कोरोनावायरस संक्रमण के मामले में भारत, अब अमेरिका, ब्राज़ील और रूस के बाद, चौथा सबसे अधिक प्रभावित देश बन गया है. प्रधानमंत्रा नरेंद्र मेदी के समर्थक हमेशा तर्क दे सकते हैं कि जब दुनिया की दो महा शक्तियां- जिनके पास यक़ीनन सबसे अच्छा मेडिकल इन्फ्रास्ट्रक्टर और रिसर्च है- वैश्विक महामारी के प्रकोप से नहीं बच पाए, तो मोदी से भी ज़्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए.
लेकिन, मोदी का लॉकडाउन- जो देश में वायरस के फैलाव को रोकने के लिए, केंद्र का एक प्रमुख हथियार था- दुनिया के सबसे सख़्त शटडाउंस में से एक था, जिसमें 100 प्रतिशत कड़ाई बरती गई, जो सबसे ऊंची थी. और फिर भी, हमारा देश कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का दबाव झेल रहा है, जो अब 3 लाख के पार हो गए हैं. ज़ाहिर है कि जल्दबाज़ी में लॉकडाउन घोषित करने के बाद से, मोदी सरकार ने बहुत सारी ग़लतियां की हैं.
दुष्प्रचार फैलाना
नीति आयोग के सदस्य, और कोविड पर मोदी सरकार को सलाह देने के लिए बनी नेशनल टास्क फोर्स के अध्यक्ष, विनोद पॉल ने 24 अप्रैल को एक प्रेस ब्रीफिंग में, एक गणित का मॉडल पेश किया, जिसमें उन्होंने बहुत विश्वास के साथ दावा किया, कि 16 मई के बाद से, भारत में कोरोनावायरस के कोई नए मामले नहीं होंगे. और हममें से अधिकतर ने उनका यक़ीन कर लिया. तब तक, जब हम 16 मई तक पहुंचे और देखा कि हम तूफान के केंद्र में थे. लगता है कि सरकार की टास्क फोर्स की बागडोर, आंकड़ों के भरोसेमंद एक्सपर्ट्स के नहीं, बल्कि उपन्यासकारों के हाथ में है. बल्कि इस टास्क फोर्स के महामारी वैज्ञानिकों, ने गुमनाम तरीक़े से इस बात की गवाही दी कि कोरोनावायरस और उससे निपटने के उपायों पर, सरकार ने शायद ही उनसे कभी सलाह ली होगी. वैज्ञानिकों के उपायों में एक था, आक्रामक तरीक़े से टेस्टिंग और ट्रेसिंग.
नरेंद्र मोदी ने तीन बार लॉकडाउन को आगे बढ़ाया, लेकिन फिर भी वो एक चीज़ नहीं कर पाए, जो भारत को इसके प्रकोप से बचा सकती थी- और वो थी टेस्टिंग. लॉकडाउन का इस्तेमाल करके टेस्टिंग सुविधाएं बढ़ाने की बजाय, पीएम ने राष्ट्र को केवल इसलिए संबोधित किया, कि मोर्चे पर डटे कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए, या तो देशवासी तालियां बजाएं, या महामारी से छाए अंधेरे को दूर करने के लिए, कैण्डल्स जलाएं. भारत को उत्साह बढ़ाने की ज़रूरत नहीं थी. उसे ठोस नीतियां चाहिएं थीं.
दरअसल, पीएम के इन चीज़ों पर ज़ोर देने से सिर्फ अवैज्ञानिक प्रवृत्ति को ही बढ़ावा मिला. ये उन व्हाट्सएप फॉर्वर्ड्स से भी ज़ाहिर था, जिन्होंने ऐसे ऐसे दावों के साथ अंध-विश्वास और मिथ्या को बढ़ावा दिया, कि एक ख़ास समय पर कैण्डल जलाने या थाली बजाने से, वायरस को मारा जा सकता है.
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पीएम के गैर-जिम्मेदाराना संदेश
दरअसल मोदी ने ‘गैर-जिम्मेदाराना’ बयान जारी किए, जिनमें राष्ट्र से कहा गया कि 21 दिन की इस लड़ाई में, कोरोनावायरस को उसी तरह परास्त करें, जैसे 18 दिन में महाभारत युद्ध जीता गया था. देश को 21 दिन के लॉकडाउन के ज़रिए, महामारी से बचने के लिए झूठे वादों की ज़रूरत नहीं थी. भारतीयों को ज़रूरत थी वास्तवकिता से रूबरू होने की. लोगों को ज़रूरत थी कि पीएम हफ्ते में नहीं, तो कम से कम एक पखवाड़े में उनसे मुख़ातिब हों, ताकि वो अगले कुछ महीनों के लिए तैयारी कर सकें, अपने संसाधन बचाकर रखें, सतर्क बने रहें, और कोविड के मरीज़ों को कलंकित न करें लेकिन पीएम मोदी ने इनमें से किसी की परवाह नहीं की. वो आज भी प्रेस कॉनफ्रेंस का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं.
इस लम्बे और बिना सोचे समझे लॉकडाउन ने, देश को सीधे-सीधे एक आर्थिक समस्या में धकेल दिया है और बीमारी तथा पैसे की तंगी दोनों के हिसाब से, सबसे बुरी तरह ग़रीब लोग ही प्रभावित हुए हैं. भारत में जो मज़दूर संकट सामने आया, उसे पूरी दुनिया ने देखा. इसके ऊपर हो रही सियासत भी घिनौनी रही है. ग़रीबों की मुसीबतों पर देर से जागना, और उनका असहयोग प्रधानमंत्री मोदी का एक अंदाज़ रहा. नोटबंदी से पैदा हुई अव्यवस्था के दौरान, नरेंद्र मोदी की ख़ामोशी की मिसाल देते हुए, उनके आलोचक इसकी अपेक्षा कर रहे थे, लेकिन उनके समर्थकों ने मज़दूरों के इस संकट को, अपरिहार्य बताकर नज़रअंदाज़ कर दिया.
लेकिन सच्चाई यही है कि लॉकडाउन के ख़राब ढंग से अमल में लाने से, लोगों की मौतें हुई हैं. और इसे महामारी के दौरान, अनिवार्य कोलेटरल डैमेज बताकर ख़ारिज नहीं किया जा सकता. कोविड के खिलाफ लड़ाई में, भारत के अलावा किसी भी देश में, इतने बड़े पैमाने पर ग़रीबों को, भूख या साधनों की कमी से मरते नहीं देखा गया. भारत अपने ग़रीबों को किसी सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे रहा है और इसके लिए किसे ज़िम्मेदार होना चाहिए?
ख़ुद पीड़ितों को? मोदी समर्थक आपको यकीन दिला देंगे, कि ये ग़रीबों की ही ग़लती थी, जो घर लौटने की कोशिश में मारे गए. वो अपेक्षा करते हैं कि ग़रीब लोग जहां पर हैं, वहीं जमे रहें, भले ही उन्हें किराए की उनकी झोंपड़ियों से निकाल दिया गया हो, या उनके पास खाने को कुछ ना हो. ऐसे समय में पीड़ितों को ही बड़े पैमाने पर शर्मसार किया जाना, एक शैतानी हरकत थी.
फिर आया पैकेज
आज की एकमात्र पीआर रणनीति है आत्म-निर्भर भारत की शब्दों की पहेली. लेकिन पहले से ही रेंग रहे व्यवसाइयों से कहना कि वो उठ खड़े हों, और मोदी सरकार की ओर से पेश किए गए 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज से लोन लेकर अपने धंधे फिर से चालू करें, ना सिर्फ एक छल है बल्कि उदासीनता से भी भरा है. सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं, कि अप्रैल 2020 में भारत में 12.2 करोड़ लोगों ने अपने रोज़गार गंवाए, जिनमें से अधिकतर मज़दूर और छोटे व्यवसायी थे. और अगर आमतौर पर ये माना जाता है, कि सिर्फ ग़रीब लोग प्रभावित हैं, तो ये दोहराया जाना चाहिए, कि सीएमआईई के अनुमान के मुताबिक़, अप्रैल 2020 में 1.8 करोड़ कारोबारी लोग भी, अपने धंधे से बाहर हो गए.
असल में इस महामारी में आर्थिक रूप से सबसे अधिक प्रभावित महिलाएं हुई हैं, जिनमें से असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली बहुत सी महिलाएं अब बेरोज़गार हैं. इसके अतिरिक्त, 23.3 प्रतिशत पुरुष और 26.3 प्रतिशत महिला कर्मचारियों ने अपने जॉब गंवा दिए हैं, ख़ासकर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में, जहां फैक्ट्रियां और औद्योगिक ज़ोन्स स्थित हैं. आंकड़े बताते हैं कि 46 प्रतिशत महिलाओं ने, बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को वोट दिए थे.
काम मत कीजिए, विपक्ष को दोष दीजिए
मोदी सरकार ने महामारी से निपटने में अपनी नाकामी का संज्ञान लिया है, और गृह मंत्री अमित शाह ने स्वीकार किया है कि ‘हो सकता है कि सरकार से कहीं कोई ग़लती हो गई हो’. लेकिन उनके इक़रार में भी सियासी कीचड़ उछाली गई, जिसमें शाह ने विपक्ष पर आरोप मढ़ते हुए उससे पूछा कि अमेरिका या स्वीडन में बैठे लोगों के इंटरव्यू करने के अलावा उसने क्या किया है.
विडंबना ये है कि अमित शाह ये सवाल उनसे पूछते हैं, जिन्हें ख़ुद उन्होंने और पीएम ने, कई मौक़ों पर देश के सियासी नक़्शे से मिटा देने का दावा किया है. शाह और मोदी दोनों ने बहुत महत्वाकांक्षा के साथ, ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के विचार को आगे बढ़ाने की कोशिश की है, जिसकी वजह से उनका विरोधियों पर सवाल उठाना असंगत लगता है.
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बीजेपी पर, उनकी सरकार को गिराने के प्रयास का आरोप लगाया है, जिससे लगता है कि मोदी सरकार सिर्फ महामारी से निकलने का प्रयास कर रही है और अपने राजनीतिक फायदों की ख़ातिर भारत के भविष्य की बलि चढ़ा रही है.
लेकिन कोरोनावायरस ‘लोकप्रिय’ मोदी सरकार को छोड़ने वाला नहीं है. आम चुनाव अभी दूर हो सकते है लेकिन राज्यसभा में वर्चस्व, जो मोदी-शाह चाहते हैं, वो विधान सभा चुनावों से ही मिल सकता है. और राजनीतिक रूप से अहम राज्यों में, चुनाव आने ही वाले हैं. बिहार और बंगाल में सबसे बड़ी प्रवासी आबादी है. सरकार की कड़ी निंदा करते हुए ग़रीब पुरुषों और महिलाओं के वायरल हुए वीडियो क्लिप्स के मद्देनज़र, पीएम मोदी को अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को विराम देकर, कोरोनावायरस की इस भीषण समस्या से निपटना चाहिए, जो उनके सामने खड़ी है, और जिसे उन्होंने लगता है अभी तक बहुत हल्के में लिया है.
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(लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
Congressi cahmachi..kabhi arvind kejribal ..udhav thakre ki Sachi b duniya ko batao….jinkr yanha sabse jyada case hai…..Tim kitani gandi mansikata se grast ho yah batane ki jarurat nahi…sab jante hai ground or work state govt job hi karna hai..lekin tumne udav or arvind se pase liy hai to unko Sach nahi bologo