भारतीय पासमांदा मुस्लिम होने के नाते मेरी कुछ सबसे अच्छी यादें त्योहारों को अन्य धर्म के लोगों के साथ मनाने की हैं. ये पल सिर्फ खाने या रीति-रिवाजों के बारे में नहीं थे; ये साथ रहने और एक-दूसरे से जुड़ने के अनुभव थे. ये उस भारतीय विचार का जीवंत प्रमाण थे, जिसे मैं अपने दिल के करीब रखती हूं—एक ऐसा भारत जहां विविधता को जीया और साझा किया जाता है, सबसे साधारण और खुशहाल तरीकों में.
नवरात्रि के दौरान गरबा हिंदू त्योहारों में से एक था जिसे मैं सच में बड़ी मन से मनाती थी. मेरे आसपास के कई मुस्लिमों में भी वही भावना थी—खुशी, संस्कृति और समुदाय को साझा करने का एक तरीका, लेकिन सभी इसे उसी नज़रिए से नहीं देखते थे. कुछ मुस्लिम, जिनमें इस्लामी विद्वान भी शामिल थे, गरबा को संकीर्ण दृष्टि से देखते थे. उनके लिए यह हिंदू देवताओं से जुड़ा एक अनुष्ठान था, जिसे उन्होंने शिर्क—इस्लाम में वर्जित के रूप में चेतावनी दी. कुछ लोगों ने पुरुष और महिला के मिलन पर भी आपत्ति जताई, इसे अभद्र बताया. मैं इस सोच से कभी सहमत नहीं थी. मेरे लिए यह बस उस बड़े भारतीय जीवन का हिस्सा था जिसे हम सभी जीते थे.
फिर भी आज, ऐसा लगता है कि मुस्लिमों के गरबा में जाने में एक नया और अप्रत्याशित कारण सामने आया है—धर्म की वजह से नहीं, बल्कि राजनीति की वजह से. मुस्लिम नेता अब युवाओं को गरबा से दूर रहने की सलाह दे रहे हैं — “हैरानी से बचने” और “शांति बनाए रखने” के लिए. यह उन हिंदू संगठनों और बीजेपी प्रवक्ताओं जैसे केशव उपाध्याय की टिप्पणियों के बाद आया है, जिन्होंने खुलकर कहा कि मुस्लिमों को “रास गरबा” में हिस्सा नहीं लेना चाहिए. सूरत में, बजरंग दल और वीएचपी के सदस्यों ने एक गरबा आयोजन में घुसकर मुंबई के एक बैंड के तीन मुस्लिम ढोलकवादकों की उपस्थिति पर आपत्ति जताई.
त्योहार बन गए लड़ाई की सीमाएं
सतह पर, यह लगता है कि धार्मिक नेता जिम्मेदारी से काम कर रहे हैं, युवा पीढ़ी को पीछे हटने और संघर्ष रोकने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन सच कहें तो: कुछ लोगों के लिए यह सपना सच होने जैसा है. पिछड़े तत्व कभी नहीं चाहते थे कि मुस्लिम अन्य धर्मों के त्योहारों में शामिल हों या उनका आनंद लें. जो वे धार्मिक रूढ़िवादिता के ज़रिए लागू नहीं कर पाए, अब गरबा के राजनीतिकरण के ज़रिए उसे हासिल कर रहे हैं.
विडंबना साफ है. रूढ़िवादी मौलवियों ने हमेशा मुस्लिमों को गरबा जैसे त्योहारों में शामिल होने से चेतावनी दी, इसे धर्म के अनुसार वर्जित बताया. अब हिंदू दक्षिणपंथी समूह कह रहे हैं कि मुस्लिमों को बाहर रखा जाना चाहिए, उनकी मौजूदगी को ही उकसावा मानते हैं. अलग कारण, वही परिणाम. बीच में फंसे हैं आम युवा मुस्लिम, जो बस मनाना, संगीत का आनंद लेना या नाचना चाहते हैं, बिना अपनी समुदाय की पहचान का बोझ उठाए.
जो हम देख रहे हैं, वह एक संगम है: धार्मिक सिद्धांत और राजनीतिक अवसरवाद, जो अक्सर एक-दूसरे के विरोधी होते हैं, अचानक एक साझा आधार पा रहे हैं. दोनों ही अलगाव पर पलते हैं और तब लाभ उठाते हैं जब समुदाय आपस में नहीं मिलते, जब साझा खुशी के स्थानों की जगह शक और डर ले लेते हैं. मौलवी के लिए यह पवित्रता की अवधारणा को बचाने का मामला है. राजनेता के लिए, डर के जरिए सत्ता मजबूत करना. दोनों के लिए कीमत वही है, भारत की उस सोच को दबाना, जहां पहचानें मिलती-जुलती हैं और त्योहार पुल बनते हैं, लड़ाई की सीमाएं नहीं.
जो लोग अब मुसलमानों के गरबा में शामिल होने का विरोध कर रहे हैं, उनका तर्क है कि यह “हिंदू त्योहार” है और मुसलमानों को इसमें शामिल होने की अनुमति नहीं होनी चाहिए. कुछ का कहना है कि चूंकि कुरान मूर्ति पूजा को मना करता है, इसलिए मुसलमानों का वहां कोई काम नहीं. कुछ तो यह तक कहते हैं कि अगर मुसलमान सच में हिस्सा लेना चाहते हैं, तो पहले उन्हें धर्म बदलना होगा, लेकिन ये तर्क सिर्फ बहाने हैं, जिन्हें सिद्धांतों के रूप में पेश किया जा रहा है. जब मकसद अलगाव हो, तो इसे सही ठहराने के लिए हमेशा कोई न कोई बहाना मिल ही जाएगा.
मैं गिन नहीं सकती कि कितने हिंदू दोस्त मैंने ईद मनाते, बकरीद की दावत में शामिल होते या मुहर्रम की जुलूस में साथ चलते हुए देखे हैं. कल्पना करें कि वही तर्क वहां लागू हों—यह हास्यास्पद होगा. भारत में त्योहार हमेशा खुलेपन पर पनपे हैं — यह एक अनकही समझ है कि खुशियां बांटने से बढ़ती हैं. अब यह तय करना कि कौन शामिल हो सकता है और कौन नहीं, यह धर्म का मामला नहीं; यह समुदाय की अवधारणा को छोटे, बंद डिब्बों में सीमित करने की कोशिश है, जहां डर और अविश्वास हावी हों.
और सच में, कोई समुदाय केवल अपने तक ही त्योहार सीमित करके क्या हासिल करता है? क्या खुशी तब बढ़ती है जब कम लोग इसे साझा करें? क्या संस्कृति तब मजबूत होती है जब उसके चारों तरफ दीवारें खड़ी कर दी जाएं? सच यह है कि किसी भी त्योहार की शुभता कम नहीं हुई जब बाहर के लोग शामिल हुए—बल्कि वह और समृद्ध, ज़्यादा जीवंत और ज़्यादा गूंजता हुआ बन गया.
अंत में, दोनों पक्ष—धार्मिक कट्टरपंथी और राजनीतिक अवसरवादी—एक ही लक्ष्य की तरफ काम कर रहे हैं: समुदायों को अलग रखना. हर बार जब कोई त्योहार छोटा, अधिक खास या डर से भरा बनता है, हम उस भारत का एक हिस्सा खो देते हैं, जो कभी मानता था कि खुशी साझा की जानी चाहिए और अगर हम अपने साझा स्थानों के सिकुड़ने का विरोध नहीं करते, तो एक दिन हमें पता चलेगा कि कोई साझा ज़मीन बची ही नहीं.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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