महत्वाकांक्षी सेंट्रल विस्टा परियोजना के ज़रिए लुटियंस की नई दिल्ली के दिल को नया रूप देने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विवादास्पद ड्रीम प्रोजेक्ट पर आपका रुख चाहे जो भी हो, आप सहमत होंगे कि इस प्रक्रिया में कुछ चीज़ें हमेशा के लिए खो जाएंगी.
वास्तुकार बिमल पटेल की 13,450 करोड़ रुपये की प्रभावशाली मेकओवर परियोजना की मेरी आलोचना इस बात को लेकर है कि इसमें इस नुकसान की बात स्वीकार करने, चीज़ों को बचाने और ठीक करने का कोई प्रावधान नहीं है. इसमें ‘ऐतिहासिकता की स्थापना’ वाला तत्व नदारद है.
तमाम परिवर्तनों, खासकर 86 एकड़ की सेंट्रल विस्टा पुनर्विकास योजना जैसे अवरोधकारी और रूपांतरकारी बदलावों के साथ गंभीर चिंताएं जुड़ी होती हैं. अतीत को खोने से जुड़ी चिंताओं की सुध ली जानी चाहिए. इससे इस विवादास्पद परियोजना की जनस्वीकार्यता बढ़ाने में बहुत मदद मिलेगी. अभी, नई सेंट्रल विस्टा परियोजना में ऐतिहासिक दृष्टि का नितांत अभाव है.
सुप्रीम कोर्ट सेंट्रल विस्टा परियोजना का विरोध करने वाली दस याचिकाओं पर सुनवाई करेगा, लेकिन वास्तव में किसी को भी इसे रद्द किए जाने का भरोसा नहीं है. इंडिया गेट पर भूमि पूजन का कार्य संपन्न करने के बाद, मोदी को अब जनता के जुड़ाव और जन इतिहास के संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ऐतिहासिक इमारतों में मौजूद जन इतिहास को नई चमचमाती इमारतों में स्थानांतरित करना संभव नहीं है.
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सेंट्रल विस्टा में सार्वजनिक भागीदारी बढ़े
अमेरिका या ब्रिटेन जैसे देशों में लगभग हर पुनर्निर्माण और पुनरुद्धार परियोजना में लोगों से निजी स्मृतिचिन्हों और मौखिक आख्यानों का योगदान करने की अपील की जाती है – यानि एक तरह की सार्वजनिक इतिहास पहल, जो उस स्थान से जुड़ी जन स्मृतियों को संजोने की एक प्रक्रिया है.
मोदी की नई सेंट्रल विस्टा परियोजना आम लोगों की आलोचनाओं को एक हद तक शांत कर सकती है बशर्ते यह ध्वस्त की जाने वाली इमारतों से जुड़ी यादों को संजोने की पहल के ज़रिए आम लोगों को जोड़ सके, और उन्हें आश्वस्त कर सके कि उनकी स्मृतियों को सार्वजनिक अभिलेखागारों और विश्वविद्यालयों में संरक्षित किया जाएगा, तथा संग्रहालयों में प्रदर्शित किया जाएगा. इससे इस भीमकाय परियोजना में सार्वजनिक भागीदारी का एक तत्व जुड़ सकता है. इससे इस बात को मान्यता मिल सकेगी कि बुलडोजरों द्वारा रौंदे जाने से पहले इन इमारतों का एक जीवंत अतीत रहा है.
इस तरह की पहलकदमियां आमतौर पर नई परियोजनाओं में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ाती हैं और समय बीतने के साथ, नुकसान या खोने के अहसास को कम करती हैं. कंट्रोल-अल्ट-डिलीट साम्राज्यों का कायदा है; यह लोकतंत्र के लिए उपयुक्त नहीं है.
राष्ट्रीय संग्रहालय का इतिहास
कई मंत्रालयों के अलावा, प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संग्रहालय को भी ढहाकर साउथ और नॉर्थ ब्लॉक में स्थानांतरित किया जाएगा. उसकी जगह पर एक कार्यालय भवन बनेगा.
राष्ट्रीय संग्रहालय की इमारत (वास्तुकार गणेश भीकाजी देवलालिकर द्वारा डिजाइन किया गया था, जो केंद्रीय लोक निर्माण विभाग के पहले प्रमुख भी थे) का एक समृद्ध इतिहास रहा है. कला इतिहासकार कविता सिंह के अनुसार आज़ादी के बाद इसकी स्थापना ‘युवा राष्ट्र की प्राचीन संस्कृति प्रदर्शित करने’ के लिए की गई थी और इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि भारत ‘शाश्वत’ और ‘महान’ है.
आज़ादी के तुरंत बाद, लंदन में रॉयल अकादमी ने ‘द आर्ट्स ऑफ इंडिया एंड पाकिस्तान’ नाम से एक प्रदर्शनी आयोजित की थी. जब उन्होंने कलाकृतियों को वापस भारत भेजा, तो राष्ट्रपति भवन ने एक अस्थायी प्रदर्शनी के लिए उनका इस्तेमाल किया. प्रदर्शनी को बड़ी संख्या में लोगों ने देखा, और उसी से दिल्ली में एक बड़े संग्रहालय की स्थापना का विचार पैदा हुआ. फिर जवाहरलाल नेहरू के मंत्रियों में से एक ने पूरे भारत में इन कलाकृतियों के स्वामियों को लिखकर आग्रह किया था कि उन वस्तुओं को दिल्ली में ही रहने दिया जाए.
आज राष्ट्रीय संग्रहालय के संग्रह का एक बड़ा हिस्सा तालों में बंद है. साउथ ब्लॉक और नॉर्थ ब्लॉक में दो बड़ी इमारतों में शिफ्ट किए जाने से उनमें से कई कलाकृतियों को स्टोर से बाहर निकालकर जनता के लिए प्रदर्शित करने का अवसर मिल सकेगा.
लेकिन जब राष्ट्रीय संग्रहालय को ध्वस्त किया जाने वाला है, तो हमें न केवल कलाकृतियों, बल्कि उसकी जनस्मृति पर भी ध्यान देना चाहिए. देवलालिकर के काम का ऐतिहासिक विवरण (जिन्होंने सुप्रीम कोर्ट की इमारत भी डिज़ाइन की थी), नेहरू द्वारा इसकी आधारशिला रखा जाना और एस. राधाकृष्णन का इसका उद्घाटन करना, आमंत्रित अतिथियों का परिचय, वहां दिए गए भाषण, शुरुआती आगंतुकों की जानकारी, उनकी तस्वीरें और पारिवारिक यादें; इमारत में बदलावों का ब्यौरा, तथा वहां संचालित संग्रहालय विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि और कला इतिहास, कला समीक्षा और कला संरक्षण में डिप्लोमा पाठ्यक्रमों (कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने भी एक पाठ्यक्रम में भाग लिया था) के विवरण. देवलालिकर के परिवार से भी मौखिक इतिहास और स्मृतिचिन्हों के लिए संपर्क किया जाना चाहिए जो निश्चय ही उनके पास होंगे.
मंत्रालयों से जुड़ी यादें
बिमल पटेल की बड़ी टीम ने अतीत को लेकर जो एकमात्र शोध किया है या योजना बनाई है, वह है पुराने वास्तुशिल्प डिजाइनों का अध्ययन करना, उसमें इस्तेमाल हुई सामग्रियों का ऑडिट करना और हाल के दशकों में उनके ढांचों में किए गए बेतरतीब बदलावों का ब्यौरा दर्ज करना. वे इमारतों का एक विस्तृत फोटोग्राफिक और वीडियो दस्तावेज़ीकरण भी कर रहे हैं. यह अनुसंधान विशुद्ध वास्तुशिल्पीय दृष्टिकोण से मूल्यवान है — नई संरचनाओं के निर्माण और पुराने के नवीकरण के लिए. लेकिन कथात्मक इतिहास की परियोजना की दृष्टि से उनका कोई योगदान नहीं है.
अभी तक, पुराने मंत्रालय भवनों के पुराने सीपीडब्ल्यूडी वास्तुकारों और डिज़ाइनरों के परिवारों को ढूंढने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. बेशक, उनमें से कुछ दुनिया से विदा हो चुके होंगे, लेकिन उनके परिजन मौजूद होंगे और उनके पास कुछ यादें, पत्र, डायरी, स्मृतिचिन्ह आदि हो सकते हैं. इन भवनों में काम करने वाले सरकारी कर्मचारियों की पहली पीढ़ी किसी भी मौखिक इतिहास परियोजना के लिए एक बड़ा स्रोत है.
आईआईसी जब 50 का हुआ
पुरानी इमारतों के जन इतिहास के ज़रिए क्या प्रस्तुत किया जा सकता है, पेश है इसका एक उदाहरण. जब इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) 50 साल का हो गया, तो मैं मौखिक इतिहासकारों की एक टीम का हिस्सा थी जिसका नेतृत्व सृष्टि स्कूल ऑफ़ डिज़ाइन की विशेषज्ञ इंदिरा चौधरी ने किया था. मैंने इमारत के अमूर्त विरासत को समझने और संरक्षित करने के लिए आईआईसी के शुरुआती सदस्यों के साथ मौखिक इतिहास के सत्र आयोजित किए. उनमें शामिल विषय थे आरंभिक दशकों में आईआईसी का स्वरूप, स्टीन की अद्वितीय वास्तुकला में गर्व की भावना, भूपरिदृश्य, बुद्धिजीवियों के लिए एक महत्वपूर्ण बैठक स्थल के रूप में इसका विकास, और इस संस्थान में अंतर्निहित नेहरू के ‘अंतर्राष्ट्रीयतावाद’ का अर्थ.
आरंभिक सदस्यों ने आईआईसी चुनावों, लाउंज की गपशप, वीआईपी मेहमानों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन, उद्यानों और पुस्तकालय आदि को याद किया. आईआईसी ने पुराने सदस्यों के जीवित रहते इतिहास में गोते लगाने का यह प्रयास किया था. जिन आधा दर्जन लोगों से मैंने बात की थी उनमें से कम से कम दो – कुलदीप नैयर और बीजी वर्गीज़ – का उसके बाद देहांत हो चुका है. मौखिक इतिहास और कलाकृतियों के संग्रह की परियोजनाएं हमेशा समय से होड़ लगाने के समान होती हैं.
तात्कालिक इतिहास
समस्या ये है कि भारत के लोग समकालीन इतिहास को संग्रह करने लायक इतिहास नहीं मानते हैं. कई सरकारी इमारतें आधी सदी से भी अधिक समय से देश की राजधानी के केंद्र में मौजूद हैं और उनकी ऐतिहासिकता को स्थापित किया जा सकता है.
जब हम इतिहास के बारे में सोचते हैं, तो हमारा ध्यान सिर्फ प्राचीन, मध्यकालीन और औपनिवेशिक इतिहास पर होता है. इसी तरह, संग्रहालय के बारे में हमारी समझ महज पुरातात्विक और शाही कलाकृतियों को एकत्र करने तक सीमित है. क्या सीपीडब्ल्यूडी के इंजीनियरों और वास्तुकारों तथा मंत्रालयों और संसद भवन के साधारण सरकारी कर्मचारियों को इतिहास सर्जक माना जा सकता है? समय आ गया है कि हम इस बारे में इतिहास की अपनी सीमित समझ को विस्तार दें कि कौन सी चीज़ें संरक्षण के लायक हैं — और इसमें समकालीन जन इतिहास को भी शामिल करें. हमें ये सोचना चाहिए कि विद्वानों की अगली पीढ़ी या अगली सदी को हमारे साझा वर्तमान के बारे में अध्ययन के लिए क्या कुछ उपलब्ध होगा. कई विकसित पश्चिमी देशों में विश्वविद्यालयों में मौखिक इतिहास संग्रहीत किए गए हैं और उन्हें छात्रों के शोध के लिए बहुमूल्य प्राथमिक स्रोत माना जाता है. अमेरिका में, रेल परियोजना के मौखिक इतिहास, नागरिक अधिकार आंदोलन और विकलांगों के अधिकार (मैंने इस आखिरी विषय पर काम किया है) सार्वजनिक रूप से सुलभ उदाहरणों में शामिल हैं.
यही कारण है कि हमें आज बेंगलुरु में एक भव्य आईटी इतिहास केंद्र, भारतीय लोकतंत्र संग्रहालय या भारतीय मीडिया इतिहास या आर्थिक इतिहास से संबंधित संग्रहालयों का निर्माण करने की आवश्यकता है. वर्तमान संसद संग्रहालय अच्छा है लेकिन यह मुख्य रूप से संस्थागत और राजनीतिक इतिहास पर केंद्रित है. इसमें उन लोगों की यादों और स्मृतिचिन्हों को शामिल नहीं किया गया है जो यहां काम करते हैं या काम कर चुके हैं.
समय निकलता जा रहा है
बेशक, इस बारे में वैध सवाल भी हैं कि क्या स्मारक संबंधी इस तरह की कोई परियोजना मोदी सरकार के लिए एक प्राथमिकता होनी चाहिए, खासकर मौजूदा आर्थिक दौर में बजटीय बाधाओं, कहर ढाती महामारी, सीमित संसाधनों को राजमार्गों और बंदरगाहों जैसे वास्तविक बुनियादी ढांचों में लगाने की आवश्यकता और ‘जो टूटा नहीं उसे सही क्यों करें’ की पुरानी दलील के मद्देनज़र.
हालांकि बिमल पटेल और उनकी टीम हमें ठीक यही बात बताने की कोशिश कर रही है. कि शहर का पुराना केंद्र सुचारू नहीं रह गया है. कि देश की राजधानी के प्रमुख हिस्से में मौजूद इमारतों का पूरा इस्तेमाल नहीं हो रहा है. इस बेशकीमती भूमि का अधिकांश हिस्सा पार्किंग लॉट के तौर पर काम कर रहा है. मंत्रालयों की इमारतें शहर भर में फैली हुई हैं. कुल 51 में से केवल 22 मंत्रालय ही सेंट्रल विस्टा की परिधि में हैं. और संसद भवन पुराना, असुरक्षित और तंग है.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट में दायर दस याचिकाएं पारदर्शिता, परामर्श, अनुमति और भूमि उपयोग जैसे मुद्दों के बारे में हैं. कइयों ने इस परियोजना की आलोचना करते हुए इसे सम्राट के अहंकारोन्माद, मोदी के महती दंभ और यहां तक कि एक उदार लोकतंत्र के खंडहर पर निर्मित राजमहल तक की संज्ञा दी है.
लेकिन उनमें से किसी में भी मूर्त और अमूर्त इतिहास के संरक्षण के मुद्दे को नहीं उठाया गया है, जिन्हें कि हम हमेशा के लिए खो देंगे. इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है. समय निकलता जा रहा है.
बिमल पटेल का कहना है कि नए सेंट्रल विस्टा का उद्देश्य ‘विस्टा का दायरा बढ़ाना और सार्वजनिक स्थल का विस्तार करना’ है. इस विस्तार में जनता को भी शामिल किया जाए.
(लेखिका दिप्रिंट में ओपिनियन एडिटर हैं. वह रिमेंबर भोपाल म्यूज़ियम की क्यूरेटर भी हैं और उन्होंने स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन सहित कई अमेरिकी संग्रहालयों में काम किया है. उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों तथा मिज़ौरी हिस्ट्री म्यूजियम के लिए अमेरिकी विकलांगता अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मौखिक इतिहास सत्र आयोजित किए हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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Ridiculous article, by going by this view there could not be a single renovation/reconstruction in this country.
फालतू लेख।
बस केवल नफरत के उद्देश्य से तथ्यों को तरोड मरोड कर की गयी प्रस्तुति से क्या लाभ??
ये काफी हलका और उबाऊ जरिया है सरकार को बदनाम करने को, एक असफल और कुत्सित प्रयास, जनता अब समझने लगी है और मुखर हो गई है, गुप्ताजी, इसलिए अब पर्सनल रोटियां सेंकने के अपने घृणित प्रयासों को दरकिनार कर के देश हित मे सोचे, जों अभी हो रहा है, उस में सहयोग कर सकते है तो करे, व्यर्थ के प्रलाप कर के क्यों अपनी छवि को और मलिन्न कर रहे है, आशा है देश को एक नए रूप देने के इस यज्ञ में कोई विघ्न ना डाल के, योगदान करेंगे, इतिहास सदा आभारी होगा।
Our recent history is poverty you want to keep that to remember or want to move ahear and do something good.
Bummer..?