झारखंड में लोकसभा की सिर्फ 14 सीटें हैं. इस लिहाज से राष्ट्रीय राजनीति के लिए इस राज्य का महत्व सीमित माना जा सकता है. लेकिन इस राज्य के विधानसभा चुनाव को लेकर जिस तरह की जबर्दस्त दिलचस्पी नजर आई, वह महत्वपूर्ण है. इस राज्य के चुनाव नतीजों के राष्ट्रीय राजनीति के लिए गंभीर मायने हैं.
दरअसल, राष्ट्रीय सरकार को लेकर, बीजेपी और नरेंद्र मोदी की जो कल्पना है, उसका नकार पिछले कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों में नजर आया. झारखंड से पहले महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में गैर-बीजेपी सरकारें बन चुकी हैं. हरियाणा में भी बीजेपी अपनी बहुमत वाली सरकार गंवा चुकी है और वहां अब उसकी साझा सरकार है. कर्नाटक को छोड़कर पूरे दक्षिण और मध्य भारत के राज्यों में गैर-भाजपा सरकारें हैं. मीडिया में इस बात का लेखा जोखा लिया गया है कि किस तरह 2017 में बीजेपी की राज्य सरकारों के अधीन देश का 70 फीसदी भूभाग था, जो दायरा अब घटकर 35 फीसदी रह गया है.
कांग्रेस मुक्त भारत का बीजेपी का सपना
नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले से ही मजबूत सरकार की वकालत की थी और पहली बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से वे कई बार ये कह चुके हैं कि देश को मजबूर नहीं, मजबूत सरकार की जरूरत है. बीजेपी के नेता बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते रहे हैं और इस बात पर गर्व करते रहे हैं कि किस तरह एक के बाद एक राज्य बीजेपी की झोली में गिर रहे हैं.
एक समय ऐसा आया जब केंद्र से लेकर ज्यादातर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बीजेपी का परचम फहरा रहा था. लेकिन चंद विधानसभा चुनावों के बाद देश का राजनीतिक नक्शा एक बार फिर से संतुलित नजर आने लगा है.
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देश ने आजादी के बाद के पहले 20 साल में एक ही पार्टी की केंद्र और राज्यों में पूर्ण बहुमत की सरकारें देखी हैं. वह दौर गुजर गया. वैसे ही बीजेपी की मजबूत सरकारों का दौर भी गुजरता नजर आ रहा है. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी की तरह नरेंद्र मोदी सरकार के लिए भी अधिनायकवादी बनने की गुंजाइश भारतीय लोकतंत्र नहीं दे रहा है.
मजबूत सरकारों के नफा-नुकसान
भारत में मजबूत सरकारें कई बार अधिनायकवादी और मनमाने फैसले करती रही हैं. इंदिरा गांधी की मजबूत सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी, तो राजीव गांधी की सरकार ने प्रेस का गला घोंटने की कोशिश की थी. इसलिए जब नरेंद्र मोदी प्रचंड बहुमत के साथ दूसरी बार सत्ता में आए, तो उनके निरंकुश होने की आशंका थी.
नरेंद्र मोदी की सरकार ने उन आशंकाओं को सही ठहराया. नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर सरकार के फैसले में अधिनायकवाद के लक्षण नजर आते हैं. सीएए और एनआरसी को लेकर देश की बड़ी आबादी के मन में आशंकाएं थीं. उन आशंकाओं को खत्म किए बगैर सरकार ने खासकर नागरिकता संशोधन विधेयक को पास करा लिया. कहना मुश्किल है कि इसे लेकर किस हद तक राष्ट्रीय विमर्श हुआ और विपक्ष ही नहीं, एनडीए के सहयोगी दलों की बातों को भी किस हद तक सुना गया.
यहां तक कि आजाद भारत के संभवत: सबसे व्यापक और लगभग अखिल भारतीय प्रतिरोध और विरोध प्रदर्शनों के बावजूद सरकार विचार-विमर्श के मूड में नजर नहीं आ रही है. विपक्ष की राज्य सरकारों ने खासकर एनआरसी को लेकर कह दिया है कि वे इसे लागू नहीं करेंगी. यहां तक कि बिहार में एनडीए की पार्टनर जेडीयू ने भी स्पष्ट कर दिया है कि बिहार में एनआरसी लागू नहीं किया जाएगा.
एक अन्य एनडीए पार्टनर लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष चिराग पासवान ने ये कहा है कि उनकी पार्टी ने सरकार से पहले ही कह दिया था नागरिकता कानून पर विस्तार से विचार विमर्श होना चाहिए. एक और सहयोगी पार्टी अकाली दल ने कहा है कि नागरिकता संशोधन कानून में मुसलमानों को बाहर नहीं रखना चाहिए. अगर ये विचार विमर्श कानून पास होने से पहले होते, तो देश मौजूदा उथल-पुथल से शायद बच सकता था.
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भारतीय लोकतंत्र को नहीं चाहिए मजबूत सरकार
किसी भी सरकार को इतना मजबूत तो नहीं ही होना चाहिए कि वह निरंकुश हो जाए. देश का मिजाज भी मजबूत सरकारों को पसंद नहीं करता. 1984 के अपवाद को छोड़ दें, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चुनाव हुए थे, तो 1977 से लेकर 2014 के बीच बनी सरकारों को ‘कमजोर सरकारों’ के तौर पर ही गिना जाएगा. दिलचस्प बात है कि ये भारत की अर्थव्यवस्था के लिए तेज विकास दर के साल रहे. खासकर 1990 से लेकर 2014 तक देश की औसत विकास दर 6 से 7 प्रतिशत रही. जबकि आजादी के बाद के पहले 20 साल के मजबूत सरकार के दौर में विकास दर अमूमन 4 फीसदी से कम थी. शेखर गुप्ता ने अपने एक कॉलम में तथ्यों के सहारे इस बात को तार्किक तरीके से रखा है.
ये कहना मुश्किल है कि भारत की विकास दर का सरकारों की मजबूती से कोई सीधा संबंध है या नहीं, या फिर इसमें वैश्विक और कई और अन्य फैक्टर भी हो सकते हैं, लेकिन इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत नरसिंह राव सरकार ने की, जिसे लोकसभा में अपना बहुमत नहीं था और उस दौरान कांग्रेस सहयोगी दलों पर निर्भर थी. दुनिया की बदलती हकीकत के मुताबिक भारत को ढालने की दिशा में सबसे बड़ा कदम भारत-अमेरिका परमाणु समझौता था, और उसे अंजाम देने वाली मनमोहन सिंह की सरकार भी मिली-जुली सरकार ही थी.
इससे साबित होता है कि कमजोर नजर आने वाली सरकार सबसे सख्त फैसले कर सकती है.
दरअसल भारत का संविधान भी किसी एक दल के अधिनायकवादी हो जाने का निषेध करता है और इसके लिए कई प्रावधान संविधान में ही है. शक्तियों का विभाजन कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच किया गया है. इसके अलावा संघीय ढांचे के तहत केंद्र और राज्य सरकार की शक्तियों का स्पष्ट बंटवारा भी किया गया है. राज्यों को केंद्र सरकार के अधीन नहीं रखा गया है. राज्यसभा का प्रावधान भी शक्ति संतुलन की इसी अवधारणा के तहत है कि शक्तियों का केंद्रीकरण एक हद से ज्यादा नहीं होना चाहिए.
भारत को क्यों चाहिए ‘मजबूर सरकार’
मजबूर सरकार से यहां अर्थ ऐसी सरकार से है, जो अपने फैसले मनमाने तरीके से न ले और तमाम पक्षों की बातों को सुने. ऐसी सरकारें कई बार बड़ी गलतियां करने से बच जाती हैं. भारत एक विविधतापूर्ण देश है. यहां बेशुमार धर्म, जातियां, नस्ल, जातियां, भाषाएं, बोलियां, भोगौलिक भेद हैं. यहां वही सरकार अच्छी है जो इन विविधताओं का सम्मान करें और अधिकतम सहमति के साथ सरकार चलाए. सर्वानुमति बन पाना हमेशा संभव नहीं है. लेकिन इसकी कोशिश करना बेहद जरूरी है. उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी सरकार इस बात को समझ पाएगी.
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इस बीच भारतीय लोकतंत्र ने अपने तरीके से शक्ति संतुलन कर भी दिया है. राज्य सभा में एनडीए का बहुमत नहीं है. कई राज्य सरकारें बीजेपी से हाथ से निकल चुकी हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि जनमत का दबाव भी सरकार के कदमों को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है.
(लेखक भोपाल स्थित माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय विश्वविद्यालय पत्रकारिता और संचार में सहायक प्रोफेसर हैं. वे इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व मैनेजिंग एडिटर भी रहे हैं. इन्होंने मीडिया और सोशियोलोजी पर कई किताबें भी लिखी हैं. लेखक के ये विचार निजी हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)