रखना चाहिए. भारतीय लोकतंत्र में निरंतर समरस भाव पैदा करने का दायित्व सरकार से ज्यादा समाज का है.
मुझे हमेशा से एहसास है कि अतीत का सामना शेर की सवारी जैसा है. अगर हम उस पर काबू नहीं पा सके, तो वह हमें मार डालेगा. जो समाज अतीत से सफलतापूर्वक निपट लेता है या कम से कम उसकी कोशिश करता है, वहां आधुनिकता कम संकटग्रस्त होगी.
जैसा कि चेक उपन्यासकार मिलान कुंद्रा ने लिखा है, ‘अब समय काफी कुछ अलग-सा है, अब भविष्य को मुठी में करने के लिए वर्तमान पर विजय पाने जैसा नहीं है, यहां वर्तमान विजित है, मुट््ठी में है और अतीत से प्रभावित है.’
(लेखक जी.बी. पंत सोशल साइंस इंस्टीट्यूट, इलाहाबाद के प्रोफेसर और डायरेक्टर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @poetbadri. व्यक्त विचार निजी हैं)
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