नरेन्द्र मोदी ओबीसी में सबसे पिछड़े वर्ग को आरक्षण का लाभ देना चाहते हैं| इस विषय पर गौर करने के लिए आयोग 20 जून तक रिपोर्ट सौंपेगा|
यहाँ एक सवाल है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक प्रतिद्वंदियों और समर्थकों को एक समान चिंता के साथ नाखून चबाने पे मजबूर कर रहा है कि: “2019 लोकसभा चुनाव से पहले उनका अगला बड़ा दांव क्या होगा?”
राजनीतिक मंडलियों में बहुत सारी अटकलें हैं,यहाँ तक कि अलग-अलग विचारधाराओं के बेताब विपक्षी नेताओं ने मोदी की अब तक बरकरार और अखंड व्यक्तिगत लोकप्रियता का मुकाबला करने के लिए महागठबंधन के साथ एक धागे से जुड़कर एक और प्रयोग किया है | महागठबंधन, मूल रूप से, राम मनोहर लोहिया द्वारा समर्थित कांग्रेस विरोधी राजनीतिक रणनीति थी।
इन मंडलियों में से किसी ने भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक की उम्मीद नहीं की थी और न ही किसी ने नोटबंदी और तीन तलाक पर प्रतिबन्ध पर बल दिए जाने का अनुमान लगाया था| इसलिए खयाली अनुमान यह लगाया जा रहा है कि 2019 से पहले मोदी द्वारा मतदाताओं की थकान को झकझोर देना एक संभावित गेम-चेंजर कदम होगा | इसकी संभावनाओं का दायरा अयोध्या में राम मंदिर के भगवा पार्टी के पुराने वादे को पूरा करने से लेकर पड़ोसी के साथ एक सीमित सैन्य युद्ध तक है | हम जितना चुनावों के करीब जाते हैं, ये बेबुनियाद कल्पनाएँ बढ़ने लगती हैं|
हाल ही में,एक उत्सुक आगंतुक प्रधानमंत्री से पूछने के लिये अपने आप को रोक नहीं सका कि: “अगली बड़ी घोषणा क्या है जिसके लिए हमें इंतजार करना चाहिए?”
वहां उपस्थित कुछ भाजपा कार्यकर्ता निडर आगंतुकों पर मुस्कुराए। एक भाजपा नेता ने प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री के वक्तव्य का उदाहरण दिया कि “नोटबंदी का आपको कब पता चला? अगर आपको पहले पता चल जाए, तो फिर मोदी क्या?” यह कुछ महीने पहले समाप्त हो गया था|
पुनः पंक्तिबद्ध होना (बदलाव की शरुआत)
वास्तव में मोदी ने 2019 के लिए संभावित गेम परिवर्तक पर काम करना चुनाव से दो साल पहले ही शुरू कर दिया था। अगस्त 2017 में, उनकी सरकार ने “आरक्षण लाभों के अधिक न्यायसंगत वितरण” के लिए अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के भीतर उप-वर्गीकरण करने के लिए एक आयोग स्थापित करने का निर्णय लिया। यह निर्णय बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी पार्टियों के महागठबंधन द्वारा भगवा पार्टी को हराने के लगभग 20 महीने बाद लिया गया था। इसी तरह का महागबंठधन ढाँचा कर्नाटक में कांग्रेस और जेडी (एस) ने तैयार किया था और अब इसे राष्ट्रीय स्तर पर भी दोहराया जा सकता है।
दो सेवा विस्तार प्राप्त करने के बाद, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति जी. रोहिणी की अध्यक्षता में आयोग को 20 जून तक रिपोर्ट जमा करनी होगी। बदलाव के लिए, प्रधानमंत्री अपनी योजनाओं को लेकर दूसरे के विचारो को आमंत्रित करते हैं। पिछले हफ्ते बागपत में उन्होंने घोषित किया, “सरकार दी गई सीमा के भीतर ओबीसी के बीच पिछड़े वर्ग को आरक्षण से अधिक लाभ पहुँचाना चाहती है।”
उत्तर प्रदेश में लोकसभा में और बाद में विधानसभा चुनाव में गैर-यादव ओबीसी को पार्टी द्वारा पूर्ण रूप से रिझाना उसकी शानदार सफलता का कारण रहा है । यूपी की आबादी में यादव 9 प्रतिशत के हिस्सेदार हैं जबकि सभी ओबीसी एक साथ मिलकर 45 प्रतिशत हैं।
लेकिन यूपी में हाल ही में लोकसभा के उपचुनावों से संकेत मिलता है कि उच्च जातियों और गैर-प्रमुख ओबीसी का गठबंधन जिसका भाजपा ने सफलता पूर्वक निर्माण किया है, शायद नष्ट हो रहा है। और यहीं पर मोदी का ओबीसी उप-वर्गीकरण का पहला दांव खेलने की उम्मीद है। इसका उद्देश्य ओबीसी आरक्षण श्रेणी को दो समूहों में विभाजित करना है: पहली उप-श्रेणी के रूप में संख्यात्मक रूप से मजबूत लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर समूह;और दूसरा प्रगतिशील, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली समूह। केंद्र के इस कदम से विभिन्न राज्यों में ओबीसी के बीच इस तरह का बदलाव शुरू होने की उम्मीद है।
ओबीसी में तथा कथित नवोन्नत वर्ग में पहुंचकर,मोदी सरकार आरक्षण लाभों को विविधता दे सकती है, साथ ही समुदाय में महत्वपूर्ण राजनीतिक मार्ग भी बना सकती है।
जोखिम भरी राजनीति या मास्टरस्ट्रोक
मोदी की पहली चाल में भी अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में, जहाँ इस वर्ष के अंत में चुनाव होने वाले हैं, हो सकता है यहाँ भी दांव उल्टा पड़ जाए। माना जाता है कि ओबीसी श्रेणी में आरक्षण प्राप्त करने वाले जाटों को कथित रूप से लाभों के प्रमुख व बड़े हिस्से पर अधिकार प्राप्त हुआ है और यही कारण है कि अनुसूचित जनजाति वर्ग में शामिल होने के लिए एक और प्रमुख ओबीसी जाति गुज्जर द्वारा आंदोलन सक्रिय किया गया। इस मुद्दे पर गुज्जरों को अक्सर दीर्घकालीन और हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। मीणा समुदाय, एसटी श्रेणी के तहत मिलने वाले आरक्षण का प्रमुख लाभार्थी है। अक्सर इस मुद्दे को लेकर गुज्जरों के साथ लंबे समय तक हिंसक प्रदर्शन हुए हैं। अधिकांश जाट, गुज्जर और मीणा समुदाय वर्ग के लोग बीजेपी के प्रति वफादार हैं। मोदी की चाल मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को एक मुश्किल परिस्थिति में डाल सकती है।
इस तरह की विकट परिस्थिति अब अन्य राज्यों में भी दिखाई देगी। आंध्र प्रदेश में कापू, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात के पाटीदार और हरियाणा में जाट जैसे कई प्रभावशाली समुदाय आरक्षण की मांग कर रहे हैं। ये समुदाय बीजेपी के निर्वाचन क्षेत्रों को उसके पक्षधर के रूप में प्रभावित नहीं करेंगे। उपरोक्त समुदायों के खिलाफ गैर-प्रभावशाली और संख्यात्मक रूप से मजबूत जाति समूह को उलझाना एक प्रशंसनीय चुनावी रणनीति की तरह लग सकता है। पार्टी ने कई राज्यों में मुख्यमंत्रियों के पद हेतु दिये गए विकल्पों में अपनी रणनीति का स्पष्ट संकेत दिया है जैसे महाराष्ट्र में गैर मराठा, हरियाणा में एक गैर-जाट, झारखंड में एक गैर-आदिवासी, और गुजरात में एक गैर-पटेल।
जैसा कि मोदी ओबीसी समुदाय में उत्साह पैदा करने के लिये तैयार हैं। वह निश्चित रूप से अननुमेय और अप्रत्याशित परिणामों को ध्यान में रखेंगे। चुनाव के पहले और वर्ष के अंत में यह एक मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है या फिर ज़ोखिम भरी राजनीति भी हो सकती है। लेकिन अगर जोख़िमों ने उन्हें रोक दिया, तो “फिर मोदी क्या।”
Read in English : Modi’s gambit to split OBCs can be risky for his govt in 2019. But do risks deter him?