ऐसा पहली बार हुआ. मोदी ने जो कह दिया उसके बाद उस पर सरकारी स्पष्टीकरण दिया जाए, यह आपने इससे पहले कब सुना? अब तक तो हमेशा इसका उलटा ही होता रहा. उनका कोई मंत्री या भाजपा का कोई नेता अपने बयान से विवाद खड़ा कर देता और प्रधानमंत्री उसे शांत करने के लिए आगे आते रहे. मसलन, मोदी को राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) पर गृह मंत्री अमित शाह के बयान का खंडन करना पड़ा था. जिस मोदी को हम जानते थे, वे ‘शरारती’ व्याख्याकारों को जिस हाजिरजवाबी और तंज़ के साथ चारों खाने चित कर दिया करते थे वह अपने आपमें एक मिसाल होती थी.
आपको याद ही होगा कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह पर किस तरह कटाक्ष किया था कि वे बरसाती जामा पहनकर स्नान करना चाहते हैं.
लद्दाख में किसी घुसपैठ से इनकार करने वाले मोदी के बयान पर सरकारी स्पष्टीकरण के बाद कई लोग मनमोहन सिंह के ‘शर्म अल-शेख’ वाले शर्मनाक प्रसंग के बारे में बातें करने लगे. 2009 में मिस्र के इस रिज़ॉर्ट से भारत-पाकिस्तान की ओर से जारी संयुक्त बयान पर जो हंगामा बरपा था वह तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को महीनों तक परेशान करता रहा था. इस मामले में उनकी कांग्रेस पार्टी ने उनका बचाव करने से मना कर दिया था. मगर आज मोदी की भाजपा उनके बचाव में चट्टान की तरह खड़ी है और उनके सभी आलोचकों को देशद्रोही और राष्ट्र विरोधी बता रही है.
तो, मोदी के लिए बदला क्या? शनिवार की सुबह जब वे बिहार के प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार कार्यक्रम का उदघाटन कर रहे थे तब उनके लिए मौका था कि अपने बयान की ‘शरारतभरी’ व्याख्या का जवाब देकर उसे शांत कर देते. उन्होंने लद्दाख में बिहार रेजीमेंट की बहादुरी की तारीफ की लेकिन इससे पहले उन्होंने ‘कोई घुसपैठ नहीं हुई’ वाले अपने बयान का स्पष्टीकरण लिखने का काम अपने प्रवक्ताओं के जिम्मे डाल दिया.
यह और बात है कि उनके कार्यालय ‘पीएमओ’ ने जो बयान जारी किया उससे मोदी का काम आसान नहीं हुआ. उसने पैंगोंग झील और हॉट स्प्रिंग क्षेत्र में चीनी घुसपैठ की यह कहकर पुष्टि कर दी कि प्रधानमंत्री का बयान गलवान घाटी क्षेत्र के बारे में था, जबकि वहां घुसपैठियों को खदेड़ने के क्रम में 20 भारतीय सैनिक शहीद हो चुके थे.
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क्या चीन ने मोदी को धोखे में रखा?
क्या मोदी का जादू फीका पड़ता जा रहा है? या क्या अपने ‘नंबर वन’ दोस्त शी जिंपिंग की बेवफाई ने उन्हें हताश कर दिया है? दोनों बातें नहीं हुई हैं. उनके आगे श्रोताओं को जमा कर दीजिए— सोनिया गांधी और ममता बनर्जी सरीखे सवाल करने वाले नहीं— और माइक पकड़ा दीजिए, मोदी फिर से धाराप्रवाह शुरू हो जाएंगे. जहां तक शी के साथ उनके समीकरण का सवाल है, वे दोनों 18 बार मिल चुके हैं, इसके बावजूद डोकलम की याद इतनी ताज़ा है कि वे अपने इस चीनी मित्र के प्रति अब शायद ही आकर्षण महसूस करते होंगे.
याद रहे कि मई 2019 में दोबारा जनादेश हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री ने संकेत दे दिया था कि वे चीनी खतरे को अच्छी तरह समझते हैं. उन्होंने 2017 की ‘डोकलम टीम’ को तरक्की दी . इसमें शामिल तत्कालीन विदेश सचिव और चीनी मामलों के विशेषज्ञ एस. जयशंकर को विदेश मंत्री बना दिया; राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल (जिन्होंने डोकलम मसले को सुलझाने में प्रमुख भूमिका निभाई थी) को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दे दिया; तत्कालीन थलसेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत को भारत का पहला चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ बना दिया. ये सब चीन पर गहरी नज़र रख रहे थे.
2014 में डोभाल ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स समिट’ में कहा था कि भारत को दो मोर्चों पर युद्ध के लिए तैयार रहना होगा, दुश्मनों को डराने की ताकत बनानी होगी, और यह भी कि भारत के दुश्मनों को समझ जाना चाहिए कि युद्ध उनके लिए कोई विकल्प नहीं है. जून 2017 में सेनाध्यक्ष रावत कह रहे थे कि भारत को ढाई मोर्चों (पाकिस्तान, चीन और आंतरिक संघर्षों) पर लड़ने की तैयारी करनी होगी.
तो क्या कथित जयशंकर-डोभाल-रावत त्रिमूर्ति विफल साबित हुई? क्या वह चीन की विस्तारवादी साज़िशों और सैन्य दुस्साहस की तैयारियों को भांपने में नाकाम रही. इन सवालों का हां या ना में जवाब देने लायक पर्याप्त सूचनाएं सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं.
विदेश नीति के कई विशेषज्ञ शी-मोदी बैठकों की संख्या पर आज जी खोलकर हंस रहे हैं. मोदी के आलोचकों का कहना है कि इन 18 बैठकों का मकसद सिर्फ यह जताना था कि मोदी भी दुनिया के आला नेताओं की जमात में शामिल हैं, इन बैठकों का मकसद कोई कूटनीतिक लक्ष्य हासिल करने से ज्यादा देश की जनता को प्रभावित करना था. लेकिन ऐसे आलोचक शायद इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि मोदी चीन को उलझाए रखने की सोची-समझी कोशिश भी कर रहे थे. अजदहे ने फिर भी अपने पंजे बढ़ाए, तो इसमें मोदी की गलती नहीं है. उन पर यह दोष भले लगाया जा सकता है कि वे अजदहे का मूल स्वभाव समझने में विफल रहे, लेकिन उससे दोस्ती की कोशिश करने के लिए उनकी आलोचना नहीं की जा सकती, खासकर तब जबकि वे पाकिस्तान को भी साधने में जुटे हुए थे.
रणनीतिक मामलों में किसी विशेषज्ञता का दावा कर पाने की स्थिति में न होने के कारण मोदी चीन जैसे पड़ोसी को उलझाए रखने के सिवा क्या कर सकते थे, जो अपनी सैन्य और आर्थिक ताकत के बूते अपना भौगोलिक विस्तार करने पर आमादा है और जिसकी कम्युनिस्ट सरकार को दुनियाभर में कोरोना महामारी के स्रोत के रूप में देखा जाता है और इसलिए वह विश्व बिरादरी में अलगथलग किए जाने की शर्म से अपनी जनता का ध्यान हटाने की फिराक में जुटी हो.
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लद्दाख में मोदी की किरकिरी
मोदी सरकार ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर वास्तविक स्थिति का खुलासा न करके अपनी किरकिरी करवा ली है. राहुल गांधी ने एलएसी पर वास्तविक स्थिति को लेकर मई में ही जो सवाल उठाया था उसे जवाब देने लायक भी नहीं माना मोदी सरकार ने. वास्तव में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक टीवी इंटरव्यू में यह कबूल करके विपक्ष की चिंताओं की ही जाने-अनजाने पुष्टि कर दी थी कि चीनी सेना पीएलए ने एलएसी पर विवाद वाले क्षेत्र में भारी जमावड़ा कर दिया है. लेकिन उन्होंने राहुल के सवाल का जवाब देने से इनकार कर दिया था. उनका कहना था कि इसका जवाब वे संसद में देंगे. विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को चुनौती देता रहा मगर वह मुंह फेरे रही.
अड़ियल पड़ोसी की आक्रामक साज़िशों का खुलासा करने से मोदी की छवि को कहीं चोट नहीं पहुंचती. उधर, 1962 में मिली शिकस्त के ऐतिहासिक लांछन के बोझ तले दबे राहुल एक सीमा से आगे कोई नैतिक वर्चस्व नहीं जता पाते और हमलावर चीनियों को काबू में न कर पाने के लिए मोदी सरकार पर ज्यादा आक्रामक न हो पाते. लेकिन शासक दल की छाती-ठोक ब्रिगेड लगता है हावी हो गई और सरकार ने खंडन का सुर अलापना शुरू कर दिया, जब तक कि 20 सैनिकों के मारे जाने के बाद सवालों से बचना नामुमकिन नहीं हो गया. और तो और, सुरक्षा तथा राजनीतिक महकमे ने इस घटना पर भी चुप्पी साधे रखी कि चीनियों ने 10 भारतीय सैनिकों को अपने कब्जे में कर रखा था. उन सैनिकों को जब चीनियों ने वापस किया, तभी जाकर सेना ने बयान जारी किया कि उस टकराव के बाद से हमारा कोई सैनिक लापता नहीं है.
यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि चीन ने एलएसी— या कथित एलएसी— का अतिक्रमण किया है. अब इस बात को लेकर बहस से केवल मोदी की छवि को ही चोट पहुंचेगी कि उन्होंने गलवान घाटी या पैंगोंग झील इलाके में चीनियों की घुसपैठ की बात नहीं बताई. चूंकि चीन के साथ यह सैन्य या कूटनीतिक झगड़ा अब लंबा चलने वाला है, मोदी के लिए बेहतर यही होता कि वे जमीनी हकीकत से जनता को अवगत करा देते. अभी भी उन्हें काफी जनसमर्थन और ताकत हासिल है और वे एलएसी के मोर्चे पर उठाए गए सरकारी कदमों— या असमर्थताओं— के समर्थन में जनमत को मोड़ सकते हैं. आज अगर कोई सर्वे किया जाए तो चीनियों से निबटने की क्षमता रखने वाले भरोसेमंद नेता के रूप में मोदी को किसी भी दूसरे नेता से ज्यादा वोट मिलेंगे.
लेकिन भारत की भौगोलिक अखंडता के खतरों के बारे में घालमेल की कोशिश इस भरोसे को हिला देगी और यही संकेत देगी कि एक कमजोर नेता अपनी नाकामियों को छिपाने की कोशिश कर रहा है.
नोटबंदी ने 2016 में जब जनजीवन में भारी उथलपुथल मचा दी थी तब मोदी ने लोगों से यही कहा था कि वे “अपने सपनों का भारत” बनाने के लिए बस 50 दिन कष्ट सह लें, और अगर वे विफल रहे तो उन्हें मनमर्जी सज़ा दें. लोगों ने खुशी-खुशी कष्ट सहे और उन्हें 50 दिन दिए हालांकि उनके सपनों का भारत कहीं क्षितिज पर भी नहीं नज़र आया. लेकिन मोदी अगर लोगों को सच बताएं तो वे एलएसी पर चीनियों को सबक सिखाने के लिए 500 तो क्या ज्यादा दिन भी दे सकते हैं.
(लेख निजी विचार हैं)
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