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Tuesday, 17 December, 2024
होममत-विमतमुसलमानों को मुख्तार अंसारी जैसे नेताओं से मुंह मोड़ लेना चाहिए. वे कभी भी वास्तविक सुधार नहीं लाएंगे

मुसलमानों को मुख्तार अंसारी जैसे नेताओं से मुंह मोड़ लेना चाहिए. वे कभी भी वास्तविक सुधार नहीं लाएंगे

मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, मोहम्मद शहाबुद्दीन अपने दम पर सत्ता में नहीं आये; बल्कि, अपने हितों की पूर्ति करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा उनका समर्थन किया गया.

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मुख्तार अंसारी, अतीक अहमद, मोहम्मद शहाबुद्दीन अपने दम पर सत्ता में नहीं आये; बल्कि, अपने हितों की पूर्ति करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा उनकी सहायता और समर्थन किया गया.

28 मार्च को मुख्तार अंसारी की मौत के बाद, सार्वजनिक चर्चा परस्पर विरोधी नैरेटिव के जाल में उलझ गई है. अंसारी अपने राजनीतिक कौशल के लिए जाने जाते थे और हाशिए पर पड़े लोगों, खासकर अपने समुदाय के बीच उनकी रॉबिन हुड वाली छवि थी. कार्डियक अरेस्ट के कारण हुई उनकी मौत के बाद उनके जनाज़े में शामिल होने वालों की भारी भीड़ देखने को मिली. हालांकि, अवसर की गंभीरता के बीच, एक विवादास्पद बहस उभरती है: मुस्लिम समुदाय के कुछ वर्ग अंसारी जैसे लोगों को उनकी कथित आपराधिक गतिविधियों के चश्मे के बजाय अपनी पहचान से जोड़कर क्यों देखते हैं?

अंसारी के ऊपर लगे आपराधिक आरोपों को जब उनकी वंचितों का भला करने वाले और उनके समर्थक होने की छवि के साथ तुलना करते हैं तो यह पहचान की राजनीति और नैतिक जवाबदेही की जटिलताओं के बारे में बहस को फिर से एक बार छेड़ देती है.

यह बात केवल मुख्तार अंसारी तक ही सीमित नहीं है; यह मुस्लिम समुदाय के अन्य लोगों जैसे अतीक अहमद और मोहम्मद शहाबुद्दीन के लिए भी लागू होती है. आपराधिक पृष्ठभूमि वाले अतीक अहमद और शहाबुद्दीन दोनों अपने समुदाय का समर्थन पाकर राजनीति में ऊंचाई तक गए. महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें मुस्लिम बुद्धिजीवियों, खासकर लिबरल और लेफ्ट झुकाव वाले, का भी समर्थन प्राप्त था.

रिजेक्ट करने की अनिच्छा

ऐसे छवि के लोगों को रिजेक्ट करने और उनके अपराधों को स्वीकार करने की समुदाय की अनिच्छा सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता और ऐतिहासिक रूप से रही शिकायतों के कारण है. पसमांदा मुसलमानों के दृष्टिकोण से, जो लंबे समय से हाशिए पर और उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं, अंसारी, अहमद और शहाबुद्दीन जैसे व्यक्ति अक्सर खुद को एक परेशान करने वाले बहुसंख्यकवादी राज्य के खिलाफ डट कर खड़े रहने वाली शख्सियत के रूप में पेश करते हैं, भले ही सत्ता में कोई भी हो. अपने दागदार अतीत के बावजूद, इन हस्तियों को मसीहा के रूप में देखा जाता है जिनके पास लोग अपने दर्द और शिकायतें लेकर जा सकते हैं. पसमांदा मुस्लिम पहचान का नैरेटिव और इन हस्तियों के महत्त्व का बढ़ना अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों और हितों की रक्षा करने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है. इस संदर्भ में, उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि का होना अक्सर समुदाय के प्रति उनकी सेवा के नैरेटिव पर भारी पड़ता है.

मुझे याद है जब मैं छोटी थी तो वाराणसी में अपने चुनाव अभियान के दौरान मुख्तार अंसारी हमारे घर आए थे. मेरे पिता ने उन्हें हमारे बाहरी बैठकी में बैठने के लिए कहा और उन्हें समर्थन देने के आश्वासन के साथ उन्हें चाय भी पिलाई. हालांकि, हो सकता है कि कई गरीब लोग उन्हें मसीहा की तरह मानते हों लेकिन हमारे जैसे परिवारों ने बस उनकी बुरी नज़र से बचने की ही हमेशा कोशिश की. सामान्य लोगों के लिए, उनके जैसे शक्तिशाली शख्सियत को मना करना आसान नहीं था क्योंकि हम संभावित दुष्परिणामों को झेलना पड़ सकता था. इसलिए असहमति की आवाज़ें कम सुनाई पड़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए. यहां तक कि जो लोग उन्हें एक बोझ के रूप में मानते थे, उन्होंने खुद को एक ऐसी व्यवस्था में फंसा हुआ पाया जहां उनकी शक्ति को सामान्य मान लिया गया था. उनके अच्छे-खासे प्रभाव को देखते हुए उनके खिलाफ जाना किसी के पास कोई विकल्प ही नहीं था.

किसी पर्याप्त सबूत के बिना कुछ ट्वीट्स के आधार पर आरफा खानम शेरवानी जैसी कुछ अशराफ बुद्धिजीवियों का यह दावा कि मुख्तार अंसारी की मौत स्वाभाविक नहीं हो सकती है, मुस्लिम समुदाय के भीतर उत्पीड़न के नैरेटिव को और मजबूत करता है. अंसारी को उसके आपराधिक रिकॉर्ड के बावजूद, राज्य उत्पीड़न के शिकार के रूप में पीड़ित ठहराना इस धारणा को मजबूत करता है कि शक्तिशाली मुस्लिम भी सुरक्षित नहीं हैं, जिससे समुदाय के भीतर असुरक्षा और अलगाव की भावना बढ़ जाती है. फिर इस नैरेटिव का उपयोग असदुद्दीन ओवैसी जैसे राजनेताओं द्वारा किया जाता है, जो समर्थन जुटाने और अपनी राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने के लिए समुदाय की पीड़ित होने की भावना का फायदा उठाते हैं.

विडंबना यह है कि ये अशराफ बुद्धिजीवी और राजनेता, जो समुदाय के कुछ सबसे आपराधिक, सांप्रदायिक और हानिकारक तत्वों का समर्थन करते हैं, उन्हें प्रगतिशील माना जाता है और वे उदारवादी व वामपंथी हलकों से उन्हें समर्थन प्राप्त होता है.

कल्ट पर्सनैलिटी से परे सुधार

मुस्लिम समुदाय के भीतर सुधार की तत्काल आवश्यकता है, फिर भी समुदाय के नेता इस संबंध में काफी हद तक विफल रहे हैं. यह विफलता न केवल समुदाय के भीतर की कमियों को उजागर करती है बल्कि राज्य और उसके संस्थानों की प्रणालीगत अपर्याप्तताओं को भी रेखांकित करती है. यह तब और ज्यादा साफ तौर पर दिखता है जब संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति राजनीतिक ढांचे के भीतर वैध सत्ता के पदों पर आसीन हो जाते है.

इसके बाद, जब ये वर्गों के बीच व्याप्त अंतर का उपयोग करके खुद को आधुनिक युग के रॉबिन हुड के रूप में प्रदर्शित करते हैं तब सिस्टम एक बार फिर विफल होता हुआ दिखता है. वास्तविकता यह है कि किसी व्यक्ति को अपनी जरूरतों के लिए ऐसी शख्सियत पर भरोसा करने के लिए मजबूर महसूस करना, शासन और सामाजिक कल्याण की प्रणालीगत विफलता को दिखाता है, जिसे सभी नागरिकों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना चाहिए. यह जरूरी है कि हम इन प्रणालीगत कमियों को दूर करें और एक ऐसे समाज का निर्माण करें जहां बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुंच व्यक्तियों की इच्छा पर निर्भर न हो बल्कि शासन की एक मजबूत और सुलभ प्रणाली द्वारा गारंटीकृत हो.

एक और महत्वपूर्ण विफलता राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है. ये लोग अपनी क्षमताओं की वजह से सत्ता में नहीं आए; बल्कि, अपने हितों की पूर्ति करने वाले राजनीतिक दलों द्वारा उनका पोषण और समर्थन किया गया. अंसारी को मायावती और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी का संरक्षण प्राप्त था, अतीक अहमद उसी पार्टी से जुड़े थे और शहाबुद्दीन लालू प्रसाद यादव के पसंदीदा थे. हालांकि, संभावना है कि कुछ लोग इन स्थितियों को पहचान की राजनीति (Identity Politics) के चश्मे से देखें, लेकिन वास्तविकता कहीं अधिक सूक्ष्म है. ये लोग इतने पावरफुल और महत्त्वपूर्ण इसलिए हो पाए क्योंकि ऐसा सिस्टम मौजूद था जिसने इनको यहां तक पहुंचने में न सिर्फ मदद की बल्कि प्रोत्साहित भी किया. यह राजनीतिक गठबंधनों, प्रणालीगत विफलताओं और सोशल डायनमिक्स की एक जटिल परस्पर क्रिया है जिसने उन्हें सत्ता तक पहुंचने में मदद की.

हालांकि, रक्षा करने वाले की भूमिका निभाने के लिए दागी अतीत वाले व्यक्तियों पर निर्भरता हमारी सामूहिक चेतना में एक बुनियादी दोष को उजागर करती है. सच्चा सुधार किसी व्यक्ति को भगवान की तरह पूज्यनीय बनाने से परे जाना चाहिए और सामाजिक अन्याय और असमानता के मूल कारणों को हल करना चाहिए. उत्तरदायित्व और नैतिक शासन के प्रति प्रतिबद्धता के साथ प्रणालीगत परिवर्तन के माध्यम से ही, हम पीड़ित होने भावना (Victimhood) और निर्भरता के चक्र से मुक्त होने और एक ऐसे समाज का निर्माण करने की उम्मीद कर सकते हैं जहां न्याय, समानता और गरिमा केवल आकांक्षाएं नहीं हैं बल्कि सभी लोगों के लिए जीवंत वास्तविकताएं हैं.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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