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Saturday, 21 December, 2024
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तंदूर कांड के मुजरिम को महात्मा बनाने पर क्यों तुला है मीडिया?

सुशील शर्मा पर हत्या और अपनी पत्नी की लाश को तंदूर में जलाने का आरोप सिद्ध है, लेकिन मीडिया को लगता है कि वह महात्मा है.

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सुशील शर्मा अब जेल से बाहर है. उसने 23 साल पहले 2 जुलाई 1995 को अपनी पत्नी नैना साहनी को मार कर उसकी लाश को अपने रेस्टोरेंट के तंदूर में जलाने की कोशिश की थी. उसने शव के टुकड़े टुकड़े किए और मक्खन लगाकर उन्हे आग में जला रहा था, तभी दिल्ली पुलिस और होमगार्ड के दो जवान मौके पर पहुंच गए. दिल्ली प्रदेश युवा कांग्रेस का अध्यक्ष रहा सुशील वहां से भाग और बाद में पकड़ा गया. उसे निचली अदालत और हाई कोर्ट में फांसी की सजा हुई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उसे उम्र कैद की सजा सुनाई. सजा पूरी करके वह बाहर आ गया है.

इस मामले में मीडिया ने जिस तरह की रिपोर्टिंग की है, वह हमारी मीडिया और समाज पर एक गंभीर टिप्प्णी है.

नवभारत टाइम्स का शीर्षक ऐसा इंप्रेशन देता है मानो सुशील शर्मा पश्चाताप की आग में जल रहा हो. अखबार लिखता है, “मेरी ज़िंदगी अब एक कोरा काग़ज़, नए सिरे से इबारत लिखनी होगीतंदूर कांड का दोषी”. आगे वह और कारुणिक दृश्य उपस्थित कराता है, “…शर्मा की आँखों में जेल से रिहाई के बाद अब पछतावे के आंसू हैं, तो साथ ही आगे की ज़िंदगी के लिए राह बनाने की चुनौती भी”. नभाटा ने शर्मा को आस्थावान बताते हुए उसका बयान छापा है, “मैं साईं बाबा और देवी दुर्गा को मानता हूं. मैंने हर दिन भगवान की प्रार्थना की और इससे जेल में रहने के दौरान मुझे बहुत संबल मिलता था. अब मैं शिरडी जाने की योजना बना रहा हूँ”. अख़बार यहीं पर नहीं रूकता है. आगे वह 24 जनवरी को शर्मा के 60वें जन्मदिन मनाने की सूचना भी अपने पाठकों को परोसता है.

कुल मिला कर नवभारत टाइम्स सुशील शर्मा को एक हृदय-परिवर्तन की शुचिता भरी प्रक्रिया से गुज़रा हुआ नेक इंसान साबित करने के भगीरथ प्रयास में तन्मयता से लगा प्रतीत होता है, जिससे जाने-अनजाने अपनी धर्मपत्नी को मार कर तंदूर के हवाले कर देने की भूल हो गई.

लेफ्ट लिबरल लोगों के प्रिय अखबार द हिंदू की सुशील शर्मा की रिहाई की कवरेज पढ़कर किसी के भी आंखों से आंसू निकल सकते हैं. उसने सुशील शर्मा की अपने पिता के साथ एक बेहद भावुक कर देने वाली तस्वीर लगाई है. खबर की आखिरी लाइन में सुशील की 85 साल की मां कहती हैं- ‘हमारी उम्र तो 10 साल और बढ़ गई.’ खबर के अंदर सुशील शर्मा को रोते हुए दिखाया गया है और बताया गया है कि अब उसका सारा ध्यान अपने बूढ़े मां-बाप की सेवा करना होगा. खबर में बताया गया है कि सुशील शर्मा किस तरह रोड रेज को लेकर चिंतित है और स्थिति को किस तरह सुधारना चाहता है. रिपोर्टर सुशील शर्मा के हवाले से बताता है कि जेल में उसकी मुलाकात एक अन्य ब्राह्मण से हुई, जो दहेज हत्या करके वहां पहुंचा था. उससे सुशील को धार्मिक किताबें पढ़ने को दीं, जिससे उसकी जिंदगी बदल गई.

दैनिक जागरण ने तो सबको पछाड़ दिया मानो, एक ‘सनसनीख़ेज़ रहस्योद्घाटन’ करते हुए वह शीर्षक दे रहा है, “तंदूर (नैना साहनी) मर्डर: 23 साल जेल में रहे सुशील ने खोला सनसनीखेज राज”. वह राज़ क्या है? यह कि “सुशील शर्मा ने पांच साल में पांच करोड़ बार गायत्री मंत्र का उच्चारण किया और इस दौरान विपश्यना भी किया. इसी वजह से वह ख़ुद को मानसिक तनाव से बाहर लाने में क़ामयाब हो सके”.

इस पर ज़रा-सा भी सोचने-समझने वाला इंसान हंसे या रोये या अपना सर धुने? मतलब, ऐसे दिखा-बता रहे हैं जैसे सुशील शर्मा नहीं, बल्कि पंडित नेहरू आज़ादी की लड़ाई से जेल से छूटे हों.

जनसत्ता ने हेडलाइन दी है, “बीबी की लाश को तंदूर में भूना था, जेल से निकल सुशील शर्मा बोला – जोड़ों की होनी चाहिए काउंसलिंग”. वह लिखता है कि अपने किए पर पश्चात्ताप करते हुए सुशील शर्मा ने कहा कि हमें कभी भी किसी को लेकर हद से ज़्यादा पजेसिव नहीं होना चाहिए. … शुरूआत में मेरा स्वभाव प्रभुत्वशाली था, लेकिन अब उसमें बदलाव आ गया है”.

ऐसा मालूम पड़ता है कि किसी अंगुलिमाल ने सही राह पकड़ ली हो, कोई पथभ्रष्ट सद्बुद्धि पा गया हो, और सारे के सारे मीडिया घराने उसके गौरव-गान में तल्लीन हो गए.

एनडीटीवी लिखता है, “तंदूर कांड: 23 साल बाद जेल से बाहर आया सुशील शर्मा बोला- करना चाहता हूं जोड़ों की काउंसलिंग”. अंदर की दास्तां इसकी भी नवभारत टाइम्स जैसी ही है, शर्मा जी की धार्मिक प्रकृति को ज़ोर डालकर उकेरा गया है, “मैं अपने माता-पिता के साथ वैष्णो देवी भी जाना चाहता हूं, लेकिन अब वे बेहद बुजुर्ग हो गए हैं और सफ़र नहीं कर सकते”.

यह भी शर्मा को पश्चात्ताप में पाता है और रहम खाता हुआ दिखता है.

टाइम्स ऑफ इंडिया लिखता है, “Tandoor murder case: Sushl Sharma felt suicidal in jail, but found hope in religion, computer”. मतलब, मजहब सारे गुनहगारों की पनाहगाह है. कुछ करो, और फिर धर्म की शरण में चले जाओ. वह कोई एनजीओ खोल कर गार्हस्थ्य जीवन में होने वाली हिंसा से जोड़ों को बचाने के लिए काउंसलिंग करने की इच्छा रखता है.

ज़ी न्यूज बताता है कि – कुख्यात ”तंदूर कांड” के दोषी सुशील शर्मा की आंखों में जेल से रिहाई के बाद अब पछतावे के आंसू हैं, तो साथ ही आगे की जिंदगी के लिए राह बनाने की चुनौती भी. अदालत ने सजा काटने के बाद शर्मा की रिहाई के आदेश दे दिए, लेकिन रिहाई के बाद शर्मा को पता है कि आगे का सफर बहुत मुश्किल होगा. युवा कांग्रेस के पूर्व नेता शर्मा ने रविवार को लोधी रोड स्थित साईं मंदिर में प्रार्थना की. मंदिर में पूजा के बाद शर्मा ने बताया, ”मैं साईं बाबा और देवी दुर्गा को मानता हूं. मैंने हर दिन भगवान की प्रार्थना की और इससे जेल में रहने के दौरान मुझे बहुत संबल मिलता था. अब मैं शिरडी जाने की योजना बना रहा हूं.”

ज्यादातर अखबारों और वेबसाइट्स ने इस मौके पर सुशील शर्मा की बूढ़े माता-पिता के साथ तस्वीर छापी है. एक तस्वीर में वह पिता का पैर छूता दिखाया गया है. उसे संस्कारी बताने की हर तरह की कोशिश मीडिया ने की है.

लेकिन कोई भी अखबार आज के दिन नैना साहनी के परिवार के पास नहीं गया. आखिर वहां भी तो कोई होगा, और उनकी भी तो कोई राय होगी.

यह वही संवादपालिका है, जो सामूहिक संवाद के स्तर को लगातार गिराने का काम कर रही है. सात-सात विश्वविद्यालय खोलने वाले लालू प्रसाद ललुआ हो जाते हैं, मगर “पटना यूनिवर्सिटी को पैसा देने का मतलब गंगा में पैसा फेंकना” जैसा मंत्र बतलाने वाले जगन्नाथ मिश्रा जगन्नाथ बाबू बने रहते हैं. प्रोफेसर रॉबिन जोफरी यूं ही नहीं कहते थे कि चूंकि मीडिया में डिसीजन मेकिंग बॉडी में मार्जिनलाइज़्ड सेक्शन के लोग नहीं हैं, इसलिए उनके हितों के एजेंडे उभर कर सामने नहीं आते. एक ही तरह के मामले में मीडिया दोहरा ट्रीटमेंट करती है.

मार्शल मैकलुहन ने एक बार कहा था, “People don’t actually read newspapers. They step into them every morning like a hot bath”. यह तब जितना सच था, आज भी उतना ही प्रासंगिक है. निर्भर करता है कि चीजों को परोसा कैसे गया. यह इन्फोटेनमंट न्यूज़टेनमंट की शक्ल में लगातार छिछला प्रवाह दे रहा है. इसकी एक बड़ी वजह उस लोकस का होना भी है जहां से रिपोर्टर या मीडिया संस्थान के मालिक अपनी सामाजिक परवरिश लिए आते हैं, और वो उनका पीछा नहीं छोड़ते.

कितनी सूक्ष्मता से मीडिया ने धरम-करम की बातों को प्रमुखता देकर जनमानस को एक अलग दिशा में ले जाकर शर्मा के प्रति हमदर्दी पैदा करने की शरारत की है. मसऊद अहमद ने ठीक ही कहा है-

हुस्न की तहज़ीब से इंजीर की पत्ती गई

शाख़े-गुल पे ये खिजा पहले कभी आई न थी.

(लेखक मीडिया अध्ययन केंद्र, जेएनयू से पीएचडी कर रहे हैं)

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