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Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतअबकी बार ट्रंप सरकार, मोदी जानते हैं भारत में जीत के लिए प्रवासी भारतीयों का दिल जीतना जरूरी

अबकी बार ट्रंप सरकार, मोदी जानते हैं भारत में जीत के लिए प्रवासी भारतीयों का दिल जीतना जरूरी

ये मत पूछें कि मोदी प्रवासी भारतीयों के लिए क्या कर सकते हैं, सवाल ये है कि प्रवासी भारतीय उनके लिए क्या कर सकते हैं.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संभवत: विदेश में अधिक सहज होते हैं. वह अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का हाथ ऊंचा किए विक्ट्री लैप ले रहे हों, या ब्रिटेन में हों या फिर रवांडा में – प्रधानमंत्री विदेशों में अंतरराष्ट्रीय रॉक स्टार जैसा बर्ताव करते हैं. टेक्सस में ‘हाउडी’ कार्यक्रम में संबोधन करने से लेकर जापान में ड्रम बजाने तक, मोदी सुनिश्चित करते हैं कि विदेश नीति संबंधी उनकी पहल अतिरिक्त ऊर्जा से सराबोर प्रदर्शन नज़र आए.

ऐसे आयोजनों की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी के विराट व्यक्तित्व के निर्माण में भूमिका रही है, क्योंकि उन्होंने सफलतापूर्वक इनका अपने हित में इस्तेमाल किया है. इन आयोजनों में मोदी हमेशा ज़िक्र तो खुद का करते हैं पर अपने श्रोताओं को ये बताना नहीं भूलते कि वह ‘130 करोड़ भारतीयों का प्रतिनिधित्व’ कर रहे हैं. वह पाकिस्तान का, उसका नाम लिए बिना, और आतंकवाद का उल्लेख करते हैं और उन्हें सर्वाधिक तालियां तब मिलती हैं जब वह अनुच्छेद 370 के खात्मे जैसे फैसले की वजह ‘जनता की आकांक्षा’ को बताते हैं. मोदी दूसरे देशों से भारत के रिश्तों को भी भुनाना जानते हैं और वह किसी देश को भारत का बेहतरीन दोस्त बताते हुए अघाते नहीं हैं– देश का नाम इस बात पर निर्भर करता है कि वह बयान किस जगह दे रहे हैं. हालांकि अभी ये स्पष्ट नहीं है कि सचमुच में भारत के विदेशी संबंधों में इतनी बेहतरी आई भी है या नहीं.

ये न पूछें कि मोदी विदेशों में बसे भारतीयों के लिए क्या कर सकते हैं, सवाल ये है कि प्रवासी भारतीय उनके लिए क्या कर सकते हैं. मोदी अपने मतदाताओं को जानते हैं. भारतीयों को प्रभावित करने के लिए आपको प्रवासी भारतीयों के दिलों को भी जीतना होता है.


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क्योंकि जब प्रवासी भारतीयों के मोदी के प्रति प्यार की बात आती है तो दबंग फिल्म में सलमान ख़ान का एक लोकप्रिय डायलॉग याद आता है: मैं दिल में आता हूं, समझ में नहीं.

मोदी का गणित

नरेंद्र मोदी ने एक बार न्यूयॉर्क को अपना ‘दूसरा घर’ बताया था. वह प्रधानमंत्री बनने से पूर्व भी नियमित रूप से अमेरिका के चक्कर लगाते थे. 2014 में प्रकाशित एक लेख ‘समर ऑफ’ 93 : चेक आउट यंग नरेंद्र मोदी हैंगिंग आउट ने यूएस’ में इस बारे में बताया गया था.

आखिर, मोदी जब 2014 में सत्ता पर काबिज हुए थे तो बहुत से प्रवासी भारतीयों ने उनका समर्थन किया था और उनके लिए प्रचार किया था.

मोदी प्रवासी भारतीयों की ताकत को नहीं भूले हैं, और वे जिस देश में भी जाएं, भारतीय मूल के लोगों से मिलना नहीं भूलते. सरकारी आंकड़ों के अनुसार, अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने अपने 48 विदेश दौरों में 92 देशों की यात्रा की थी.

प्रवासी भारतीयों के अंतर्मन में चिंता का एक भाव होता है जिसका मोदी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं. भारतवंशी ऑस्ट्रेलिया में हों या अमेरिका में, अफ्रीका में या पश्चिम एशिया में, उनमें अपनी संस्कृति को लेकर एक तड़प होती है, हालांकि वे भारत के मौजूदा घटनाक्रमों को लेकर नाखुश रहते हैं. मोदी खुद को एक काम करने वाले नेता के रूप में, उद्धारक के तौर पर और अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले ज़्यादा सक्रिय प्रधानमंत्री के रूप में पेश करते हैं.

प्रवासी भारतीयों का आक्रोश

विदेशों में रहने वाले भारतीय गरीबी, भ्रष्टाचार, गंदगी, शहरों की अराजकता, जातिवाद और आरक्षण की नीति से चिढ़ते हैं. पर वे अपनी संपत्ति और भारतीयों से मिलने वाले ईर्ष्यापूर्ण सम्मान को नहीं छोड़ना चाहते. उन्हें इस बात का अहसास है कि वे ‘कामयाब और धनवान’ माने जाते हैं. विदेश में रहते हुए, वे पीछे छूटे अपने वतन से जुड़ने की लालसा रखते हैं, पर वे सचमुच में भारत वापस लौटना नहीं चाहते हैं. इससे एक मनोवैज्ञानिक विभाजन पैदा होता है.

अकेले अमेरिका में 45 लाख से अधिक भारतवंशी हैं. संपूर्ण मध्य वर्ग के लिए 1980-90 में ही अमेरिका सपनों का देश बन गया था. स्वदेश में इन भारतीयों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि रूढ़िवादी और धार्मिक तक थी. अचानक, उन्होंने खुद को अमेरिका में भौतिकतावादी जीवनशैली के बीचोंबीच पाया. इसने उन्हें उनकी कथित भारतीय पहचान से दूर कर दिया.

उनमें से सारे परिवारों की स्वतंत्रता आंदोलन या गांधीवादी मूल्यों या नेहरूवादी संस्कारों की विरासत नहीं थी. वे शायद नहीं जानते थे कि जवाहरलाल नेहरू ने विशिष्ट आईआईटी संस्थानों की स्थापना की थी, न ही उनको भारत में कंप्यूटर युग लाने में राजीव गांधी के अथक प्रयासों से कोई मतलब था. अमेरिका में उच्च वर्ग के भारतीयों (ब्राह्मणवादी) का आरएसएस से अस्पष्ट जुड़ाव था.

भौतिकवादी सुख-सुविधाओं में घिरे इन भारतीय अमेरिकियों को हिंदुत्व की अस्पष्ट विचारधारा में मनोवैज्ञानिक सुरक्षा का अहसास मिलने लगा. मेरा मानना है कि 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध की रथयात्रा और फिर आरएसएस/विहिप के कट्टरपंथियों द्वारा बाबरी मस्जिद के विध्वंस तक, ये भारतवंशी एक तरह से किसी खास सामूहिक पहचान के बिना रह रहे थे. उसके बाद प्रवासी भारतीयों के हिंदूकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई. वे अमेरिका में ही रहे, पर उन्होंने मुसलमानों को पाकिस्तानी कह कर कोसना शुरू कर दिया, वे नेहरूवादी संस्कारों से भारत को हो रहे कथित नुकसान और फैसले लेने से पीछे नहीं हटने वाले मज़बूत नेता की ज़रूरत जैसे विषयों पर चर्चा करने लगे.

बड़ी भ्रांति

नरेंद्र मोदी में उन्हें एक शानदार विकल्प नज़र आया. वे मोदी के कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए कहीं भी जा सकते हैं. मोदी में उन्हें एक ऐसा हिंदू नेता दिखा जो दुनिया में भारत को सम्मान दिला रहा है- कम-से-कम उन्हें ऐसा ही लगता है. मोदी ने उनको परस्पर एक-दूसरे से और भारत से जुड़ने में मदद की.

प्रवासी भारतीयों को इस बात की उतनी चिंता नहीं है कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सदस्यता मिलती है या नहीं या आर्थिक उपलब्धियों में भारत चीन को पछाड़ सकता है या नहीं. उन्हें खुशी है कि ऐसे आयोजनों में भारत को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया जा रहा है, जैसे ह्यूस्टन में डोनाल्ड ट्रंप द्वारा. किसी अन्य प्रधानमंत्री ने अपने दौरों और रैलियों को राजनीतिक रॉक-एन-रोल में नहीं बदला था. भले ही इसका भारत को या उनको कोई प्रत्यक्ष फायदा नहीं मिले, वे खुद को ऊर्जा से सराबोर पाते हैं.


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विदेशों में बसे भारतीयों के लिए नरेंद्र मोदी एक शानदार भ्रम हैं. प्रधानमंत्री के लिए ‘हाउडी, मोदी!’ कार्यक्रम चंद्रयान-2 से भी अधिक प्रभावशाली छवि वाला रहा. उन्हें इसमें जाना ही था. क्योंकि जब उनके लिए अमेरिका में या दूसरी जगहों पर जयकारा लगता है, यहां स्वदेश में भारतीय गर्व का अनुभव करते हैं. जो कि उनके असल मतदाता हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखक पूर्व संपादक और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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