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Tuesday, 17 December, 2024
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मॉस्को प्रारूप 2022: अफगानिस्तान शांति प्रक्रिया में कितने जरूरी हैं क्षेत्रीय प्रयास

भारत, रूस, चीन और मध्य एशियाई देश समेत सभी पक्ष अफगान संकट का एक स्थिर समाधान देखना चाहते हैं ताकि उनके हितों की रक्षा की जा सके. इन सभी देशों के लिए आतंकवाद एक कॉमन प्रॉब्लम है.

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क्षेत्रीय देशों के सहयोग के बिना अफगानिस्तान में शांति स्थापित करना असंभव है. ऐसा इसलिए क्योंकि ये देश अफगानिस्तान के संघर्षों में अहम भूमिका अदा करते हैं. इसी कड़ी में अफगान शांति प्रक्रिया के क्षेत्रीय प्रयास के तौर पर मॉस्को प्रारूप 16 नवंबर 2022 को रूस की राजधानी में आयोजित किया गया.

संवाद का आह्वान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के विशेष प्रतिनिधि ज़मीर नबीयेविच काबुलोव ने किया था. काबुलोव ने अफगान स्थिति से निपटने में अमेरिका की तीखी आलोचना भी की.

रूसी समाचार पत्र नेजविसीमाया गजेटा में प्रकाशित एक लेख में काबुलोव ने इस बात का जिक्र किया है कि अमेरिकी बैंकों के पास लगभग आज भी 9 बिलियन डॉलर का अफगान भंडार है, जिसका कोई औचित्य नहीं है.

मॉस्को प्रारूप परामर्श के एक और दौर के लिए मंच तैयार करते हुए काबुलोव ने कहा, ‘हम क्षेत्रीय शक्तियों के साथ, अफगानिस्तान में स्थिति के राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक स्थिरीकरण में सहायता के समन्वय के प्रयास करेंगे, हमारी यह समझ इस बात पर आधारित है कि एक समावेशी जातीय-राजनीतिक नेतृत्व के निर्माण के माध्यम से सच्चा राष्ट्रीय सामंजस्य प्राप्त किया जा सकता है.’


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पृष्ठभूमि और क्षेत्रिय प्रयास की महत्ता

वर्ष 2017 में यह स्पष्ट हो गया था कि अमेरिकी प्रतिष्ठान के साथ तालिबान की बातचीत हो रही है. इसके बाद दूसरे देशों ने भी अफगानिस्तान के भविष्य पर चर्चा करने के लिए अपने स्तर पर कई प्रयास किए. इसी पृष्ठभूमि में अफगानिस्तान पर मॉस्को प्रारूप परामर्श 2017 में शुरू किया गया था, जिसमें रूस, अफगानिस्तान, भारत, ईरान, चीन और पाकिस्तान के प्रतिनिधि शामिल थे. इसका उद्देश्य अमेरिकी वापसी के बाद काबुल में एक राजनीतिक समझौता, अंतर-अफगान संवाद और एक स्थिर और समावेशी सरकार का निर्माण सुनिश्चित करना था. ग़ौरतलब है कि मॉस्को प्रारूप का विरोध अमरीका ने किया था. इसके उलट अमरीका ने इस्तांबुल क्षेत्रीय शांति वार्ता जिसमें तुर्की और पाकिस्तान शामिल थे का समर्थन किया.

इसके क्या मायने हैं ? अफ़ग़ानिस्तान से सैन्य बेस हटाने के बाद अमरीका दक्षिण और सेंट्रल एशिया में अमरीका रुस और चीन के प्रभाव को रोकने का प्रयास कर रहा हैं ऐसी परिस्थिति में भारत को अपनी सामरिक और राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर अपनी नीति तय करनी होगी.

अमेरिकी वापसी के बाद अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान तथा अन्य शक्तियों के आपसी सामरिक और आर्थिक प्रतिस्पर्धा का अड्डा न बने इसके लिए जरूरी है कि सभी क्षेत्रीय शक्तियां मिलकर एक सामान्य अफगान नीति पर काम करें. दूसरा अहम मसला दक्षिण और मध्य एशिया में अमेरिकी प्रभुत्व को रोकना, सभी देशों के हित में है.

अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व स्थापित नहीं होता तो इसका सबसे बड़ा नुकसान क्षेत्रीय देशों का ही है. बहूध्रुवीय विश्व व्यवस्था में किसी मुल्क की शांति और स्थायित्व की सामूहिक ज़िम्मेदारी क्षेत्रीय शक्तियों तथा संयुक्त राष्ट्र की है.


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क्या है चुनौती

क्षेत्रीय सहयोग की अनेकों चुनौतियां हैं. मॉस्को प्रारूप का प्रयास है कि तालिबान अफगानिस्तान के अंदर चरमपंथी और आतंकवादी संगठनों पर कार्यवाही करे. अब तक अफगानिस्तान में आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय देने का आरोप तालिबान पर लगता रहा है. बदली हुई परिस्थिति में क्या तालिबान इस संगठनों पर नकेल कस पाने में सफल होगा? यह देखना दिलचस्प होगा. यह विदित हो कि तालिबान को काबुल के वास्तविक शासक के रूप में वैश्विक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है.

मॉस्को प्रारूप के सदस्यों में तालिबान शासन के बारे में अलग-अलग चिंताएं हैं. किसी भी सदस्य देश ने तालिबान को मान्यता नहीं दी है. लेकिन लगभग सभी देशों ने सुरक्षा संबंधी मामलों में तालिबान को वार्ता में शामिल किया है. इसके अलावा रूस, चीन, ईरान और पाकिस्तान ने काबुल में राजनयिक उपस्थिति बनाए रखी है. साथ ही ताजिकिस्तान, किर्गिज़स्तान और उज़्बेकिस्तान ने अमेरिकी वापसी के बाद से कई मौकों पर तालिबान के साथ बातचीत की है.

अफगानिस्तान में ईरानी और रूसी दोनों मिशनों पर हाल ही में कई बार हमले हुए. चीन की समस्या मुख्य रूप से ई.टी.आई.एम या पूर्वी तुर्केस्तान इस्लामी आंदोलन से संबंधित उइघुर उग्रवादियों की उपस्थिति है. एक तरफ चीन को उम्मीद है कि अफगानिस्तान में बदली परिस्थिति से उसे आर्थिक लाभ मिलेगा वहीं दूसरी तरफ ‘इस्लामिक आतंकवाद’ भी उसकी एक बड़ी चिंता है. चीन अपने उन कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर चिंतित है जो पाकिस्तान में तैनात हैं और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे की सुरक्षा में सक्रिय हैं. चीन का प्रयास अपनी आर्थिक हित के साथ राजनीतिक हित को साधना भी है .

इसलिए भारत, रूस, चीन और मध्य एशियाई देश समेत सभी पक्ष अफगान संकट का एक स्थिर समाधान देखना चाहते हैं ताकि उनके हितों की रक्षा की जा सके. इन सभी देशों के लिए आतंकवाद एक कॉमन प्रॉब्लम है.


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तालिबान का रूख और भारत का पक्ष

जहां तक तालिबान का प्रश्न है, उसने यह संकेत नहीं दिया है कि वह मॉस्को प्रारूप की सिफारिशों जिसमें ‘समावेशी सरकार’ और ‘राष्ट्रीय सुलह’ पर बल दिया गया है, उस पर अमल करेगा. हालांकि, तालिबान ने क्षेत्रीय शक्तियों के इस रूख की सराहना की.

तालिबान ने कहा कि वह किसी तीसरे देश को अफगानिस्तान में सैन्य सुविधाएं नहीं देगा. तालिबान ने एक बार फिर यह कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन से किसी अन्य देश के ख़िलाफ़ आतंकवादी गतिविधि की इजाज़त नहीं दी जाएगी . कई राजनीतिक टीकाकारों का मानना है कि भू-राजनीतिक सच्चाई के कारण अफगानिस्तान की तटस्थता का पारंपरिक रुख को बहाल करना ही मुनासिब होगा. अब यह देखना होगा कि अमेरिकी वापसी से बदली हुई परिस्थिति में तालिबान का क्या रुख रहता है.

भारत ने भी काबुल में दूतावास के बुनियादी कार्यों को चलाने के लिए अधिकारियों के एक विशेष समूह को काबुल भेजा है. इसके अलावा भारत अफगानिस्तान को बड़ी मात्रा में मानवीय सहायता प्रदान कर रहा है. भारत ने अक्टूबर 2021 में आयोजित मॉस्को प्रारूप वार्ता के तीसरे दौर में भाग लिया था जिसमें एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल ने मॉस्को में तालिबान प्रतिनिधियों के साथ बातचीत भी की थी.

तालिबान के अंदर कुछ उपसमूह है जो पाकिस्तान पर अत्यधिक निर्भरता को उचित नहीं समझता. तालिबान ने न सिर्फ़ यह संकेत दिया है कि वो भारत के ख़िलाफ़ किसी भी आतंकवादी गतिविधि की इजाज़त नहीं देगा बल्कि उसने अफ़ग़ानिस्तान में भारतीय निवेश को भी आमंत्रित किया है .

भारत भी इस दफ़ा यथार्थवादी नीति अपनाते हुए न सिर्फ़ तालिबान 2 के साथ बातचीत कर रहा बल्कि तालिबान विरोधी गुट द्वारा दुशांबे में आयोजित आयोजित हेरात सुरक्षा वार्ता में भी भाग लिया है.

तालिबान के अंदर कुछ उपसमूह है जो पाकिस्तान पर अत्यधिक निर्भरता को उचित नहीं समझता. तालिबान आज अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक ताकत है और भारत को इस राजनीतिक फोर्स के साथ जुड़े रहने की जरूरत है.

भारत अपने इस जुड़ाव को तालिबान के उन उपसमूहों के साथ ज़्यादा प्रगाढ़ कर सकता है जो एक आधुनिक सेक्युलर राजनीतिक व्यवस्था को स्वीकार करने को राज़ी हों. भारत के लिए यह एक उचित सामरिक और वैचारिक निर्णय होगा. सामरिक इसलिए कि तालिबान के उन गुटों के साथ समन्वय स्थापित कर हम अफगानिस्तान के ज़मीन से भारत विरोधी गतिविधि रोक सकेंगे और वैचारिक इसलिए कि ऐसे गुट मध्ययुगीन बर्बरता के खिलाफ हैं. यानी भारत को अपनी अफगान नीति में सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है जिसमें वैचारिक तत्व के साथ-साथ व्यावहारिकता भी शामिल हो.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन: कृष्ण मुरारी)


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