झारखंड के दूर-दराज़ के गांवों के आदिवासी लोगों के लिए, जहां विधानसभा चुनावों के अंतिम चरण के लिए मतदान आज खत्म हो जाएंगे, यहां सबकुछ सामान्य है. उन्हें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर चल रहे महाभियोग, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की फांसी की सज़ा और देश भर में नागरकिता संशोधन कानून पर हो रहे विरोध-प्रदर्शन को लेकर कोई चिंता नहीं है. उनकी चिंता अर्थव्यवस्था की मंद होती चाल से प्रभावित हो रही है. इसका कारण ये है कि उनके जनजीवन पर इससे फर्क पड़ रहा है.
इन चुनावों में बहुत सारे उम्मीदवारों और राजनीतिक पार्टियों के लिए, जिसके नतीज़े सोमवार को आने हैं. दूर-दराज़ के इलाकों में रहने वाले लोगों का वैश्विक, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय घटनाओं के ख़बर बनने में भूमिका है.
इसलिए नेताओं के चुनावी भाषणों में, कांग्रेस से लेकर भारतीय जनता पार्टी और झारखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) तक, ने काफी सारे मुद्दों को उठाए, उन सब के सिवाए जिसकी वाज़िब चिंताएं आदिवासी लोगों से हैं.
भाजपा के दिग्गज कैपेंनर- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह- ने चुनावी भाषणों में कहा कि आतंकवाद पाकिस्तान की धरती से पनप रहा है, सीमावर्ती इलाकों से घुसपैठ का खतरा है और वो भारत की सीमा में घुसना चाहते हैं जिसमें नेपाल सीमा की मदद ली जा रही है और अयोध्या में विशाल राम मंदिर बनाने की बात कही.
छोटे नेताओं ने कोशिश की कि वो इस्लामिक देशों में अल्पसंख्यकों की खराब दशा के बारे में बताए और उनको बचाने के लिए भाजपा कैसी कोशिशें कर रही हैं, इसके बारे में जानकारी दें.
इसके जवाब में विपक्षी पार्टियों ने ज़ोरदार तरीके से इस कथानक का जवाब दिया और संविधान को बचाने की अपनी बात को रखी, अगर वो चुन कर आते हैं.
स्थानीय मुद्दे और स्थानीय उम्मीदवार
झारखंड में पूरे अभियान के दौरान अपने चुनावी भाषणों में स्थानीय मुद्दों को कवर करने वाले केवल स्वतंत्र उम्मीदवार थे, उनमें से कुछ ने राष्ट्रीय दलों, भाजपा और कांग्रेस, या क्षेत्रीय दलों के नेताओं, दोनों को ही नकार दिया. इसमें कोई चकित होने वाली बात नहीं होगी अगर इनमें से कुछ लोग जीतकर आ जाएं.
यह भी पढ़ें : झारखंड चुनाव में मोदी, राहुल, योगी, रघुवर, हेमंत की फिसलती रही ज़ुबान, मुंह से निकले ये ज़हरीले बोल
यह संभव है कि झारखंड चुनावों के नतीजे त्रिशंकु विधानसभा बना सकते हैं.
अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक संकेत होगा. क्योंकि केंद्र जो कि विकास और बज़टीय आवंटन के लिए छोटे राज्यों को पैसा देती है, वहां पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर चुनाव लड़ना हमेशा फायदा नहीं देने वाली है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने स्थानीय मुद्दे उठाए जिसमें नक्सल समस्या और आदिवासी-ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं हुए विकास का मुद्दा अहम था. उनकी रैलियों में बाकी पार्टियों के नेता की तुलना में अच्छी खासी भीड़ थी. ये देखने वाली चीज़ होगी कि झारखंड किस ओर जाता है. अमित शाह ने एक रैली में पिछले महीने मतदाताओं को याद दिलाया कि जब 2000 में झारखंड, बिहार से अलग हुआ तो उस समय सत्ता में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार थी.
भाजपा की चुनावी प्रचार की नीति
भाजपा अपने हाई-प्रोफाइल कैंपेन के जरिए और प्रचार के दौरान उन मुद्दों को उठाती है जिसका स्थानीय मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है, फिर भी कई राज्यों के चुनावों में आराम से सम्मानजनक आंकड़े ले आती है. पार्टी की ये नीति इसलिए सफल हो रही है क्योंकि लोग लगातार प्रधानमंत्री मोदी के करिश्मे से काफी प्रभावित हैं. जिनका नेतृत्व के मामल में कोई तोड़ नहीं है. लोगों का उनमें विश्वास है और उनके द्वारा विकास के प्रति की जाने वाली अपील पर भरोसा कर रहे हैं. इसके इतर, कांग्रेस के स्थानीय और वरिष्ठ नेता, लोगों के बीच अपने अपील के जरिए भरोसा पैदा नहीं कर पा रहे हैं.
इसके अलावा जमीनी स्तर पर काम करने के लिए भाजपा के पास एक मजबूत कैडर भी है जो बाकी पार्टियों की तुलना में चुनावों को दिशा देती है. इसस कैडर में कई स्थानीय स्तर के सामाजिक संगठन और गैर-सरकारी उपक्रम काम करते हैं जिसमें भाजपा की वैचारिक मातृत्व संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का भी सहयोग है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे की कोई तोड़ न होने के कारण और पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह की संगठनात्मक उत्कृष्टता, कैडर के बिना थके काम करना और सभी पोलिंग बूथ तक पहुंचना, भाजपा को एक नई ताकत दे रहा है. इससे कोई मतलब नहीं है कि चुनाव प्रचार के दौरान किन मुद्दों के इर्द-गिर्द सबकुछ चल रहा है.
फिर भी चिंता बाकी है
लेकिन राज्य स्तर पर भाजपा के वर्गों में इस बात को लेकर काफी चिंता है कि पार्टी शायद इस बार के झारखंड चुनाव में अपने दो स्टार प्रचारकों की क्षमताओं पर बहुत अधिक दांव पर लगी है. दिसंबर 2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में तेजस्वी और लगभग अप्रत्याशित हार, स्थानीय नेता रमन सिंह के नेतृत्व में 15 वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद भी छत्तीसगढ़ में भाजपा 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 49 सीटों से घटकर 15 पर आ गई और उन्हें हार झेलनी पड़ी जिस कारण राज्य कांग्रेस के पास चला गया.
यह भी पढ़ें : झारखंड चुनाव के आखिरी चरण का बचा है वॉर, परिणाम जानने को सभी बेकरार
यह कोई तर्क नहीं है कि ग्रामीण और जनजातीय आबादी राष्ट्रीय मुद्दों, सीमा पार आतंकवाद या पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के घृणित उत्पीड़न से अनभिज्ञ हैं. इसी तरह, अत्यधिक आबादी वाले शहरों में चुनाव परिणाम ने घर को इस बिंदु पर संचालित किया है कि स्थानीय मुद्दे, जैसे बेहतर रहने की स्थिति, किफायती आवास और कानून और व्यवस्था, परिणाम निर्धारित करते हैं.
झारखंड में भाजपा अच्छी स्थिति में दिख रही है और नतीज़ों में शायद वो सत्ता-विरोधी लहर को भी पार कर जाए. लेकिन पार्टी की जीत के बाद असल चुनौती शुरू होगी. भाजपा को स्थानीय स्तर पर लोगों की दिक्कतें सुलझाने में काफी मशक्कत करनी पड़ेगी. अपने प्रतिद्वंद्वी दलों के समर्थन आधार का सम्मान करते हुए, आम सहमति पर पहुंचना होगा और झारखंड को व्यापक आर्थिक विकास और अधिक से अधिक ऊंचाइयों तक ले जाना होगा.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य हैं. पूर्व में वह ऑर्गनाइज़र के संपादक रह चुके हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)