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Thursday, 21 November, 2024
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समाजवाद को आगे बढ़ाने वाले और विरोधियों को अपना बना लेने में निपुण थे मुलायम सिंह यादव

नेताजी की सियासत जब उरूज पर थी, तब उन्होंने एक नारा दिया था. वह नारा अलग-अलग राज्यों में भी बहुत गूंजता रहा: रोटी कपड़ा सस्ती हो/ दवा-पढ़ाई भी मुफ़्ती हो.

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भारतीय राजनीति में लगभग आधी सदी से अपना अहम योगदान देने वाले भारत के सबसे बड़े सूबे के तीन-तीन बार मुख्यमंत्री रहे, देश के रक्षा मंत्री रहे, ज़मीन से जुड़े रफ़ीक़-उल-मुल्क मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्र-निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाई. संबंधवाद के आधार पर समाजवाद को आगे बढ़ाने व विरोधियों को भी अपना बना लेने की कला में निपुण नेताजी ने 82 वर्ष के जीवन में देश की राजनीति को अपनी तरह से प्रभावित किया. 1967 में वे पहली बार विधायक बने, 10 वर्ष बाद जब 1977 में रामनरेश यादव यूपी के मुख्यमंत्री बने, तो मुलायम सिंह पहली मर्तबा मंत्री बने.

इस वर्ष 10 अक्टूबर को जब वे नहीं रहे, तो उनकी कुछ बातें बरबस याद आईं. संक्षेप में हम उनकी चर्चा करेंगे. बहुत हाल की कुछ उनकी सक्रियता के साथ शुरू करूं, तो जब बहुजनों की प्रतिभाओं का गला काटा जा रहा था, जब विभागवार रोस्टर लादा जा रहा था, बहुजन समाज के मेधावी लोगों को कॉलेज-यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर बनने से रोका जा रहा था, तब उस बुज़ुर्गियत में भी संसद परिसर में एक प्लेकार्ड लेकर 200 प्वाइंट रोस्टर लागू करने की बात मुलायम सिंह कह रहे थे. नेताजी की उस छवि को हम भूल नहीं सकते.

जब सामाजिक न्याय का संघर्ष पूरे देश में चल रहा था, तो मुलायम सिंह ने एक यादगार भाषण दिया था, ‘चाहे सरकार क़ुर्बान हो, चाहे जान क़ुर्बान हो, लेकिन अपने इस संकल्प से हम कभी डिगेंगे नहीं, कभी हटेंगे नहीं, ये बताना चाहते हैं. जब तक ये बराबरी पर खड़े नहीं हो जायेंगे, तब तक आरक्षण की नीति लागू रहेगी, विशेष अवसर की नीति लागू रहेगी. चाहे सामाजिक आधार पर हो, चाहे शैक्षणिक आधार पर हो, इस नीति पर हम कायम हैं, और ये विश्वास आपको देके जाते हैं’.

23 अक्टूबर और 30 अक्टूबर को इतिहास में क्रमश: लालू प्रसाद द्वारा आडवाणी की गिरफ्तारी एवं मुलायम सिंह द्वारा कारसेवकों पर बलप्रयोग कर काबू पाने व देश की धर्मनिरपेक्षता की हिफाज़त के लिए याद किया जाएगा. इस देश में जब सेक्युलरिज्म को तार-तार किया जा रहा था, तब उन्मादी कारसेवकों पर बलप्रयोग करते हुए उन पर काबू पाकर एक बहुत बड़ी आबादी जिनको अकलियत कहते हैं, हालांकि वह अक्सरियत के लोग हैं; उनका जो इस देश की मिट्टी में भरोसा था, जो दक्षिणपंथी फ़ासिस्ट ताकतों की ज़्यादती व गुंडागर्दी के चलते धीरे-धीरे दरक रहा था, उसको फिर से रिस्टोर करने का काम नेताजी ने किया.

धरतीपुत्र की इस ऐतिहासिक तकरीर को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा, ‘हमारी दृष्टि एक ही है जो बार-बार दोहराते हैं. चाहे हमें कोई मौलाना के नाम से देखता हो, चाहे मुल्ला के नाम से जानता हो, चाहे चौधरी के नाम से देखता हो, चाहे मुलायम सिंह के नाम से देखता हो, चाहे समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के नाम से जानता हो; हमें पता नहीं कि उनकी मानसिकता कैसी है, वे अपनी-अपनी मानसिकता के अनुसार अपनी-अपनी कसौटी पर हमको रख सकते हैं, लेकिन हम आपसे कहना चाहते हैं हमारा एक ही मकसद है, हमारा एक ही लक्ष्य है- वो है इंसाफ और इंसानियत. हमारा साफ लक्ष्य है इंसाफ और इंसानियत. इसके अलावा हमारा न कोई दूसरा धर्म है, और न दूसरा कोई हमारा नाम है. ये हम कहना चाहते हैं.’

इतिहास के पन्नों से हम भलीभांति समझते हैं कि पॉलिटिकल सिस्टम में जिस तरह से एक सेक्शन के लोगों का आधिपत्य था, उसे जब चुनौती मिलने लगी, तो यथास्थितिवादी लोग घबरा उठे. 1977 में जब राम नरेश यादव मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) थे, तो उन्होंने पिछड़ों को 15% आरक्षण दिया, बिहार में कर्पूरी जी ने 26% आरक्षण लागू किया, हरियाणा में ताऊ देवी लाल ने जो काम किया; उन कामों से जल भुन कर संघियों ने इन तीनों के खिलाफ षड्यंत्र कर, इन तीनों की सरकार गिरा दी. उत्तर प्रदेश में बनारसी दास को आगे कर के बिहार में रामसुंदर दास को आगे करके और हरियाणा में भजन लाल को आगे करके इस घिनौने काम को अंजाम दिया गया.

बहरहाल, उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए यूपी में 15% का जो आरक्षण था, 1990 के दशक में मंडल कमीशन लागू होने के बाद नेता जी की अगुवाई में उत्तर प्रदेश और लालू प्रसाद के नेतृत्व में बिहार- ये दोनों पहले राज्य थे जहां मंडल कमीशन के रेकमेंडेशन को लागू किया गया था. और, नेता जी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में भी पीजी लेवल पर भी रिज़र्वेशन दिया, जिसको सत्ता में आते ही मौजूदा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (अजय सिंह बिष्ट) ने समाप्त कर दिया.


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नेताजी की सियासत

नेताजी की सियासत जब उरूज पर थी, तब उन्होंने एक नारा दिया था. वह नारा अलग-अलग राज्यों में भी बहुत गूंजता रहा: रोटी कपड़ा सस्ती हो/ दवा-पढ़ाई भी मुफ़्ती हो.

आज उपेक्षित वर्ग इसी के लिए लड़ रहा है. नेताजी की जो लेगेसी है, नेताजी का जो संघर्ष है, वह वंचित समाज को एक ताकत देने का काम कर रहा है.

गौरतलब है कि यूनाइटेड फ्रंट की सरकार में एचडी देवेगौड़ा व आई.के. गुजराल के मंत्रिमंडल में वे जब पहली बार देश के रक्षा मंत्री बने और प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए, तब उन्होंने रक्षा मंत्रालय में एक सराहनीय बदलाव किया. पहले जो शहीद होते थे, उनके पार्थिव शरीर को उनके परिजनों तक पहुंचाने की कोई बाध्यता नहीं थी. लेकिन, नेता जी ने इस प्रक्रिया को बदल दिया और शहीदों का पार्थिव शरीर सुदूर देहात व दुर्गम इलाके में भी सम्मान के साथ उनके परिजनों तक पहुंचाया जाने लगा. इस तरह का काम वही कर सकता है जिसका व्यक्तित्व जमीन से जुड़ा हो. एक साक्षात्कार में वे कहते हैं, ‘हमने तय किया है कि हम धोखा खा लेंगे, पर किसी को धोखा देंगे नहीं’.

अप्रैल 1999 में 13 महीने की वाजपेयी की सरकार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए 1 वोट से गिर गई. एआईएडीएमके की नेता जयललिता ने समर्थन वापस लिया था. और, जयललिता ने एक बार मुलायम सिंह के लिए कहा था, ‘जैसे तारों के बीच चंदा है, वैसे ही नेताओं के बीच मुलायम सिंह जी सुशोभित हैं’. क्षेत्रीय भाषाओं की पैरोकारी के बीच वे उत्तर व दक्षिण के बीच कई बार सेतु का काम करते थे.

नेता तो बहुत हुए हैं, लेकिन सिर्फ मुलायम सिंह को ही धरतीपुत्र क्यों कहा जाता है? क्योंकि उन्होंने उत्तर प्रदेश के एक-एक गांव का दौरा किया. वह कभी हवा-हवाई बात नहीं करते और आज उनकी परंपरा को अखिलेश यादव भी आगे बढ़ा रहे हैं. बाकी राष्ट्रीय नेताओं के साथ अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव और धर्मेंद्र यादव ने फीस वृद्धि के खिलाफ छात्रों के आंदोलन का पुरज़ोर तरीके से समर्थन किया.

मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद व शरद यादव पर न जाने किस-किस तरह के इल्जाम लगाए गए. लेकिन तीनों नेताओं ने जो-जो वे अपने सक्रिय राजनैतिक जीवन काल में जनता की भलाई के लिए कर सकते थे; वो-वो उन्होंने किया. जिसने पूस की रात देखी है, वही हलकू का दर्द समझ सकता है. मुलायम सिंह, लालू प्रसाद व शरद यादव इस मुल्क के हलकुओं के सर्वप्रमुख प्रतिनिधियों में शुमार रहे हैं. उन्होंने अपने सामर्थ्य के मुताबिक भारतीय राजनीति का व्याकरण बदलने की भरसक कोशिश की. डॉ. लोहिया ने ग्वालियर की महारानी विजयाराजे सिंधिया के खिलाफ सुक्खो रानी को चुनाव मैदान में उतार कर ‘महारानी बनाम मेहतरानी’ का डिबेट इस देश में खड़ा किया था. उस विमर्श को तीनों ने जिस तरह आगे बढ़ाया, उसकी कोई और मिसाल नहीं मिलती.

आबरू-ए-सियासत लालू प्रसाद ने डॉ. लोहिया और उपेंद्र नाथ वर्मा की खोज भगवती देवी (1969 में पहली बार संसोपा के टिकट पर विधायक बनीं, 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर दोबारा विधायक बनीं, 1995 में लालू जी ने जनता दल का टिकट दिया, तो तीसरी बार विधायक बनीं) को लोकसभा का टिकट देकर उसी रिवायत को बिहार में मज़बूती से आगे बढ़ाया.

महिला आरक्षण के संदर्भ में कोटे में कोटे की पैरोकारी नेता जी, लालू प्रसाद व शरद यादव इसलिए करते रहे हैं ताकि भगवती देवियों व फूलन देवियों की मौलिक आवाज़ सदन में गूंजती रहे! शरद यादव ने कहा था, ‘मौजूदा स्वरूप में अगर वीमेन रिज़र्वेशन लागू किया गया, तो मैं सुकरात की तरह ज़हर पी लूंगा’. वे कहते हैं, ‘महिला आरक्षण एकदम लागू होना चाहिए 33 फीसदी नहीं, बल्कि 66 फीसदी, पर संशोधनों के साथ’. महिलाएं पीड़ित रही हैं, पर उनमें भी वंचित वर्ग की महिलाएं दोहरे शोषण की शिकार. यह भी उतना ही बड़ा सच है.

इन तीनों नेताओं को अंबानी-अडाणी जैसे उद्योगपतियों के रहमोकरम पर ज़िंदा रहने की बेबसी व लाचारगी से कभी दो-चार नहीं होना पड़ा है. ये अपने उसूल के बूते लोगों के दिलों पर राज करते रहे हैं. जनबल से धनबल की सियासत को परास्त करने की इनकी प्रतिबद्धता रही है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव शुक्ला ने एक बार बतौर पत्रकार अपने कार्यक्रम रुबरू में मुलायम जी से पूछा था, ‘सुना है, आप सपा का आलीशान कार्यालय बनवा रहे हैं?’ तो नेताजी ने प्रत्युत्पन्नमति से जवाब दिया, ‘समाजवाद के माने गंदगी में रहना तो नहीं है. साफ-सुथरा कार्यालय रहेगा तो उसमें गरीब लोग ही तो आके बैठेंगे-रहेंगे-समस्याओं को सुनायेंगे. इसलिए, उस कार्यालय से गरीबों के हितों का काम समाजवादी ढंग से होगा’.

सचमुच, समाजवाद के माने गंदगी और दरिद्रता नहीं है. सारी जद्दोजहद समता, संपन्नता और भाईचारा की खातिर है. समाजवाद हमें उद्वेलित करता है कि यह यात्रा दीन-हीन-विचाराधीन की स्थाई स्थिति को प्राप्त करने की नहीं है, बल्कि उस दशा से निकलना, और आम-अवाम की दुश्वार राहों को हमवार करने की ईमानदार कोशिश करने का नाम समाजवाद है. मैनपुरी व बदायूं के पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव कहते हैं, ‘समाजवाद तो अभावों में पली विचारधारा रही है. डॉ. लोहिया, मधु लिमये, रामसेवक यादव व कर्पूरी ठाकुर के सामने संसाधन का संकट खड़ा होता था और विचारधारा के प्रसार में कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी. नेताजी ने इसीलिए सबकी संपन्नता पर ज़ोर दिया. वे कहते थे कि गरीब की लड़ाई कोई गरीब नहीं लड़ सकता, वो कोई विवेकशील साधनसंपन्न व्यक्ति ही लड़ सकता है’.

नेताजी हमेशा पढ़ाई-लिखाई का आह्वान करते थे, ‘हम अपने सभी नौजवानों से कहना चाहते हैं कि आप पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दें, भाईचारा पर ध्यान दें. एक-दूसरे के प्रति नफरत मत करना’. यह भी अद्भुत ही था कि जिस इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कार्यक्रम करने के लिए प्रशासन द्वारा समाजवादी छात्र सभा को उपयुक्त जगह नहीं दी जा रही थी, नेताजी वहां नौजवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए जाने का फैसला करते हैं. उसी दरम्यान अगस्त 2003 में नेताजी का मुख्यमंत्री बनना तय होता है और शपथ ग्रहण के ठीक बाद उसी दिन वे सीधे इलाहाबाद पहुंचते हैं और नौजवानों का उत्साहवर्धन करते हैं. वे हमेशा इस बात को दुहराते थे कि समाजवादी पार्टी कभी बूढ़ी नहीं होगी.


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सियासत और साहित्य का सिलसिला

पूर्व प्रधानमंत्री श्री चंद्रशेखर द्वारा लोकसभा में दिये गये भाषण का एक अंश बहुत कुछ बयां करता है, ‘किसी के चरित्र को गिरा देना आसान है, किसी के व्यक्तित्व को तोड़ देना आसान है. लेकिन, हममें और आपमें सामर्थ्य नहीं है कि एक दूसरा लालू प्रसाद या दूसरा मुलायम सिंह बना दें’.

सियासी नफे-नुकसान से परे यह अपनाइयत नई पीढ़ी अपने पुरखों से सीख सकती है. इसे कभी तजे बगैर इसी खुलूस के साथ समाजवादी कारवां को आगे बढ़ाने की ज़रूरत है. तमाम विचलनों के बावजूद यह बात मुझे आश्वस्त करती है कि इस पीढ़ी के नेता समाज को सुंदर बनाने का ख़ाब देखने वाले असल साहित्यकारों के साथ अपने सपने जोड़ना नहीं भूलेंगे. नेताजी कविवर गोपाल दास ‘नीरज’, उदय प्रताप सिंह समेत कुछ बेहतरीन शख़्सियत के साथ वक़्त गुज़ारते थे. प्रो. वसीम बरेलवी अभी सपा के एमएलसी हैं. सियासत और साहित्य के बीच यह सिलसिला जारी रहना चाहिए.

नेताजी की इस तारीख़ी तकरीर को कभी भुलाया नहीं सकता, आज भी इसके एक-एक लफ़्ज भावुकता की हद तक रोमांच पैदा करते हैं, ‘समाजवादी पार्टी बख़्शिश की राजनीति नहीं करती है, समाजवादी पार्टी परिवर्तन की राजनीति करती है. समाजवादी पार्टी ऐसा समाज बनाना चाहती है जो किसी की कृपा पर न रहे, अपने पैरों पर खड़ा हो, किसी के सामने उसको कभी हाथ न फैलाना पड़े, न सिर झुकाना पड़े; ये समाजवादी पार्टी चाहती है. समाजवादी पार्टी राजनैतिक दल नहीं है केवल, समाजवादी पार्टी एक आंदोलन है, समाजवादी पार्टी एक आंधी है, एक सैलाब है. हमारी भारत माता के विकास में कोई अवरोध पैदा करेगा, तो उसको जड़-मूल से उखाड़ कर फेंकने का प्रयास करेगी; उसका नाम है समाजवादी पार्टी.’

रफ़ीक़-उल-मुल्क, धरतीपुत्र मुलायम सिंह यादव ने अपने इन लफ़्ज़ों को भरसक जीने की कोशिश की है. रेटरिक (आश्वस्त करने, मनाने की कला) जब अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में होती है, तो रेटर (वक्ता) का एक्सप्रेशन (अभिव्यक्ति) कुछ इसी तरह का प्रभाव ऑडियंस (श्रोता) पर छोड़ता है जैसा कि मुझ पर इस संबोधन का प्रभाव बारहा होता रहा है. और, रेटरिक की आमद जब निकृष्टतम सोच वाले आदमी की तक़रीरों में होती है, तो सुनने वाले के लिए वह कोफ़्त लेकर आता है. मेरा ख़याल है कि मुलायम सिंह अपने किस्म के अलहदा रेटर रहे हैं. वैसे तो नेता के व्यक्तित्व के वर्णन के लिए एक से बढ़ कर एक चुनावी नारे भारत में लोकप्रिय हुए, पर आज भी इस नारे का अपना आकर्षण व असर है:

धरती और गगन में अब तक जिसका जलवा क़ायम है / जिसने कभी न झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम है

कार्यकर्ताओं व नेताओं के बीच जो सहज अन्योन्याश्रय रिश्ता होना चाहिए, उस तादात्म्य संबंध के जीते-जागते उदाहरण नेताजी, लालू प्रसाद व शरद यादव हैं. नेताजी हमेशा अपने कार्यकर्ताओं से पार्टी हित में कोई महत्वपूर्ण सुझाव लिख कर भेजने के लिए कहते हैं. नौजवानों और महिलाओं को समाज में समता और सम्पन्नता की खातिर प्रेरित करते हैं. युवाओं से बारहा कहते हैं कि यह पार्टी तुम्हारी है, तुम लोगों को ही इसे चलाना है. अपने कार्यकर्ताओं को यह सेंस ऑफ बिलॉन्गिंग (संबद्धता-भाव) का अहसास कराना देखते बनता है!

केदारनाथ अग्रवाल की ये पंक्तियां नेताजी पर सटीक बैठती हैं:

मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा,
लोहे जैसा
तपते देखा,
गलते देखा,
ढलते देखा,
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा!

नई नस्ल को इस बात की खुशी व राहत है कि अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव क्रमशः समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय जनता दल को बड़ी गरिमा के साथ उत्तर प्रदेश व बिहार के शोषितों-गरीबों-मजलूमों की सबसे बड़ी ताकत बनाये रखने में कामयाब हैं. आशा है, आचार्य नरेंद्र देव, आचार्य कृपलानी, डॉ. लोहिया, जयप्रकाश नारायण, एसएम जोशी, मधु लिमये, यूसुफ़ मेहर अली, किशन पटनायक, रामसेवक यादव, बीएन मंडल, मधु दंडवते, चौधरी चरण सिंह, राजनारायण, रवि राय, मामा बालेश्वर दयाल, ताऊ देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव प्रसाद, जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, बेनी वर्मा व मुलायम सिंह यादव की वैचारिक प्रखरता व प्रतिबद्धता के साथ समाजवादी धारा निर्बाध आगे बढ़ती रहेगी.

(लेखक जेएनयू के सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज में डॉक्टोरल रिसर्च स्कॉलर हैं और इस वक्त राष्ट्रीय जनता दल की बिहार इकाई की कार्यकारिणी के सदस्य हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)


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