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Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतमोदी को शी की नीतियों की नकल नहीं करनी चाहिए क्योंकि भारत और चीन कई तरह से समान नहीं

मोदी को शी की नीतियों की नकल नहीं करनी चाहिए क्योंकि भारत और चीन कई तरह से समान नहीं

व्यवसाय जगत के मामले में मोदी सरकार के नये रुख, और राजनीति तथा सार्वजनिक जीवन के मामले में अपनी चलाने के इसके पुराने तेवर में कोई तालमेल नहीं दिखता.

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नरेंद्र मोदी सरकार ने आर्थिक नीति को जिस नये रास्ते पर डाल दिया है उसे अच्छी तरह समझने की जरूरत है कि वह कारगर साबित होगी या नहीं. इसमें न केवल सरकारी कंपनियों बल्कि बिजली वितरण जैसे दूसरे सेक्टरों का निजीकरण भी शामिल है. बिजली वितरण में अब उपभोक्ताओं को अपना सप्लायर भी चुनने की छूट देने का वादा किया जा रहा है.

रवैया भी बदलने का वादा किया जा रहा है. सरकार संपदा निर्माण करने वालों की तारीफ करते हुए कंपनी कानून और टैक्स कानूनों को अपराध कानूनों के डर से बाहर करने और टैक्स आकलन को अधिक व्यक्ति-मुक्त करने की भी बात कर रही है. व्यापार के दोस्ताना माहौल और कम शक्की सरकार देने के वादे ने अधिकतर लोगों को आश्चर्य में डाल दिया है. लेकिन इसके लिए आधार नये श्रम नियमों, कृषि मार्केटिंग के प्रस्तावित उदारीकरण, खनन तथा रेलवे में निजी क्षेत्र के प्रवेश की छूट और मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के प्रोत्साहनों ने तैयार किया. 7 साल पहले मोदी ने कहा था कि कारोबार चलाना सरकार का कारोबार नहीं है, अब जाकर व्यवसाय जगत को असली बदलाव की भनक मिल रही है.

उस भूले हुई सूक्ति की याद शायद पिछले प्रयासों से मिली निराशा से आई हो. जीएसटी से जो हासिल होने का वादा किया गया था वह पूरा नहीं हुआ, तो जीडीपी में कर राजस्व का अनुपात घट गया. टेलीकॉम, सरकारी तेल कंपनियों का जो हाल है, और रिजर्व बैंक को जिस तरह दुह लिया गया है उन सबके मद्देनजर करों से इतर स्रोतों से आने वाले राजस्व से भविष्य में उछाल हासिल होने की कम ही उम्मीद है. अब करने को क्या रह गया था, सिवाय भरपूर उधार लेने, कंपनियों को बेचने और सरकारी संपत्तियों को पैसे में बदलने के? दूसरे शब्दों में, निजीकरण और सरकारी संपत्तियों को पैसे में बदलने के प्रस्ताव वित्तीय अंधकूप में से निकले हैं.


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दूसरी नीतियां भी शानदार सफलता हासिल नहीं कर पाई हैं— चाहे वे बैंकिंग क्षेत्र की हों या मेक इन इंडिया की हों, निर्यात से जुड़ी हों या कुल आर्थिक वृद्धि से. इसलिए ऐसा लगता है कि हाथ खड़े कर देने का फैसला कर लिया गया है, हालांकि यह मोदी सरकार का स्वभाव नहीं है. इसलिए व्यवसाय जगत के मामले में उसके नये रुख और राजनीति तथा सार्वजनिक जीवन (मीडिया व सिविल सोसाइटी) के मामले में अपनी चलाने के इसके पुराने तेवर में कोई तालमेल नहीं दिखता. निजी निवेश की अपेक्षा रखने वाली बाज़ार केंद्रित अर्थव्यवस्थाएं स्वायत्त संस्थाओं, शासन की मनमानी पर अंकुश, और खुली अभिव्यक्ति की आजादी के बिना अच्छी तरह काम नहीं कर पातीं. मोदी सरकार को यह दावा करने में मुश्किल होगी कि वह इसी सबको प्रोत्साहन देती रही है, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय पंचाटों के फैसले भी ज्यादा प्रभावी नहीं दिख रहे हैं.

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इसके मद्देनजर रविंदर कौर ने अपनी किताब ‘ब्रांड न्यू नेशन : कैपिटलिस्ट ड्रीम एंड नेशनलिस्ट डिजाइन्स इन 21र्स्ट सेंचुरी इंडिया’ में दिलचस्प तर्क दिया है कि वास्तव में दक्षिणपंथी राजनीति और दक्षिणपंथी अर्थनीति में कोई विरोध नहीं है, दोनों ने मिलकर भारत की नयी छवि गढ़ी है. शायद ऐसा ही है, लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि यह कितना कारगर होता है. दूसरी जगहों पर ऐसे प्रयोग के नतीजे अलग-अलग मिले हैं. तुर्की में रिसेप एर्दोगन के राज में मुद्रा का पतन हो गया और पूंजी बाहर उड़ गई. लेकिन विक्टर ओर्बन की हंगरी में टैक्स कम हुए और उपभोक्ता के शुल्क घटे, वित्तीय घाटे और सार्वजनिक कर्ज पर काबू पाया गया, बेरोजगारी घटी और आर्थिक वृद्धि दर सुधरी. सबसे बुरा उदाहरण व्लादिमीर पुतिन के रूस का है, जहां सामंतों का दबदबा कायम है और निष्क्रिय अर्थव्यवस्था के बीच बढ़ते असंतोष को दबाया जा रहा है.

एकदम दूसरे छोर पर आप चीन को देख सकते हैं, जहां ऊईघरों के दमन और विदेशी निवेश के स्वागत के बीच विरोधाभास से निपटने में सफलता पाई गई है; जो दुनिया का कारख़ाना बन गया जबकि राष्ट्रपति शी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में अपने विरोधियों या प्रतिद्वंद्वियों को दरकिनार करते या जेल भेजते रहे हैं; जो दिग्गज ग्लोबल टेक कंपनियों के लिए नियम-कायदे तय कर रहा है या उन्हें एकदम खारिज करता रहा है और इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय महत्व भी हासिल करता रहा है.

इस तरह के कुछ प्रयास मोदी के भारत में भी खामोशी से दोहराए जाते दिख रहे हैं. लेकिन बीजिंग की नकल करने से बात नहीं बनने वाली. चीन तो अपनी योजनाओं को बेहतर तरीके से लागू करा सकता है मगर भारत में, जैसा कि मोदी बता चुके हैं, आईएएस भी हैं. भारत में विरोध कर रहे किसान महीनों तक राजधानी को घेरे रह सकते हैं लेकिन सरकार तियानमेन मार्का दमन के बारे में सोच भी नहीं सकती. अगर सच यह है कि भारत पर शासन चला पाना मूलतः मुश्किल है, तो मोदी इतना ही कर सकते हैं कि घालमेल की पुरानी परंपरा को ही आगे बढ़ाते रहें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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