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Friday, 27 December, 2024
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कृषि कानूनों पर मोदी सरकार को व्यापक स्वीकृति हासिल करनी होगी

किसान ही नहीं, दूसरे तबकों को भी यकीन होने लगा है कि दिल्ली की गद्दी पर बैठी सरकार अब उसका प्रतिनिधित्व नहीं करती. इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार चाहे बड़ी आसानी से कानून बना ले, उसे देखना होगा कि उन्हें व्यापक स्वीकृति कैसे हासिल होगी.

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चाहे लोगों का एक समूह एक निर्वाचित सरकार को बंधक बना ले या कोई सरकार कानून-व्यववस्था के नाम पर अपने नागरिकों का दमन करे, दोनों ही परेशान करने वाली बातें हैं. दोनों से यही संकेत मिलता है कि विचार-विमर्श और बहस के जरिए आदान-प्रदान की सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया चरमरा गई है. लोगों को विरोध करने का अधिकार है. लेकिन विरोध करने वाले अगर अपनी पूरी मांग पर अड़ जाएं और सरकार अगर रास्तों पर कीलें ठुकवाने और घने बैरिकेडों के पीछे दीवार खड़ी करने लगे, तो साफ है कि प्रातिनिधिक लोकतंत्र अधिक संकट में फंस गया है.

सरकार पिछले साल नागरिकता के नये कानून के मामले पर जिस तरह सख्त थी उसके मुकाबले आज उसने कम अड़ियल रुख अपनाया है. बेमन से ही सही, उसने कृषि मार्केटिंग से संबंधित नये कानूनों को कुछ समय तक स्थगित रखने की पेशकश की है, ताकि शांत दिमाग वाले लोग विवादास्पद मसलों पर विचार-विमर्श कर सकें. लेकिन इस तनातनी ने जिस तरह अंतरराष्ट्रीय तमाशे का रूप ले लिया है उसमें सबसे अच्छा उपाय यही है कि मसले को वापस संसद के पास भेज दिया जाए, जो कि नये कानूनों पर बहस करने का सही मंच है, वरना तनाव में और वृद्धि ही हो सकती है, जो कोई नहीं चाहेगा.

बीच का रास्ता जरूर निकल सकता है. कई दृष्टियों से, नये कानून बहुत जरूरी हो गए थे. वास्तव में कृषि सुधारों का भविष्य उन पर निर्भर है. लेकिन जब किसानों को डर है कि व्यवहार में ये कानून उनका अहित करेंगे, तब उनका आचरण प्रस्तुत किए गए ‘तथ्यों’ पर नहीं बल्कि इस पर निर्भर करेगा कि वे क्या मान बैठे हैं. उन्हें देशद्रोही कहना इसका कोई जवाब नहीं है.

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री रॉबर्ट शिलर ने 2019 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘नरेटिव इकोनॉमिक्स : हाउ स्टोरीज़ गो वाइरल ऐंड ड्राइव मेजर इकोनॉमिक इवेंट्स ’ में अपना सिद्धांत दिया है कि अर्थशास्त्री लोग तो तथ्यों और आंकड़ों को देखते हैं लेकिन लोग अपने आर्थिक फैसले प्रायः कथाओं से प्रभावित होकर करते हैं. उदाहरण के लिए, महान मंदी की यादों ने लोगों को भविष्य के लिए ज्यादा बचत करने को प्रोत्साहित किया. महामारी का असर लंबा हो सकता है और यह भविष्य के आर्थिक व्यवहारों को प्रभावित करता रह सकता है.


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इस दृष्टि से, किसान आंदोलन को लेकर फैल रही कथाओं पर विचार कीजिए. पहली कथा यह है कि किसान कितने मेहनती हैं और वे किस तरह देश के अन्नदाता हैं और वे खतरे में पड़ी अपनी मामूली सी कमाई को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. यह कथा देश-विदेश के श्रोताओं में उनके प्रति हमदर्दी जगाती है. जैसा कि इस तरह के लोकलुभावन मौकों पर होता है (‘ब्रेक्सिट’ को याद कीजिए), नये कानूनों का समर्थन करने वाले ‘असंबंद्ध विशेषज्ञों’ की उपेक्षा कर दी जाती है.

दूसरी कथा वह है जो सरकार को परेशान कर रही है कि वह ‘कलंकित पूंजी’ की बंधक बन गई है. किसानों को संदेह है कि बड़े पूंजीपति पहले बेहतर कीमतें देकर कृषि बाज़ारों पर कब्जा करना चाहते हैं और इसके बाद जब खरीद पर उनका एकाधिकार हो गया तब वे किसानों का खून चूस लेंगे. शक्ति असंतुलन के इस बोध और भरोसे में न लिये जाने के कारण इस तरह की साज़िशों की बातें बढ़ती जाती हैं.

सरकार दो तरह से जवाब दे रही है. पहला, वह यह कह रही है कि दिल्ली के इर्दगिर्द के किसान बहकावे में आकर आंदोलन कर रहे हैं जबकि बाकी जगहों के किसान शांत हैं. यह पूरा सच नहीं है. लेकिन याद कीजिए, फ्रांस में जो क्रांति हुई थी वह उसकी राजधानी पेरिस में ही केंद्रित थी. और, यहां तो सत्ता दल ही यह कथा प्रचारित करता रहा है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने देश को 800 साल की गुलामी में डाल दिया, जबकि दक्षिण में चेरा और चालुक्य साम्राज्यों का शासन था. दिल्ली एक प्रतीक है और यह लड़ाई तंजावूर या गोदावरी के किनारे या किसी और खलिहान में नहीं लड़ी जाएगी.

सरकार की ओर से दूसरा, ज्यादा गंभीर आरोप यह है कि इस किसान आंदोलन में अलगाववादी तत्व घुस गए हैं और उधर पत्रकारों पर संयुक्त रूप से देशद्रोह के मुकदमे दायर किए जा रहे हैं. इस वजह से बहस अब कृषि कानूनों से हट कर राष्ट्रवाद के दायरे में पहुंच गई है, जो इस सरकार का पसंदीदा रणक्षेत्र है. लेकिन एकता की अपील ट्वीट कर रहे क्रिकेट खिलाड़ी तीन विदेशी बालाओं के खिलाफ बेमानी लड़ाई जीत नहीं पाएंगे. इसलिए, सरकार ही कठघरे में खड़ी दिखती है.

अगर वह पहल को अपने हाथ में लेना चाहती है, तो उसे अपनी साख हासिल करनी पड़ेगी, जैसे मनमोहन सिंह सरकार को 2011-12 में भ्रष्टाचार के मामलों में हासिल करने की जरूरत थी. और केवल किसान ही नहीं, दूसरे तबकों को भी यकीन होने लगा है कि दिल्ली की गद्दी पर बैठी सरकार अब उसका प्रतिनिधित्व नहीं करती. इसका अर्थ यह हुआ कि सरकार चाहे बड़ी आसानी से कानून बना ले, उसे देखना होगा कि उन्हें व्यापक स्वीकृति कैसे हासिल होगी, क्योंकि अब संसद के दोनों सदन उसके कब्जे में हैं. यह जो बड़ी राष्ट्रीय कथा आकार ले रही है उसके बारे में उसे कुछ करना पड़ेगा.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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