अगर 1951-52 वाले आम चुनाव को छोड़ दें, तो देश में अब तक का सबसे लंबा चुनाव अभी-अभी खत्म हुआ है जब गर्मी का पारा 50 डिग्री को छू चुका है. बहरहाल, यह इस चुनाव की 10 बड़ी उपलब्धियों की गिनती करने का समय है.
- पहली उपलब्धि तो यही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मीडिया को कई इंटरव्यू दिए. कुछ लोगों के अनुसार इनकी संख्या सैकड़े के आंकड़े को पार कर गई. मीडिया के प्रति परहेज और तिरस्कार तक का भाव रखने वाले सत्तातंत्र के लिए इसे बड़ी संख्या ही मानेंगे. लेकिन इसका महत्वपूर्ण पहलू यह है कि इन इंटरव्यूज़ से कोई सुर्खी नहीं बनी. इस मामले में एक अपवाद ‘न्यूज 18’ की रुबिका लियाक़त को दिए गए इंटरव्यू को माना जा सकता है, जिसमें मोदी ने कहा कि अगर वे ‘हिंदू-मुस्लिम’ ही कर रहे होते तो वे सार्वजनिक जीवन के काबिल नहीं होते.
- अगर पहली बड़ी बात यह थी कि मोदी ने मीडिया से कितनी बात की, तो दूसरी बड़ी बात यह थी कि राहुल गांधी ने मीडिया से कितनी कम बात की. उन्होंने मीडिया को कोई इंटरव्यू नहीं दिया. उन्होंने छोटी-छोटी प्रेस कॉन्फ्रेंस की लेकिन मीडिया से सीधी बात करने का काम उन्होंने अपनी बहन प्रियंका गांधी के जिम्मे छोड़ दिया. इस वजह से, एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बात यह हुई कि यह पहला चुनाव अभियान था जिसमें राहुल ने कोई गफलत नहीं की.
- वैसे, इस चुनाव में जो भी सुर्खियां बनीं वे प्रायः प्रधानमंत्री के भाषणों से ही बनीं. इससे पहली बात तो यह उभरती है कि यह एक उम्मीदवार केंद्रित चुनाव ही था. यानी वे जो भी बोले वह खबर बन गई, चाहे वह कच्चातिवू हो या मंगलसूत्र, या घुसपैठिए, या करतारपुर साहिब और 1971 के युद्धबंदियों के साथ इंदिरा गांधी, या हिंदी पट्टी के कामगार, या दक्षिणी राज्यों में सनातन धर्म का अपमान. अगर आप इस चुनाव में चरण-दर-चरण एजेंडा तय करने वाली सुर्खियों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि 18-20 सुर्खियां तो मोदी के भाषणों से ही बनीं. लेकिन मीडिया को दिए उनके तमाम इंटरव्यू से कोई सुर्खी नहीं बनी. हम जानते हैं कि मोदी के मामले में हर चीज पहले से तय होती है, इसलिए कोई बढ़-चढ़कर निष्कर्ष मत निकालिए.
- इस तीसरी बात से यह बात निकलता है कि भाजपा का शोर हावी नहीं हुआ. 2014 में, यूपीए-2 के ‘घोटालों’ और भाजपा के ‘अच्छे दिन’ का शोर हावी था. इसके अलावा, विदेश नीति में, और खासकर चीन के मामले में दमदार तेवर दिखाने के दावे किए गए. तीन बातों पर ज़ोर दिया गया— भारी आर्थिक सुधारों, भ्रष्टाचार उन्मूलन, और राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में छत्तीस इंच का सीना दिखाने पर. 2019 में, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे ने चुनाव अभियान को परिभाषित किया.
इस बार, सबसे आगे बढ़त रखने वाले पक्ष का चुनाव अभियान किसी एक मुद्दे पर केंद्रित नहीं रहा. सारे चतुर नेताओं को पता होता है कि अर्थव्यवस्था, आर्थिक वृद्धि, या रोजगार जैसे मसलों में अपनी पिछली उपलब्धियों के नाम पर वोट मांगना जोखिम भरा होता है. 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को यह सबक मिल चुका था.
अगर 2014 और 2019 के चुनाव क्रमशः ‘अच्छे दिन’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को समर्पित थे, तो सवाल उठ सकता है कि 2024 के चुनाव को किस मुद्दे के लिए याद किया जाएगा? यह मोदी का चुनाव था, ‘मोदी का कोई विकल्प नहीं’ वाला चुनाव. इस चक्कर में भाजपा का चुनावी घोषणापत्र ‘मोदी की गारंटी’ के शोर में दब गया. मोदी या भाजपा ने अगर कभी घोषणापत्र का नाम लिया भी, तो ज़्यादातर बार कांग्रेस के घोषणापत्र का ही नाम लिया.
- बदली हुई भू-राजनीति का मुद्दा भाजपा के इस चुनाव अभियान पर छाया रहा. इसने राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर होने वाले विमर्श को भी दिशा दी. इसे जब-तब उभारा गया.जैसे, मोदी पिछले प्रधानमंत्रियों द्वारा पाकिस्तान को भेजी गई आतंकवादियों से संबंधित फाइल की तुलना अपने ‘घुस के मारेंगे’ वाले तेवर से करते पाए गए. लेकिन इस रॉकेट में इतना ईंधन नहीं था कि वह 2024 के चुनाव में दूसरे चरण तक भी टिक पाता.
इसकी दो वजहें हैं. एक तो यह कि पिछले पांच साल में यह तेवर दिखाने की न कोई नौबत आई और न ऐसा कोई कदम उठाया गया. दूसरी वजह यह कि निज्जर-पन्नून मामले में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा घालमेल हुआ कि वैसी किसी उपलब्धि का दावा करना मुश्किल था. बल्कि हुआ तो यह कि जी-20 को लेकर जो दावे किए गए वे खासकर इसलिए फीके पड़ते दिखे कि एक तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने गणतंत्र दिवस पर भारत आने से मना कर दिया, और दूसरे, उसी दौरान फटाफट ‘क्वाड’ शिखर सम्मेलन कराने की योजना काम नहीं कर पाई.
भू-राजनीति में हेरफेर ने नयी सीमाएं भी पैदा कर दी. पूर्वी लद्दाख में चीन चार साल से जिस तरह ‘धरने’ पर बैठा है और पूरे एलएसी पर जिस तरह अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा है उन सबके बारे में कोई दमदार विदेश नीति की घोषणा इस चुनाव अभियान के दौरान नहीं की गई.
- भाजपा अगर ‘मोदी नहीं तो कौन?’ के सिवा दूसरा कोई मुद्दा नहीं खोज पाई, तो विपक्ष भी एकजुटता के लिए जद्दोजहद में ही उलझा रहा. वह ‘मोदी नहीं तो कौन?’ वाले सवाल से किनारा ही करता रहा. चूंकि निशाने पर मोदी ही थे और उनके भाषणों, इंटरव्यूज़ में इतना मसाला तो था ही कि विपक्ष उनके सैकड़ों ‘मीम’ और छोटे-छोटे वीडियो आदि बनाने में जुटा रहता. वे खूब प्रसारित भी हुए. अगर किसी ‘चुनाव’ में सोशल मीडिया पर दम दिखाने का कोई महत्व होता हो, तो इस बार विपक्ष ने बाजी मार ली. इसके अलावा, पार्टियों ने, और खासकर ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियों ने इस चुनाव को कई स्थानीय/क्षेत्रीय चुनावों में बांटने की भी कोशिश की. क्षेत्रीय दलों के लिए तो यह आसान था, लेकिन बड़े और ज्यादा सीटों वाले राज्यों में इस चाल के लिए संभावनाएं सीमित थीं.
- एक मुद्दे को लेकर विपक्ष ने बेशक तेजी दिखाई और पहले हमला बोल दिया. भाजपा के ‘400 पार’ वाले नारे की तुरंत इस खतरे के रूप में व्याख्या की गई कि इसके पीछे संविधान को बदलने और मतदाताओं के कई वर्गों, खासकर विशाल आबादी को आरक्षण से वंचित करने का इरादा है. इसने भाजपा को कदम पीछे खींचने पर मजबूर किया, और उसने यह दावा दोहराना बंद कर दिया. इसका एक असर यह भी हुआ कि संविधान की पवित्रता 1977 के बाद पहली बार एक मुद्दा बना.
- इसके बावजूद, विपक्ष संस्थाओं पर कब्जे को, और व्यक्तिगत स्वाधीनताओं को मजबूत मुद्दा नहीं बना पाया. इमरजेंसी की बात करने में उसके सामने तीन चुनौतियां थीं. एक तो यह कि इसे कांग्रेस ने लागू किया था. दूसरे, अधिकतर मतदाता 1977 के बाद जन्मे हैं और उन्हें इमरजेंसी की कोई याद नहीं है. और तीसरे, इमरजेंसी का कहर करोड़ों लोगों को भुगतना पड़ा था. आज कुछ चुनिंदा कुलीनों को ही स्वाधीनताओं से वंचित होना पड़ा है. और एजेंसियों का इस्तेमाल भी ऐसे तबकों, विपक्षी नेताओं से लेकर सिविल सोसाइटी और मीडिया के खिलाफ ही किया गया है. इसके कारण कोई व्यापक आक्रोश नहीं पैदा हुआ है.
- हालांकि चुनाव अभियान लगभग पूरी तरह मोदी के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा, लेकिन भाजपा ने अमित शाह को भी एक प्रमुख अभियानकर्ता के रूप में उभरते देखा. उन्होंने देश भर में 188 रैलियों को संबोधित किया, वे पार्टी के समर्थकों के लिए अच्छे आकर्षण साबित हुए और उन्होंने खूब सुर्खियां भी बनाई. हमने 2017 में ही अपने एक लेख में लिखा था कि वे भाजपा की एक प्रभावशाली हस्ती के रूप में उभर रहे हैं. यह तो है ही, इस चुनाव में वे रणनीति कक्ष से आगे बढ़े हैं. हमने जानबूझकर लिखा है कि वे उस कक्ष से ‘आगे बढ़े हैं’, यह नहीं कि वे उससे ‘बाहर निकल आए हैं’. इसका अर्थ है कि उन्होंने वह कक्ष छोड़ा नहीं है, जहां वे भाजपा की बेहद महत्वपूर्ण और ताकतवर हस्ती हैं. 2013 के बाद से वे भाजपा के दूसरे सबसे शक्तिशाली नेता बने हुए हैं. अब वे दूसरे सबसे उजागर नेता भी हैं.
- और अंत में, एक बड़बोलापन. क्या इस चुनाव को 44 दिनों तक खींचना चाहिए था? इस ग्राफिक और इस आंकड़े पर गौर कीजिए. 1996 का चुनाव 11 दिनों में संपन्न हुआ. अगले, 1998 के चुनाव ने 20 दिन लिए, 1999 का चुनाव 28 दिनों तक चला, 2004 में थोड़ी कमी आई और चुनाव 21 दिनों में ही करवा लिये गए लेकिन 2009 में फिर 28 दिन लग गए, 2014 का चुनाव 36 दिनों में और 2019 का 39 दिनों में करवाया गया. और इस बार 44 दिन लिये गए.
- यह एक दुखद विडंबना है. एक तरफ संपर्क और संचार की सुविधाओं में नाटकीय विकास हुआ है और हम दावे कर रहे हैं कि हमारी ईवीएम मशीन दुनिया में सबसे कारगर है, और बूथ कैप्चरिंग खत्म हो चुकी है. इस सबके बावजूद हमारी चुनाव प्रक्रिया की अवधि लंबी होती जा रही है.
मैं जानता हूं कि कहने वाले कहेंगे कि चुनाव आयोग ने ऐसा कार्यक्रम इसलिए बनाया कि मोदी अपनी पार्टी के एकमात्र संदेशवाहक के रूप में देश के ज्यादा से ज्यादा हिस्सों तक पहुंच सकें. हमारे आंकड़े बताते हैं कि चुनाव प्रक्रिया की अवधि में 1996 के बाद से लगातार इजाफा हो रहा है. लेकिन मुझे यह समझ में नहीं आता कि चुनाव आयोग ऐसा क्यों कर रहा है, सिवाय इसके कि वह आइपीएल की 61 दिनों की अवधि को न छूना न चाहता हो. हम 2029 में देखेंगे.
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