क्या अयोध्या में 5 अगस्त को भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत हो गई? इसके बाद तो यही कहा जा सकता है एक नए भारतीय गणतंत्र, एक हिंदू राष्ट्र का उदय हो गया है.
अगर आप इन दो बातों पर विश्वास करते हैं तो तीसरी बात यही कही जा सकती है कि भारतीय संविधान में आस्था रखने वाला कोई भी भारतीय यही कहेगा कि यह वो देश नहीं है जिसमें मैं पैदा हुआ था, अब मैं यहां नहीं रह सकता. तो वह कहां जाएगा? अमेरिका, और कहां लेकिन तभी जब डोनाल्ड ट्रंप इस जाड़े में सत्ता से हट जाएं और वहां जाने के नियम आसान हो जाएं.
लेकिन सबसे पहले हम साफ कर दें कि हम इस तरह की बातों को बेमानी मानते हैं. पहली बात, भारतीय धर्मनिरपेक्षता की मौत की बातें महज अफवाह हैं और उन्हें कुछ ज्यादा ही तूल दिया जा रहा है. मैं यहां अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन से माफी मांगूंगा कि उन्हें अपने यहां की राजनीति के कीचड़ में खींच रहा हूं. दूसरे, धर्मनिरपेक्षता की मौत की तो पहले भी न जाने कितनी बार घोषणा की जा चुकी है, शायद उतनी बार जितनी बार हमारे ‘कमांडो’ छाप टीवी चैनलों ने दाऊद इब्राहिम के मारे जाने की घोषणा की होगी.
इस तुलना के लिए अफसोस है मगर अफवाह तो अफवाह ही होती है. हां, इसमें आपको मज़ा आ सकता है अगर आपको दूसरों को परेशान देखने में या अपना मज़ाक उड़वाने में मज़ा आता है.
हम 138 करोड़ भारतीयों में विशाल आबादी उन लोगों की है जिनके पास न तो कोई ग्रीन कार्ड है, न अमेरिका या यूरोप या कुछ लोगों के लिए नया आकर्षण बने तुर्की में जिनके कोई दयालु अंकल बैठे हैं और न ही कोई ऐसी संस्था या फाउंडेशन है जो विदेश में उनका इंतजार कर रहा हो. हमें तो इसी भारत में उन्हीं लोगों के राज में रहना है जिन्हें जनता चुनती है और जिन्हें उस संविधान के मुताबिक शासन करना है जिसे हम सब बहुत पसंद करते हैं.
पिछले 35 वर्षों के दौरान, धर्मनिरपेक्षता की मौत की तब भी घोषणा की गई जब राजीव गांधी ने शाह बानो मामले (1986) में कार्रवाई की, जब सलमान रुशदी की किताब ‘सैटनिक वर्सेज़ ’ पर पाबंदी लगाई गई (1988), जब बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ताला खोला गया, जब ‘राम राज्य’ लाने के वादे के साथ अयोध्या में शिलान्यास और राम मंदिर के लिए देशव्यापी आंदोलन शुरू किया गया (1989).
और 1992 में जब मस्जिद को ढहा दिया गया और सांप्रदायिक दंगे फैल गए तब यही कहा गया कि ‘अपने धोती के नीचे खाकी चड्डी पहनने वाले’ प्रधानमंत्री से और क्या उम्मीद की जा सकती थी? अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी को संजीवनी बूटी के साथ राजनीति में खींचा मगर इस कलयुग पर इसका असर कम समय तक ही रहा. धर्मनिरपेक्षता की मौत की तब भी घोषणा की गई जब 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी ने देश में पहली बार भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बनाई. हालांकि वह 13 दिन ही चली, कांग्रेस नेता वी.एन. गाडगील की भविष्यवाणी से तीन दिन ज्यादा, जिन्होंने इसे ‘दस दिन का खेल’ कहा था.
इसके बाद 2002 में गुजरात में हुई हत्याओं और फिर नरेंद्र मोदी की वहां बार-बार जीत के साथ भी हमारी धर्मनिरपेक्षता मरती रही. तभी हम 19 मई 2014 को आते और अब 5 अगस्त 2020 को जो कुछ हुआ उसका पूर्वानुमान लगा सकते थे. गुजरात में 2002 कांड और 2007 के चुनाव के बाद मैंने इस स्तम्भ के दो लेख लिखे थे और एक ताकतवर राष्ट्रीय नेता के रूप में मोदी के अपरिहार्य एवं निश्चित उत्कर्ष का अनुमान लगाया था. बल्कि दूसरे लेख में मैंने यह भी कहा था कि मोदी का आधी बांह का कुर्ता एक राजनीतिक फैशन का बयान बनने वाला है.
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क्या मैं मोदी प्रशंसक या आज की फैशन के मुताबिक मोदी भक्त हूं? मुझ पर यह आरोप तो मोदी भी नहीं लगाएंगे. मैं एक पत्रकार हूं, जो अपनी आंखें और कान खुले रखता है. भारतीय धर्मनिरपेक्षता को 2014 में और फिर 2019 में भी मृत घोषित किया गया. इसके बावजूद वह पिछले सप्ताह 5 अगस्त को फिर से मारे जाने के लिए जीवित बची हुई थी. लेकिन हां, आप कह सकते हैं कि आपने इस बार उसकी लाश देखी है.
अयोध्या में 5 अगस्त 2020 को बेशक ऐसा कुछ है जिसकी मौत हो गई. वह हमारी संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता भले न हो, लेकिन उसका दिसंबर 1992 में बना संस्करण जरूर था. बाबरी विध्वंस और इसके बाद हुए दंगों से तटस्थ हिंदू जरूर गुस्से में थे और यह इसके बाद हुए चुनाव नतीजों में जाहिर भी हुआ. ऐसा हिंदी पट्टी और खासकर उत्तर प्रदेश में हुआ. कल्याण सिंह की सरकार के जाने के बाद मुलायम सिंह यादव और मायावती बारी-बारी से सत्ता में आई. दोनों ने पुनःपरिभाषित ‘सेकुलर’ वोट के इर्द-गिर्द अपनी नई राजनीति चलाई. बिहार में लालू यादव ने इस फॉर्मूले को पहले ही मज़बूत कर लिया था.
सेकुलर वोट को अब मुस्लिम वोट माना जाने लगा था. इस फॉर्मूले के तहत पुराने दुश्मनों ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए असंभव दिखने वाले गठजोड़ किए. एच.डी. देवेगौड़ा और आई.के. गुजराल के तहत यूनाइटेड फ्रंट की जो दो सरकारें दिहाड़ी पर बनीं वे जनादेश की अवहेलना ही थीं. 1992 के बाद धर्मनिरपेक्षता का ‘भाजपा के सिवा कोई भी’ वाला जो नया फॉर्मूला बना उसके तहत सच्चा जनादेश 2009 में ही मिला. इसे हम 1992 के बाद धर्मनिरपेक्षता का नया फॉर्मूला इसलिए कहते हैं क्योंकि वामपंथी राजनीति और बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे जुड़ गया. उन्होंने अयोध्या के द्वंद को इस सवाल पर पहुंचा दिया कि राम का अस्तित्व वास्तव में था भी या नहीं? यह कांग्रेस के उस सतर्क रुख से अलग था जिसके तहत अल्पसंख्यकों की हिमायत तो की जाती थी मगर हिंदू धर्म का मखौल नहीं उड़ाया जाता था.
अगर नई भाजपा और ज्यादा गहरे भगवा रंग में रंग गई, तो कांग्रेस के नेतृत्व वाली धर्मनिरपेक्षता और ज्यादा लाल रंग में रंगी नज़र आने लगी. इसके चलते कई भारी भूलें की गईं— यूपीए-1 के गठन में ‘पोटा’ (आतंकवाद रोकथाम कानून) को खत्म करने की शर्त रखी गई क्योंकि इससे ‘मुसलमानों’ को प्रताड़ित होने का एहसास होता था. गौरतलब है कि आतंकवाद के मामले में ढील न देने वाली उसी सरकार ने ‘यूएपीए’ में संशोधन किया. क्या यह कानून ज्यादा नरम था? डॉ. कफील खान से पूछ लीजिए.
भारतीय सेना में मुसलमानों की संख्या को लेकर सवाल उठाने वाली सच्चर कमिटी की रिपोर्ट के बाद नौकरियों में मुसलमानों को आरक्षण देने की कई घोषणाएं की गईं (लेकिन मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया गया). यूपीए सरकार ने बाटला हाउस एनकाउंटर में मारे गए पुलिस अफसर को शांतिकाल का सबसे बड़ा शौर्य पुरस्कार दिया और उसके आला नेता मुस्लिम भावनाओं को ‘आश्वस्त’ करने के लिए इस एनकाउंटर को लेकर संदेह जताने लगे. और भी गलतियां की गईं, मनमोहन सिंह ने बयान दे दिया कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है.
सोनिया से पहले, आपने किसी कांग्रेसी प्रधानमंत्री को इस तरह की बात कहते नहीं सुना होगा. सपा-बसपा और राजद एक-दो बड़ी जातियों के साथ मुस्लिम वोट को जोड़कर सत्ता हासिल करती रहीं मगर उनकी सरकारें घटिया ही साबित हुईं. एक समय ऐसा आया जब मतदाताओं, खासकर हिंदू मतदाताओं ने तय कर लिया कि अब बहुत हो चुका. उसी धर्मनिरपेक्षता की पिछले सप्ताह अंततः मौत हो गई. इससे लाभान्वित होने वालों को इसका अंदाजा लग गया था. वरना आपने राहुल गांधी को दत्तात्रेय ब्राह्मण के नये अवतार में जनेऊ धारण किए मंदिरों में जा-जा कर दर्शन करते न देखा होता. लेकिन देर से आए और ना-दुरुस्त आए.
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नरेंद्र मोदी दावा कर सकते हैं कि उन्होंने भारतीय धर्मनिरपेक्षता को जनता की इच्छा के आधार पर परिभाषित किया है. वे दोबारा हासिल जनादेश की ताकत के बूते बोल रहे हैं. अब आप जनता को दोषी ठहरा सकते हैं. एक सच्चे गणतंत्र में, संविधान चाहे जो कहे, अगर बहुसंख्य लोग किसी बात को नापसंद करते हैं तो वे उसे खारिज कर सकते हैं. कमाल अतातुर्क ने घोषणा कर दी कि हागिया सोफिया न तो चर्च है (हालांकि हज़ार साल से 1453 ई. तक वह चर्च ही था) और न मस्जिद है (जो कि वह 1453 के बाद से वह थी). उसे उन्होंने संग्रहालय बना दिया. वे लोकतंत्रवादी नहीं थे, एक उदार तानाशाह थे, बेशक एक सेकुलर तानाशाह. वे राजनीति में धर्म का घालमेल नहीं चाहते थे.
पिछले महीने एर्दोगन ने उस फैसले को उलट दिया. वे लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित हैं. उनके फैसले को तुर्की में जनता का समर्थन हासिल है या नहीं? तो क्या यह जनता की सच्ची इच्छा का प्रतीक है? जो सेकुलर था वह लोकतांत्रिक नहीं था, जो लोकतांत्रिक है वह सेकुलर नहीं है. राजनीति दिलचस्प खेल है.
आप नई जनता नहीं चुन सकते, न ही भारत की जनता से निराश होने की कोई वजह है. मोदी की भारी लोकप्रियता के बावजूद उनके खिलाफ वोट देने वाले हिंदुओं की संख्या अभी भी काफी है, उन्हें बस बेहतर विकल्प चाहिए.
मैं आपको 1996 की गर्मियों में ले जाना चाहता हूं, जब 13 दिन की वाजपेयी सरकार लोकसभा में विश्वास मत हासिल करने में विफल रही थी. उस समय ‘सेकुलर’ नेता रामविलास पासवान ने शानदार भाषण दिया था. उन्होंने कहा था, बाबर केवल 40 मुसलमान लेकर आया था. उनकी संख्या करोड़ों में पहुंच गई क्योंकि आप ऊंची जाति वालों ने हमें मंदिरों में जाने नहीं दिया लेकिन मस्जिदों के दरवाजे खुले थे तो हम वहीं चले गए.
भारतीय धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान के बुनियादी ढांचे में शामिल है, जिसे अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने तब और मजबूती दे दी जब उसने भारत के अंदर के सभी धार्मिक स्थलों को सुरक्षा प्रदान करने वाले 1993 के कानून को इस ढांचे में बड़ी कुशलता से शामिल कर दिया. इस ढांचे की रक्षा जरूरी है. भारतीय धर्मनिरपेक्षता को किसी स्मृतिशिला की जरूरत नहीं है, उसे एक नये पूजास्थल की जरूरत है, जैसा कि पासवान ने बताया था.
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क्या लेखक इस बात पर प्रकाश डाल सकता है की जब धर्म के आधार पर देश का विभाजन हो गया व् पाकिस्तान मुस्लिम देश घोषित हो गया तो भारत में मुसलमानों को रहने दिया गया इस के पीछे उस समय के नेताओं की क्या मानसिकता थी?