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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतBJP के सांगठनिक पुनर्गठन में मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ मंत्र को मिला नया आयाम

BJP के सांगठनिक पुनर्गठन में मोदी के ‘सबका साथ, सबका विकास’ मंत्र को मिला नया आयाम

सबके बीच स्वीकार्यता का दावा करना एक हद तक सही हो सकता है, लेकिन इस मामले में काफी कुछ काफी नेताओं की उपयोगिता और उनकी कथित निष्ठा भी निर्भर करता है.

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भारतीय जनता पार्टी में पिछले चार हफ्तों के दौरान नई नियुक्तियों और बदलाव का जो दौर चला, वो यह बताने के लिए काफी है कि कैसे नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने 2024 के लोकसभा चुनाव से करीब 17-18 महीने पहले पार्टी में संगठनात्मक स्थिरता लाने और निश्चिंतता का भाव कायम करने के लिए कमर कस ली है.

ऐसा लग रहा है कि शायद इसके पीछे सबसे बड़ा संदेश यही है कि भाजपा ने पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के दूसरे कार्यकाल के लिए मन बना लिया है. संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति का पुनर्गठन, कई राज्यों में नए पार्टी अध्यक्षों की नियुक्ति और राज्यों के नए प्रभारी तय किया जाना उनका नेतृत्व बरकरार रहने के ही संकेत देता है. 20 जनवरी 2020 को शुरू हुआ नड्डा का तीन वर्षीय कार्यकाल पूरा होने में करीब चार माह का समय बचा है, ऐसे में मोदी और शाह के मन में किसी और को पार्टी अध्यक्ष बनाने का विचार होता तो शायद इतने बड़े पैमाने पर संगठनात्मक फेरबदल नहीं होते. हालांकि, तार्किकता के आधार पर यह अनुमान लगाना बेहद जटिल कार्य है कि आखिर उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा. वैसे भी मोदी-शाह की जोड़ी अक्सर सोच से परे फैसले लेकर हैरत में डालती रहती है. बहरहाल, प्रधानमंत्री की सलाह के साथ केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा चलाई जा रही पार्टी पार्टी में अपनी सीमाओं से भलीभांति परिचित नड्डा भाजपा अध्यक्ष पद के लिए एकदम फिट हैं. नड्डा अच्छी तरह जानते हैं कि जो काम उन्हें सौंपा गया, उस पर अमल सुनिश्चित करना ही उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है. और इसमें उन्होंने महारत हासिल कर रखी है. पार्टी आलाकमान के प्रति उनकी निष्ठा निर्विवाद है. ऐसे में एकबारगी तो इसकी गुंजाइश कम ही नजर आती है कि मोदी और शाह के पास उनका विकल्प तलाशने का कोई कारण हो सकता है.


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व्यापक स्तर पर क्या हैं नियुक्तियों के निहितार्थ

अगस्त के तीसरे हफ्ते के बाद से मोदी-शाह की तरफ से किए गए संगठनात्मक बदलावों पर गौर करें तो ऐसा लगता है कि यह उन नेताओं को समायोजित करने की एक ठोस कवायद थी जो खुद को दरकिनार मान रहे थे या और नाराज थे. इसके अलावा यह संगठन में नेताओं की एक नई पौध लाने और अपने वादों पर खरा उतरने वालों को भी जगह देने की कोशिश नजर आती है.

पिछले सप्ताह नियुक्त नए राज्य प्रभारियों पर एक नजर डालें. नवंबर 2020 में मणिपुर के प्रभारी बनाए गए संबित पात्रा को पूर्वोत्तर राज्यों का कोऑर्डिनेटर बनाकर एक बड़ा प्रोमोशन दिया गया है. एक तरह से देखा जाए तो वह हिमंत बिस्वा सरमा के नक्शे-कदम पर हैं. जाहिर तौर पर पात्रा को मणिपुर विधानसभा में भाजपा के अपने दम पर बहुमत हासिल करने का पुरस्कार मिला है. बिहार के युवा नेता ऋतुराज सिन्हा को पूर्वोत्तर का ज्वाइंट कोऑर्डिनेटर बनाया गया है. वह पूर्व सांसद और सिक्योरिटी सर्विस प्रोवाइडर एसआईएस (इंडिया) के संस्थापक आर.के. सिन्हा के पुत्र हैं. पिछले साल अक्टूबर में राबड़ी देवी के आवास पर लालू यादव के साथ आर.के. सिन्हा की मुलाकात ने बिहार के राजनीतिक हलकों में अच्छी-खासी सुगबुगाहट पैदा कर दी थी.

हरियाणा के प्रभारी महासचिव विनोद तावड़े को बिहार का प्रभार दिया गया है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है खासकर यह देखते हुए कि लोकसभा में 40 सांसद भेजने वाले इस राज्य में कैसे सहयोगी दल के नेता नीतीश कुमार ने पार्टी को दरकिनार कर दिया है. मुंबई के एक मराठा नेता तावड़े और देवेंद्र फडणवीस बहुत अच्छे दोस्त नहीं हैं. वह स्कूल, उच्च और तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और सांस्कृतिक मामलों समेत कई विभागों के साथ फडणवीस के नेतृत्व वाली सरकार में एक हाई-प्रोफाइल मंत्री थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उन्हें चिकित्सा शिक्षा विभाग से हटा दिया था. 2019 के विधानसभा चुनाव में तावड़े को पार्टी टिकट से भी वंचित कर दिया गया. नवंबर 2020 में उन्हें हरियाणा का प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया और अब उन्हें बिहार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई है. संयोग से, एक अन्य भाजपा नेता चंद्रशेखर बावनकुले को पिछले महीने महाराष्ट्र भाजपा अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, जिनका टिकट भी 2019 के विधानसभा चुनाव में कट गया था. यह सब सिर्फ उन नेताओं को उचित जगह देने का मसला नहीं है, जिन्होंने फडणवीस शासनकाल के दौरान महाराष्ट्र भाजपा में खुद को दरकिनार पाया था. ये नियुक्तियां भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग रणनीति का भी हिस्सा हैं. तावड़े एक मराठा नेता हैं, जबकि बावनकुले तेली समुदाय से आने वाले एक अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) नेता हैं. बावनकुले, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की तरह कभी एक ऑटो-रिक्शा चालक रहे थे. फडणवीस की एक अन्य आलोचक पंकजा मुंडे को ताजा संगठनात्मक फेरबदल के दौरान मध्य प्रदेश की सह-प्रभारी के तौर पर बरकरार रखा गया है.

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गत मई में अचानक त्रिपुरा के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए बिप्लब देब को राज्यसभा के लिए नामित करने के साथ हरियाणा का प्रभारी नियुक्त करके उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश की गई है. पार्टी सहयोगियों की मानें तो देब को गैर-राजनीतिक कारणों से निकाला गया था और अपने निष्कासन के बाद से ही नाराज चल रहे थे. त्रिपुरा में भाजपा का सबसे लोकप्रिय चेहरा माने जाने वाले देब की नाराजगी दूर करना और उन्हें उचित जिम्मेदारी देना जरूरी माना जा रहा था. पार्टी ने देब के करीबी माने जाने वाले राजीव भट्टाचार्जी को ही त्रिपुरा भाजपा का नया अध्यक्ष नियुक्त किया है.

पिछले साल सितंबर में अचानक गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाए गए विजय रूपाणी को पंजाब का प्रभार सौंपा गया है, जबकि 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर कर दिए गए महेश शर्मा को त्रिपुरा का प्रभार मिला है.

मोदी की छाप साफ नजर आ रही

एक भाजपा नेता ने इस पर चुटकी लेते हुए लेखक से यहां तक कहा, ‘आपको इन नियुक्तियों में मोदीजी के सबका साथ, सबका विकास नारे की झलक देखनी चाहिए. यह एक संदेश है कि संगठन में किसी को भी छोड़ नहीं दिया जाएगा. देर-सबेर सभी कहीं न कहीं उचित ढंग से एडजस्ट हो जाएंगे.’

खैर, यह कुछ हद तक तो सच है. लेकिन काफी हद तक यह सब नेताओं की उपयोगिता और उनकी कथित निष्ठा पर निर्भर करता है. कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद से नाराज चल रहे कद्दावर लिंगायत नेता बी.एस. येदियुरप्पा को भाजपा संसदीय बोर्ड में जगह मिल गई है, वहीं नितिन गडकरी और शिवराज चौहान शीर्ष निर्णायक इकाई से बाहर हो गए हैं. पिछले साल केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाए गए 71 वर्षीय प्रकाश जावड़ेकर का केरल प्रभारी के तौर पर ‘पुनर्वास’ किया गया है. वहीं, कई अन्य मंत्री जिन्हें उनके साथ और फिर उनसे पहले हटाया गया था, को ऐसे ही छोड़ दिया गया है, जिनमें रविशंकर प्रसाद, सदानंद गौड़ा और हर्षवर्धन आदि शामिल हैं.

इन सबसे इतर, खुद को अलग-थलग महसूस कर रहे तमाम नेताओं को समायोजित करने की भाजपा आलाकमान की कवायद के पीछे मोदी के विचारों की छाप भी साफ नजर आती है. जैसा कि इस लेखक को एक मित्र ने बताया, जिसे प्रधानमंत्री के साथ बातचीत करने का अवसर मिला था. एक राजनीतिक संगठन के बारे में राय पूछे जाने पर मोदी का कहना था, ‘मान लो एक सिनेमा हॉल में सैकड़ों लोग बैठे हैं. सभी का एक साझा उद्देश्य है—फिल्म देखना. मान लीजिए अचानक कोई ‘सांप, सांप’ चिल्लाने लगे तो क्या होगा? हॉल से बाहर निकलने के लिए लोग हड़बड़ी में एक-दूसरे को धक्का देने लगेंगे और किसी तरह कोशिश करके बाहर आने लगेंगे. यह कोई संगठन नहीं होता है. आपको एक समान उद्देश्य के लिए साथ रहना और साथ काम करना सीखना होगा, फिर कोई भी संकट क्यों न आए.’

…और फिर साथ रहने वालों को देर-सबेर उनका पुरस्कार तो मिलेगा ही. शायद मौजूदा संगठनात्मक बदलावों के जरिये मोदी और शाह का यही संदेश देना चाहते हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. वह @dksingh73 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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