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Saturday, 21 December, 2024
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मोदी सरकार ने कृषि सुधारों पर जो कहा वो कर दिखाया, अब बारी खामियों को दूर करने की है

मोदी सरकार ने कृषि सुधारों पर अपने नीतिगत बयानों को कार्यरूप देने के लिए वास्तविक कानूनी बदलाव किए हैं. उनकी पूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिए उसे अब खामियों को दूर करना चाहिए.

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सरकार ने 5 जून को ‘आत्मनिर्भर भारत’ पैकेज में घोषित सुधारों के अनुरूप तीन अध्यादेशों को अधिसूचित किया है जो कृषि उपज विपणन, अनुबंध खेती और आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) में संशोधन से संबंधित है.

ये अध्यादेश कोविड-19 संकट की प्रतिक्रिया में सरकार द्वारा घोषित सुधार एजेंडे का हिस्सा हैं. इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि सरकार अपने नीतिगत बयानों पर कदम बढ़ाते हुए वास्तविक कानूनी बदलावों को अंजाम दे रही है. क्योंकि भारत में अक्सर नीतिगत निर्णयों की घोषणा तो हो जाती है लेकिन उन्हें कानूनी अमली जामा नहीं पहनाया जाता है.

ईसीए में संशोधन कोई नया मुद्दा नहीं है. नरेंद्र मोदी 2001 में कृषि नीति पर भाजपा की एक समिति के सदस्य थे जिसने ये प्रस्तावित किया था.

भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की 2-3 नवंबर 2001 की अमृतसर में हुई बैठक में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया था, ‘इन सभी प्रतिबंधों को आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 में आवश्यक संशोधनों के ज़रिए हटा दिया जाना चाहिए. यदि आवश्यक हो, तो आपातकालीन परिस्थितियों में उपयोग के लिए ऐसे कानूनों को बरकरार रखा जा सकता है.’

आवश्यक वस्तु अधिनियम की जड़ें द्वितीय विश्व युद्ध में हैं, जब भारतीय अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण के लिए विभिन्न कानूनों का इस्तेमाल किया गया था. स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने भी इस कानून को बनाए रखा था. यह कानून इतनी बंदिशों वाला था कि भारतीय संविधान से इसका मेल नहीं बैठ पा रहा था और अंतत: इसके तहत उपलब्ध शक्तियां सरकार को सौंपने के लिए दो संवैधानिक संशोधन पारित करने पड़े थे: व्यापार एवं वाणिज्य की स्वतंत्रता को सीमित करने (अनुच्छेद 19) के अलावा, आवश्यक वस्तुओं को विनियमित करने की शक्ति अपने हाथों में रखने के लिए संसद ने समवर्ती सूची में एक नई प्रविष्टि (प्रविष्टि 33, सूची III, अनुसूची VII) को शामिल किया.

नया अध्यादेश

नया अध्यादेश आवश्यक वस्तु अधिनियम की धारा 3 में संशोधन करता है, जो राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को वस्तुओं को विनियमित करने की शक्ति देती है.

अध्यादेश के ज़रिए इसमें एक नया उपखंड (1) शामिल किया गया है, जो नियंत्रणों या स्टॉक सीमा लागू किए जाने के अवसरों को सीमित करके धारा 3 की सामान्य शक्तियों को अप्रभावी करने का काम करता है.


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परिणामस्वरूप, केवल असाधारण परिस्थितियों (जैसे युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और गंभीर प्राकृतिक आपदा) में ही ये नियंत्रण लगाए जा सकते हैं. कुछ वस्तुओं (जैसे दाल और अनाज) का कानून में उल्लेख किया गया है, जबकि केंद्र सरकार अतिरिक्त वस्तुओं को अधिसूचित कर सकती है.

दूसरा बदलाव यह है कि पूरी तरह विवेकाधीन होने के बजाय, अब मूल्य वृद्धि को नियंत्रणों का आधार बनाया जा सकेगा: सब्जियों के लिए इसका स्तर 100 प्रतिशत मूल्य वृद्धि का है, जबकि दाल और अनाज के लिए 50 प्रतिशत.

शर्तें पूरी होने की स्थिति में भी स्टॉक सीमा किसी बिचौलिए द्वारा सामान्य दिनों में किए जाने वाले सौदे की मात्रा से कम तय नहीं की जा सकती है. खाद्य प्रसंस्करण के लिए यह सीमा स्थापित क्षमता की होगी, जबकि निर्यातकों के लिए यह निर्यात की मांग के अनुरूप होगी.

इन संशोधनों का उद्देश्य (i) खाद्य पदार्थों के बाजारों में अप्रत्याशित और लगातार हस्तक्षेप को कम करना, और (ii) बिचौलियों को ऐसे स्टॉक नियंत्रण आदेशों से बचाना है, जोकि उनके व्यवसाय में अवरोध साबित होते हैं.

दो खामियां

अध्यादेश नि:संदेह सही दिशा में बढ़ाया गया कदम है लेकिन इसमें दो खामियां रह गई हैं.

केंद्र सरकार धारा 3 के तहत विनियमित किए जा सकने वाली वस्तुओं को अधिसूचित कर सकती है- केवल ‘युद्ध, अकाल, असाधारण मूल्य वृद्धि और गंभीर प्रकृति की प्राकृतिक आपदा’ की स्थिति में– लेकिन यह निर्णय अभी भी पूर्णतया राज्य सरकार के विवेकाधीन छोड़ा गया है.

मान लीजिए कि केंद्र सरकार चावल को संरक्षित वस्तुओं की सूची (सामान्य परिस्थितियों में अविनियमित) में शामिल करने का फैसला करती है. वैसी स्थिति में भी राज्य सरकारें असाधारण मूल्य वृद्धि के आधार पर इसके व्यापार को नियंत्रित कर सकती हैं.

अध्यादेश का दूसरा प्रावधान उन शर्तों को सीमित करता है जिनके तहत धारा 3 के तहत स्टॉक सीमाएं तय की जा सकती हैं. वैसे, स्टॉक सीमा का निर्धारण धारा 3 के तहत सरकारों को उपलब्ध विभिन्न शक्तियों में से मात्र एक है. राज्य सरकारें मूल्य नियंत्रण लागू करने, परिवहन पर प्रतिबंध लगाने, बाज़ार मूल्य से कम कीमत पर वस्तुओं की बिक्री के लिए बाध्य करने, किसी वस्तु के व्यापार को अवैध घोषित करने, व्यापार के लिए लाइसेंस या बॉन्ड की शर्त लगाने जैसे कई अन्य विकल्पों को भी अपना सकती हैं.


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हाल के दिनों में स्टॉक सीमाएं तय किए जाने के उदाहरण आम रहे हैं, लेकिन अन्य शक्तियों का भी उपयोग किया जाता रहा है. राज्य सरकारों के लिए, 1970 के दशक में, खाद्य पदार्थों की खपत पर नियंत्रण के लिए किसी भोज में भाग लेने वाले लोगों की अधिकतम संख्या निर्धारित करना आम बात थी. इस कानून का उपयोग करते हुए जून 2014 में, पश्चिम बंगाल सरकार ने व्यापारियों को बाजार मूल्य से कम कीमत पर पर आलू बेचने का निर्देश दिया था.

अधिनियम में संशोधन कृषि क्षेत्र में किया जाने वाला एक स्वागत योग्य सुधार है. लागू किए जाने पर यह बाजार में प्रतिभागियों के आत्मविश्वास को बढ़ाने का काम करेगा, भले ही वो किसान हो या व्यापारी या खाद्य प्रसंस्करण से जुड़ा व्यक्ति. लेकिन उपरोक्त खामियां सरकारों को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर अप्रत्याशित प्रतिबंध लगाने के अवसर प्रदान करती हैं.

विभिन्न देशों ने उन कानूनों को निरस्त कर दिया है जोकि द्वितीय विश्व युद्ध के समय सरकारों को कठोर आपातकालीन शक्तियां प्रदान करते थे. या तो ईसीए में ऐसे संशोधन किए जाने चाहिए ताकि इसे युद्ध घोषित होने पर ही लागू किया जा सके या बेहतर तो ये होगा कि इसे निरस्त कर दिया जाए.

अन्य कानूनों के सहारे निर्यात पर नियंत्रण

हालांकि अध्यादेश निर्यातकों को भी सुरक्षा प्रदान करता है पर निर्यात पर मनमाने नियंत्रण आवश्यक वस्तु प्रतिबंध अधिनियम के बजाय विदेशी व्यापार (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1992 के तहत अधिक लगाए जाते हैं.

यह कानून केंद्र सरकार को किसी भी वस्तु के निर्यात और आयात पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार देता है. निर्यात प्रतिबंधों में सबसे अधिक कृषि उत्पाद फंसते हैं. 2014-2019 की पांच वर्षों की अवधि में सरकार ने प्याज के निर्यात संबंधी नियमों में 17 बार बदलाव किए थे. उसी अवधि में निर्यात संभावनाओं वाले एक और कृषि उत्पाद चावल से संबंधित नियमों में 14 बार बदलाव हुए.


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2001 में ईसीए में संशोधन की अनुशंसा करने वाली भाजपा की समिति ने कृषि वस्तुओं पर से सारे निर्यात प्रतिबंध हटाने का भी सुझाव दिया था. भारतीय कृषि की पूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिए इसे भी सुधार पैकेज का हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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