भारत कोई रवांडा नहीं है, और यहां रेडियो रवांडा जैसे प्रसारणों के लिए जगह नहीं होनी चाहिए. सुदर्शन न्यूज़ के अनगढ़ नाम वाले कार्यक्रम ‘बिंदास बोल’ में खुराफाती एंकर सुरेश चव्हाणके की प्रस्तुति नफरत फैलाने की खुल्लमखुल्ला कोशिश थी. स्पष्टतया चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने 15 सितंबर 2020 को इन शब्दों के साथ उसके टेलीकास्ट को रोका था: ‘यह कार्यक्रम बहुत घातक है.’ देखिए इस कार्यक्रम का विषय कितना भड़काऊ है कि मुसलमानों ने सरकारी सेवाओं में घुसपैठ कर ली है. और यह बिना किसी तथ्यात्मक आधार के यूपीएससी की परीक्षाओं पर सवाल खड़े करता है. यूपीएससी पर आक्षेप लगाए गए हैं. बिना किसी तथ्यात्मक आधार वाले ऐसे आरोपों की अनुमति कैसे दी जा सकती है? क्या एक मुक्त समाज में ऐसे कार्यक्रमों की अनुमति दी जा सकती है.’
प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता रूढ़ियों, पूर्वाग्रहों, आशंकाओं, आरोपों और प्रत्यारोपों पर फलती-फूलती है. लेकिन बहुत कम लोगों ने सोचा होगा कि सार्वजनिक विमर्श का इस हद तक पतन हो जाएगा. हालांकि, ‘जिहाद’ वाली भद्दी और ओछी टिप्पणी सुदर्शन न्यूज़ से अनपेक्षित नहीं है, वहीं दूसरी तरफ भी समान रूप से हानिकर स्टीरियोटाइप फैलाने वाले मौजूद हैं. सरकारी मुस्लिम ऐसी ही एक परिकल्पना है.
भारतीय मुसलमानों का डर
भारतीय शासन और इसके तंत्र को लेकर मुसलमानों के बीच कई आशंकाएं मौजूद हैं. उनका संदेह दो स्तरों पर काम करता है. एक स्तर पर संदेह एजेंसियों के मुसलमानों के प्रति द्वेषभाव को लेकर है. इसलिए, जो लोग सरकार के लिए काम करते हैं, उन्हें दलाल माना जाता है और सरकारी मुसलमान के रूप में उन्हें कलंकित किया जाता है, जिन्होंने एक शैतानी शासन के लिए अपना ईमान बेच दिया है. एक अन्य स्तर पर, भारतीय मुसलमान समकालीन भारत में मुख्यधारा में आने के लिए शासन के साथ और अधिक घनिष्ठता से जुड़ना चाहते हैं. लेकिन अलगाव का भाव इतना गहरा है कि उन्हें भेदभाव का डर सताता है.
उनकी आशंकाओं को दूर करने के लिए ये दलील दी जा सकती है कि शासन की विभिन्न संस्थाओं में मुसलमानों की संख्या इतनी कम है, राष्ट्र को शर्मसार करने वाली स्थिति, कि मुसलमानों के खिलाफ व्यवस्थागत पूर्वाग्रह का संदेह करना सही नहीं होगा. मुसलमान भारत की आबादी के लगभग 15 प्रतिशत हैं. यदि सार्वजनिक संस्थानों में उनकी मौजूदगी 5 प्रतिशत से भी कम है, तो यह असमान विकास को दर्शाता है, जो देश की प्रगति के लिए नकारात्मक साबित सकता है.
इसलिए सहज बुद्धि यही कहती है कि यदि वे पर्याप्त मेहनत करके योग्यता के आधार पर सरकारी सेवाओं के लिए चुने जाते हैं, तो मुख्यधारा में शामिल होने के समुदाय के प्रयासों को प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाएगा. यह न केवल भारत की नियति का हिस्सा बनने के लिए उनमें विश्वास पैदा करेगा बल्कि देश को उनके पक्ष में ‘सकारात्मक भेदभाव’ की चिंता भी नहीं करनी पड़ेगी.
समुदाय या संविधान?
अधिकांश भारतीयों में हमेशा से ही सिविल सेवाओं का बड़ा आकर्षण रहा है. मुस्लिम इसके अपवाद नहीं हैं. यह विशेष रूप से ग्रामीण और मुफ़स्सिल इलाकों में, उन्नतिशील वर्गों के बीच सशक्तिकरण का सबसे सुरक्षित मार्ग है. उनके पास शासन की संस्थागत शक्ति में भागीदारी को अपना लक्ष्य बनाने की भूख और दुस्साहस है. अधिकांश भारतीय, जिनमें अधिकांश मुसलमान भी शामिल हैं, इसी श्रेणी में आते हैं. वैसे, चाहे कितने भी बड़े उद्देश्यों की बात की जाती हो, लेकिन युवा पुरुष और महिलाएं अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए ही इन सेवाओं में शामिल होते हैं. वे न तो फाउस्टस हैं और न ही प्रोमेथियस. देश, जाति और समुदाय उनकी सफलता का अनुषांगेक, नकि इरादतन, लाभार्थी है.
लोकतंत्रीकरण समाज के समुदाय – चाहे वो सामाजिक हों या धार्मिक या भाषाई – सत्ता तंत्र में अपने पर्याप्त प्रतिनिधित्व की अपेक्षा करते हैं. और असल सवाल इसी से जुड़ा है. क्या अधिकारी सिर्फ एक व्यक्ति मात्र है जिसने कि व्यक्तिगत रूप से संविधान की शपथ ली है, या वह अपनी जाति, समुदाय और क्षेत्र का भी प्रतिनिधित्व करता है? सच में, ऊंचे पद पर उसकी उपस्थिति मात्र से ही एक दूरगामी प्रभाव पैदा होगा, जो कई लोगों को उसके अनुकरण के लिए प्रेरित करेगा, तथा उसके मित्रों और परिजनों, और उन सभी में जो कि उसमें अपना प्रतिबिंब देखते हैं, गर्व की भावना भर सकती है. लेकिन आखिरकार, वह सरकार का एक अधिकारी है जो सभी समुदायों का समान रूप से प्रतिनिधित्व करता है. इसलिए, यदि कोई समुदाय चाहता है कि उसके सदस्य सरकार में उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए सिविल सेवाओं में शामिल हों, तो यह अनजाने में विद्वेष और असंतोष के भाव को जन्म दे सकता है, जिससे बचा जाना उचित होगा.
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शैक्षिक आधार की अनुपस्थिति
मुसलमान भले ही भारत की आबादी का लगभग 15 प्रतिशत हों, भारत के स्नातकों में उनकी भागीदारी केवल 3.68 प्रतिशत है. इस प्रकार, अलग-अलग सिविल सेवाओं में उनकी 3 से 5 प्रतिशत उपस्थिति समुदाय की शैक्षिक स्थिति के अनुपात में ही है. साल-दर-साल ये संख्या थोड़ा आगे-पीछे हो सकती है, लेकिन एक तरफ योग्य और प्रतिस्पर्धी उम्मीदवारों और दूसरी ओर चयनित लोगों के बीच के सहज अनुपात पर इसका कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा. इसलिए यदि इस समुदाय के बीच स्कूलों, कॉलेजों तथा तकनीकी और पेशेवर संस्थानों की संख्या बढ़ती है, तो उसका असर कुछ वर्षों में सरकारी सेवाओं सहित जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में परिलक्षित होगा. हालांकि, यदि मुस्लिम समुदाय अपने शैक्षिक आधार का विस्तार किए बिना इस अनुपात को बढ़ाने की हड़बड़ी दिखाता है, तो यह विकास के अव्यवहार्य टॉप-डाउन मॉडल की असंभव कल्पना को साकार करने की व्यर्थ कोशिश होगी.
इसी परिदृश्य में हमें कोचिंग संस्थानों का मूल्यांकन करना चाहिए. हालांकि वे संरचनात्मक परिवर्तन से गुजर रहे समाज में आगे बढ़ने की आकांक्षा को दर्शाते हैं, लेकिन वे व्यवस्थित संस्थागत शिक्षा की उपेक्षा के स्मारक भी हैं, और उनमें तात्कालिक उपायों के सहारे सफलता पाने की होड़ प्रतिबिंबित होती है. इनमें से कई कोचिंग संस्थान मुसलमानों द्वारा चलाए जाते हैं. कुछेक को सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की मदद के नाम पर सरकार से सहायता भी मिलती है.
मुसलमानों के बीच धर्मनिरपेक्षीकरण का अपेक्षाकृत अभाव, धर्मनिरपेक्ष संस्थानों की स्थापना को लेकर उनकी शिथिलता, और एक धर्मनिरपेक्ष विमर्श को आगे बढ़ाने की अक्षमता इस बात से जाहिर होती है कि इनमें से कुछ कोचिंग संस्थान मस्जिदों या हज हाउसों से संचालित हैं, और उनके संचालन के पीछे धार्मिक प्रेरणा और प्रतीकों की भूमिका स्पष्ट है. देखने-सुनने में ये ठीक नहीं लगता, लेकिन यह धर्मनिरपेक्षीकरण में कमी का परिणाम है, और इसे धर्मनिरपेक्ष शासन में घुसपैठ करने की किसी शैतानी साजिश के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. इसके बावजूद, अगर मुस्लिम विमर्श के नियंताओं के पास थोड़ी भी बुद्धिमानी होती, तो वे इस तरह की लापरवाही से बचते.
‘गद्दार’ वाले कथानक को दफन करना होगा
पिछले कुछ वर्षों में, सिविल सेवा परीक्षाओं के परिणामों में सफल उम्मीदवारों के बीच मुसलमानों के प्रतिशत में आंशिक वृद्धि दिखी है. भले ही कोचिंग संस्थान इसका श्रेय लेना चाहें, लेकिन किसी भी चीज़ से अधिक, यह समुदाय की सामान्य स्थितियों में सुधार को दर्शाता है कि जिसके कारण वे शिक्षा के महत्व को बेहतर समझने लगे हैं.
सरकार में बेहतर प्रतिनिधित्व चाहने वाला समुदाय शासन के साथ स्थायी दुराव भाव नहीं रख सकता. यदि अधिक मुसलमान सरकारी सेवा में आना चाहेंगे, तो सरकारी मुसलामानों की संख्या बढ़ेगी. सरकारी अफसर को मुस्लिम समुदाय के गद्दार के रूप में पेश करने के लिए इस विशेषण का उपयोग करने वाली विचारधारा भारतीय शासन और भारतीय मुसलमानों के बीच शत्रुतापूर्ण संबंधों की कल्पना करती है. इस कथानक को दफन करना होगा, और इसके साथ अतीत की कई दूसरी गलतियां भी दफन हो जाएंगी.
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(नजमुल हुदा एक आईपीएस अधिकारी हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)
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Sir aap jaise thinker ko hi musalman apna roll model mane to Kai sari burai apne aap hi door ho jaygi